अमेरिका बनते-बनते मेरा देश यूनान बन गया: नोटबंदी, नकदी, और सेना की परेड

  • नोटबंदी के बाद की पहली तारीख: देश सेना के हवाले तो नहीं, पर सन्नाटे के हवाले ज़रूर है!
  • कैशलैस इंडिया का सपना, और कतार में खड़ा देश – सेना आई, पर लोकतंत्र अभी मरा नहीं है!

देश में सब कुछ डिजिटल है, लेकिन जनता कतार में पसीने-पसीने है। नोटबंदी की पहली तारीख का लेखा-जोखा, पलाश विश्वास की कलम से।

नोटबंदी के बाद की पहली तारीख, और उस दिन की सामाजिक, आर्थिक, मानसिक और राजनीतिक त्रासदी को पलाश विश्वास अपनी खास शैली में तीखे व्यंग्य और गहरे अवलोकन के साथ सामने रखते हैं। "अमेरिका बनते-बनते देश यूनान बन गया"—यह सिर्फ एक वाक्य नहीं, एक सच है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। दो करोड़ वेतनभोगियों की कतारों से लेकर बाकी 128 करोड़ की चुप्पी, बैंक से सेना की मदद तक, सबकुछ इस ‘आर्थिक आपातकाल’ की झलक देता है। पलाश विश्वास का यह लेख एक दस्तावेज है उस दौर का, जब सरकार ने कैशलैस इंडिया के सपने में जनता की जेबें ही गायब कर दीं....

आज पहली तारीख है। नोटबंदी के तुगलकी फरमान के बाद पहली, पहली तारीख है। फिजां कुछ अलग है और बहारे भी कुछ अलग हैं। फूल बरसाओ बहारों कि अच्छे दिन उमड़ घुमड़कर सुनामी छप्पर फाड़ है।

अभी-अभी एक शख्स के खाते में निन्यानबे करोड़ जमा हो गये हैं। तो इससे पहले किसी के खाते में हजारों करोड़ जमा हुआ ठैरा।

आज सुबह-सुबह एक कामवाली ने हुमस कर कहा कि उसके खाते में न जाने किस भले आदमी या औरत ने अस्सी हजार डाल दिये। पता चलते ही उसने जुगत लगाकर दस हजार उसमें से निकाल लिये हैं।

गरीबी हटाने का यह निराला अंदाज है। ऐसे लोगों को जैसा छप्परफाड़ नकदी खाता में मिला, वैसे ही 130 करोड़ की किस्मत का कायाकल्प हो जाये तो सतजुग आ गया समझो।

सिर्फ मुश्किल है कि रामराज्य के लिए फिर त्रेता युग का इंतजार करना पड़ सकता है। राम मंदिर की सौगंध के लिए इतना इंतजार किया और थोड़ा और इंतजार भी नहीं कर सकते क्या?

अमेरिका बनते-बनते मेरा देश यूनान बन गया।

यूनान की जनसंख्या उतनी भी नहीं है, जितने लोग करीब दो करोड़ वेतन पेंशनभोगी बैंकों और एटीएम में कतारबद्ध हैं।

यह दिलफरेब नजारा भी अभूतपूर्व है, वरना अब तक तो किसी कोने में लावारिस हुआ करता था एटीएम।

ये दो करोड़ लोग अपना कीमती वक्त इस तरह बैंकों के कतार में झोंक रहे हैं।

बाकी 128 करोड़ जनता को न वेतन मिलता है और न पेंशन और एक दो फीसद अरबपति करोड़पति वर्ग को छोड़कर बाकी तमाम लोग रंगबिरंगे कब्रिस्तान और श्मशानघाट के औघड़ वाशिंदे हैं कि रोज कुआं खोदकर वे पानी पीते हैं, घर फूंक तमाशा भी देखते हैं। खामोश और रोज-रोज मरते हुए उन्हें फिर जीने की आदत है और इनमें से ज्यादातर अपने पांवों के बल पर खड़े भी नहीं सकते और न उनकी तमाम इंद्रियां काम करती है। उनमें से कितनों के पास अपना दिमाग और दिल सही सलामत है, इसका भी कोई आंकड़ा नहीं है।

फिलहाल देश बैंकों के दिवालिया हो जाने के बावजूद शांत है और सारा कारोबार कैशलैस है।

पिछले 8 नवंबर के बाद के अनुभवों के मद्देनजर, पैसा मिले या नहीं, घर वाले जरूर उनके सकुशल घर लौटने का इतंजार कर रहे हैं। बाकी तो कैशलैस इंडिया है।

वैसे रिजर्व बैंक ने पर्याप्त कैश होने का दावा किया है और कहते हैं कि सेना कैश पहुंचाने में लगी है बैंकों और एटीएम तक। धीरज लोगों का टूटने लगा है। बवाल भी खूब मचने लगा है। बैंक कर्मी डरे हुए हैं कि कैश न मिले तो पगलायी जनता न जाने क्या करे दें। सिनेमा हालों में तो देशभक्ति के लिए जनगणमन का इंतजाम हो गया जहां लोग लुगाइयों को सावधान मुद्रा में खड़ा कर दिया जायेगा। लेकिन बैंकों और एटीएम के सामने आम जनता जनगणमन गायन के साथ सावधान मुद्रा में खड़े होकर अभूतपूर्व मुद्रासंकट चमत्कारिक ढंग से सुलझ जाने का इंतजार करेंगे। फासिज्म के राजकाज ने फिलहाल ऐसा कोई फरमान जारी नहीं किया है।

भारतीय सेना देश के सरहद पर दुश्मनों का मुकाबला करती है तो उन्हें कभी कभार आम जनता का भी मुकाबला करना पड़ता है।

दंगाग्रस्त और अशांत इलाकों को सेना के हवाले कर दिये जाने की रघुकुल परंपरा है। तो आदिवासी भूगोल में सैन्य अभियान सलवा जुड़ुम है। कश्मीर और मणिपुर में यह स्थाई बंदोबस्त है। आपदाओं में भी सेना उतारी जाती है।

दिवालिया बना दिये गये बैंकों की मदद में शायद किसी देश में पहली बार सेना उतारी जा रही है। शायद अब हम अपने बैंकों और एटीएम में देर सवेर सरहदों का नजारा देखने वाले हैं। हालात तेजी से ऐसे बनते जा रहे हैं।

तनिक गौर फरमायें ये दो करोड़ वेतन और पेंशन भोगी लोग वे ही लोग हैं, जो फासिज्म के राजकाज के रंग बिरंगे कल पुर्जे हैं। जिनका बाकायदा बैंकों में खाता है और उन खातों में हर महीने पेंशन या वेतन जमा होता है। पहली तारीख के आगे पीछे वे महीने भर का खर्च नकदी में निकालते हैं। बाकी उन सबके पास एटीएम डेबिट क्रेडिट कार्ड हैं।

ये खास किस्म के लोग देश की बाकी 128 करोड़ से अलग हैं और इनमें से ज्यादातर की नींद वातानुकूलित दड़बों मे काम के वक्त और घर में भी केसरिया केसरिया है और उनका पर्यावरण गायंत्रीमंत्र जाप है। सरकार चाहे तो उन्हें राजद्रोह के मामले में कैद कर सकती है क्योंकि वे कार्ड होने के बावजूद बैंकों और एटीएम के सामने भीड़ जमाकर कानून और व्यवस्था की समस्या पैदा कर सकते हैं।

फासिज्म के राजकाज के लिए मुश्किल यह है कि बही खाते में देश अभी लोकतंत्र हैं और मुक्तबाजार भी है।

लोकतांत्रिक संस्थानों का खात्मा हो गया है लेकिन ट्विटर वगैरह एकाउंट हैक हो जाने के बावजूद विपक्ष अभी जिंदा है।

इस पर तुर्रा संसद भी भारी शोर शराबे के साथ चल रही है, ताकि देश के लोकतंत्र बने रहने, संविधान लागू होने और कानून के राज के साथ जनता के हकहकूक और मौलिक अधिकारों के बारे में किसी को कोई शक नहीं है।

जेलखानों की तरह देश में सब कुछ ठीक ठाक है और गैस चैंबर की तरह किसी को किसी सुगंध या दुर्गंध का अहसास नहीं है और न नागरिकों को सर पर मंडराती मौत दिखायी दे रही है, क्योंकि वे डिजिटल हैं और अपना सच अपने ख्वाबों के मुताबिक आधार कार्ड और अपनी अपनी जाति के मुताबिक चुनने को आजाद हैं।

संसदीय सहमति, असहमति की परवाह किये बिना, बिना बहस कायदा कानून बदलने, रोज-रोज संविधान की हत्या करने की तर्ज पर, बिना किसी मसविदे या बहस के कालाधन निकालने के लिए पचास फीसद टैक्स जमा करके कालाधन सफेद करने का लोकतंत्र भी बहाल है। भले ही पेट्रोल पंपों और हवाई यात्राओं में पांच सौ का नोट अब नहीं चलने वाला है।

हम अपने जानी दुश्मन पाकिस्तान की तरह कतई नहीं हैं, हालांकि उनके इस्लामी राष्ट्र का जुड़वा हमारा यह हिंदू राष्ट्र है लेकिन फौजी हुकूमत नहीं है।

चाहकर भी बैंकों और एटीएम पर बागी जनता को औकात में रखने के लिए सेना उतार नहीं सकते हैं। भले ही बैंककर्मियों की मदद के लिए कैश पहुंचाने की गरज से सेना की भी मदद ली जा रही है।

हम सेना के परेड को देशभक्ति का पैमाना मानते हैं और हमारी देशभक्ति इसी में हैं कि हम गली मोहल्लों और बाजारों में भी सेना का परेड देख लें।

कैशलैस इंडिया के कार्डधारी पगलाये नागरिकों के धीरज का बांध टूटने का यह ऐहतियाती इंतजाम है, तो बाकी 128 करोड़ जनता पगला गयी तो पुलिस और सेना के परेड का क्या नजारा होगा, उसका अंदाजा लगाकर भक्तजनों के पुलकित कीर्तन कमसकम सोशल मीडिया में जरूर होना चाहिए।

राजनीति और मीडिया में विशेषज्ञ कीर्तनिये कम नहीं है। बेचारे रवीश कुमार से परहेज है, तो उन्हीं कीर्तनियों की मुफ्त सेवा ली जा सकती है।

गनीमत है कि देश अभी सेना के हवाले नहीं हुआ है।

हमारे पूर्व संपादक ओम थानवी के इस मंतव्य पर गौर करें

मैंने पहले लिखा था कि काला धंधा रोकने की क़वायद ने वैधानिक कालाबाज़ारी का रास्ता खोल दिया है।

सरकार की अपनी फ़िफ़्टी-फ़िफ़्टी नीति को एक बारगी छोड़ दें, सरकार ने यह जो क़ायदा बनाया है कि असीमित दवा पाँच सौ के पुराने नोट से ख़रीद सकते हैं। और सीमित मोबाइल रीचार्ज भी हो सकता है। पर ज़्यादातर दवा-विक्रेता डाक्टर के रुक्के के बावजूद पुराना नोट लेने से इनकार कर रहे हैं। रीचार्ज वाले रीचार्ज से मुँह फेर रहे हैं।

पता चला है कि अपनी खाताबही में वे करोड़ों का काला धन सफ़ेद कर रहे हैं। वरना उन्हें अधिसूचना के मुताबिक़ पुराने नोट लेने से क्या गुरेज़? वे नोट उन्हें सरकार बदल कर देगी। ज़ाहिर है, वे आपके-हमारे नोट नहीं, अपने या ठेकेदारों के नोट बदलवाएँगे। उनके लिए इससे आसान काम क्या हो सकता है? सिर्फ़ काग़ज़ों में इंदराज चाहिए। उन्हें रुक्के की प्रति या ख़रीददार की आइडी रखने की हिदायत भी नहीं। किसी का नाम ही काफ़ी है!

पलाश विश्वास