राष्ट्रीय बालिका दिवस : कैसे खत्म हो लैंगिक असमानता ?
सिर्फ कानून बनाने नहीं, सोच बदलने से ख़त्म होगी लैंगिक असमानता. हमारा संविधान किसी प्रकार से लड़का और लड़की में भेदभाव की अनुमति नहीं देता है.

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सिर्फ कानून बनाने नहीं, सोच बदलने से ख़त्म होगी लैंगिक असमानता
राष्ट्रीय बालिका दिवस का इतिहास, लक्ष्य और उद्देश्य
कहते हैं कि जिस घर में होता है बेटियों का सम्मान, वह घर होता है स्वर्ग के समान. हमारा संविधान किसी प्रकार से लड़का और लड़की में भेदभाव की अनुमति नहीं देता है. लेकिन आज़ादी के 75 साल में भी देश के दूरदराज इलाकों में लैंगिक असमानता बनी हुई है. हालांकि इन्हीं असमानताओं को ख़त्म करने के उद्देश्य से भारत सरकार ने 24 जनवरी 2008 में राष्ट्रीय बालिका दिवस की शुरुआत की थी.
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राष्ट्रीय बालिका दिवस क्यों मनाया जाता है, कब शुरुआत हुई?| National Girl Child Day 2023: Date, History And Significance
राष्ट्रीय बालिका दिवस का उद्देश्य जहां लड़कियों को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करना है वहीं उन्हें सशक्त बनाना भी है. इसके साथ ही समाज में लोगों को बेटियों के प्रति जागरूक करना और यह भी सुनिश्चित करना है कि हर बालिका को उसका मानवीय अधिकार मिले.
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने बालिका दिवस को मनाने के लिए 24 जनवरी का दिन इसलिए भी सुनिश्चित किया, क्योंकि इसी दिन 1966 में इंदिरा गांधी ने भारत की पहली महिला प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी.
आज भी कायम है भारत में लैंगिक असमानता
वैसे तो भारत का संविधान पुरुषों और महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करता है लेकिन फिर भी लैंगिक असमानताएं अभी भी बनी हुई है. हालांकि सरकार लगातार इस बात के लिए प्रयासरत है कि किसी भी तरह पुरुष और महिलाओं की इस को कम किया जाए. लेकिन आंकड़े अभी भी चीख-चीख कर इस बात की गवाही दे रहे हैं कि लड़कियों के साथ भेदभाव जारी है. यह भेदभाव उसके जन्म से पहले से शुरू हो जाता है. कुछ लोग लड़के की चाहत में लड़की को अनदेखा करते हैं. जो कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा देता है. आश्चर्य की बात यह है कि पढ़े लिखे सभ्य समाज में भी लड़का और लड़की के बीच भेदभाव नज़र आता है. सरकार और सामाजिक संगठनों के लाख प्रयास के बावजूद भी कन्या भ्रूण हत्या का अभिशाप कम तो हुआ है, परंतु पूरी तरह समाप्त नहीं हो पा रहा है. हालत यह है कि इंडिया डॉट कॉम की एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना काल में भी जब राजस्थान में लॉकडाउन था, लोग घरों में बंद थे. उसके बावजूद भी बेटियों का कोख में कत्ल और लावारिस फेंकने के मामले कम नहीं हुए.
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8. ICC - 200K+
9. National Girl Child Day - 100K+
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जारी है कन्या भ्रूण हत्या
पिछले 5 सालों के आंकड़े देखें तो साल 2020 और 2021 में कन्या भ्रूण हत्या (female feticide continues) और बच्चियों को लावारिस फेंकने के मामलों में वृद्धि हुई है. साल 2018 में नवजात शिशुओं को फेंकने के 56 मामले सामने आए थे जबकि कन्या भ्रूण हत्या के 124 मामले दर्ज किए गए थे. वहीं वर्ष 2019 में नवजात शिशु को फेंकने के 83 मामले सामने आए जबकि कन्या भ्रूण हत्या के 151 मामले दर्ज किए गए थे. वर्ष 2020 में नवजात शिशु को फेंकने के 64 मामले सामने आए जबकि कन्या भ्रूण हत्या के 151 मामले दर्ज हुए. वहीं वर्ष 2021 में भी नवजात शिशु को फेंकने के 59 मामले सामने आए जबकि कन्या भ्रूण हत्या के 124 मामले दर्ज किए गए. यह आंकड़े इस ओर साफ इशारा कर रहे हैं कि सरकार के लाख प्रयास करने के बावजूद भी अभी भ्रूण हत्या जैसा घिनौना पाप पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है.
भारत में बाल विवाह एक बड़ी समस्या
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सिर्फ भ्रूण हत्या ही नहीं, बालिकाओं के लिए समय से पूर्व विवाह यानि बाल विवाह भी एक बड़ी समस्या है. भारत में प्रत्येक वर्ष 18 से कम उम्र में लगभग 15 लाख लड़कियों की शादी होती है. वर्तमान में 15 से 19 आयु वर्ग की लगभग 16 प्रतिशत किशोरियों की शादी हो चुकी है. जिसके कारण भारत में दुनिया की सबसे अधिक बालिका वधुओं की संख्या है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण( NFHS) की रिपोर्ट के अनुसार पूर्व की अपेक्षा बाल विवाह की दर में मामूली गिरावट दर्ज की गई है. जो वर्ष 2015-16 में 27 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2019-20 में 23 प्रतिशत हो गई है. लेकिन अभी भी इस पर पूरी तरह काबू नहीं पाया जा सका है. अंतर्राष्ट्रीय संस्था 'यूनिसेफ' का कहना है कि जिस लड़की की शादी कम उम्र में हो जाती है, उसके स्कूल से बाहर हो जाने की संभावना बढ़ जाती है तथा समुदाय में योगदान देने की क्षमता कम हो जाती है. उसके साथ घरेलू हिंसा का शिकार होने का खतरा बढ़ जाता है. समय पूर्व विवाह होने के कारण गर्भावस्था और प्रसव के दौरान गंभीर समस्याओं के कारण अक्सर नाबालिग लड़कियों की मृत्यु भी हो जाती है.
Along with the rest of the country, Kohima observed National Girl Child Day at Kohima Orphanage & Destitute Home (KODH) on 24th January 2023.
— MyGov Nagaland (@MyGovNagaland) January 24, 2023
Social Welfare Commissioner and Secretary and Administrator NSSWB Martha R.Ritse IAS addressed on POCSO Act 2012.@dipr_nagaland pic.twitter.com/SyY7BjuAxj
हालांकि किशोरियों के सशक्तीकरण के लिए यह महत्वपूर्ण है कि उनका विवाह कानूनी उम्र के बाद हो, उनके स्वास्थ्य एवं पोषण में सुधार हो, उन्हें अच्छी शिक्षा में सहायता मिले और उनके कौशल का विकास हो सके, जिससे वह अपने आर्थिक योग्यता को साकार कर सकें.
जल्द विवाह होने से लड़कियों की जिंदगी पर किस तरह का प्रभाव पड़ता है, इसका एक उदाहरण जम्मू-कश्मीर के डोडा जिला के कष्टीगढ़ तहसील की रहने वाली मोनिका (बदला हुआ नाम) का परिवार है. वह बताती हैं कि मेरी बड़ी बहन की शादी तब हो गई जब वह 11वीं कक्षा में पढ़ती थी. अभी उसको शादी की कोई सोच समझ नहीं थी. कम उम्र में शादी करा देने का परिणाम ये हुआ कि केवल एक ही वर्ष बाद दोनों का तलाक हो गया. अब मेरे मां-बाप को को पछतावा हो रहा है. वहीं मेरी बहन की जिंदगी पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा. वह मानसिक रूप से इतना टूट गई कि डिप्रेशन में चली गई. हालांकि अब वह इस सदमे से उबर कर आत्मनिर्भर बन चुकी है. अब मेरे घर वालों ने इस गलती से सीख लेते हुए यह निर्णय किया है कि अब वह मुझे पढ़ाएंगे ताकि मैं अपनी जिंदगी के अहम फैसले खुद ले सकूं.
पुरुषों के मुकाबले कम है भारत में महिलाओं की साक्षरता दर
शिक्षा के मामले में भी असमानताएं साफ़ तौर से नज़र आती हैं. भारत का कोई ऐसा राज्य या केंद्र प्रशासित प्रदेश नहीं है, जहां पर महिलाओं की साक्षरता दर पुरुषों के समान हो. शिक्षा के क्षेत्र में जहां पर भारत में पुरुषों का साक्षरता दर 84.4 प्रतिशत है, वहीं पर महिलाओं का 71.5 प्रतिशत है, लगभग 13 प्रतिशत का राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की साक्षरता दर में फर्क साफ देखा जा सकता है. बात करें धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले केंद्रशासित प्रदेश जम्मू कश्मीर की तो साल 2011 की जनगणना के आधार पर इस केंद्र प्रशासित प्रदेश में जहां पुरुष साक्षरता दर 76.75 प्रतिशत है, वहीं महिला साक्षरता की दर 56 प्रतिशत है. लगभग 20 प्रतिशत का फर्क साफ तौर पर नजर आ रहा है. इन आंकड़ों से ये साफ हो जाता है कि अभी भी शिक्षा के क्षेत्र में बालिकाओं के साथ भेदभाव जारी है. भारत में ऐसे कई गांव हैं, जहां आज भी 10वीं और 12वीं की पास करते ही लड़कियों की शादी कर दी जाती है.
इस मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता सुखचैन लाल कहते हैं कि आज भी ज़्यादातर गांवों में लोग अपनी बेटियों को दसवीं और बारहवीं तक पढ़ाते हैं, जबकि बेटे को उच्च शिक्षा दिलाते हैं.
इस मुद्दे पर सामाजिक कार्यकर्ता सुखचैन लाल कहते हैं कि आज भी ज़्यादातर गांवों में लोग अपनी बेटियों को दसवीं और बारहवीं तक पढ़ाते हैं, जबकि बेटे को उच्च शिक्षा दिलाते हैं. दरअसल समाज की एक संकीर्ण सोच बन गई है कि बेटियां तो पराया धन है, ऐसे में उसकी शिक्षा से अधिक उसके दहेज़ के लिए पैसे बचाने चाहिए. इस रूढ़िवादी सोच को बदलने की ज़रूरत है. बालिका दिवस को केवल एक आयोजन तक सीमित न करके उसे जागरूकता अभियान में परिवर्तित करने की ज़रूरत है. एक ऐसा अभियान जो लोगों की सोच को बदल सके.
भारती डोगरा
पुंछ, जम्मू
(चरखा फीचर)
How to end gender inequality? : Gender inequality will end by changing thinking, not by making laws on (Special on National Girl Child Day)


