झक-झक सफेद राजनीति का प्रतीक और विडंबना

  • संविधान, नागरिकता और आम आदमी की लड़ाई
  • संघ परिवार की राजनीति और शरणार्थियों का मुद्दा
  • बंगाल और पूर्वोत्तर की राजनीतिक विरासत
  • वोट बैंक की मजबूरी और विभाजनकारी रणनीति
  • आम आदमी पार्टी और सफेद टोपी पर बहस

राजनीति में असली नुमाइंदगी का सवाल

वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता पलाश विश्वास ने सफेद राजनीति, नागरिकता संशोधन, संघ परिवार की रणनीति और आम आदमी की नुमाइंदगी पर सवाल उठाए। उन्होंने झक-झक सफेद टोपी की विडंबना, बंगाल और पूर्वोत्तर की राजनीतिक विरासत और शरणार्थियों के अधिकारों को लेकर तीखी टिप्पणी की...

हमारे अग्रज राजीव नयन बहुगुणा ने एक बुनियादी मसला उठाया है। झक-झक सफेद टोपी का यानी झक झक सफेद राजनीति का। आम आदमी यानी औसत भारतीय नागरिक की औकात में यह सफेदी है ही नहीं। वह तो नख से शिख तक या तो श्वेत श्याम है या फिर संजय लीला भंसाली की फिल्मों की तरह लोक विरासत के मुताबिक चटख बहुरंगी।

झक झक सफेद तो राजनीति है, जो विडंबना है कि दिखती सफेद है, लेकिन होती कुछ और है। हमारे हिसाब से यह नुमांदगी का मामला है, जिसे हम संविधानपरस्ती से सुलझाना चाहते हैं, लेकिन वह संविधान भी कहीं लागू है ही नहीं। मौजूदा राज्यतंत्र में बिना किसी फेरबदल के महज चेहरे बदल देने से भारतीय नागरिकों की किस्मत नहीं बदलने वाली है। हाथी के दाँत दिखाने के कुछ हैं और खाने के कुछ और। हिन्दुत्व के दाँत भी दिखान के और हैं और खाने को वातानुकूलित कॉरपोरेट जायनवादी नस्ली वर्णवर्चस्वी कुलीन सफेद झक झक झख झकास।

जिस समन्वय के तहत जनसंहारवास्ते सत्ता दल कांग्रेस ने सत्ता हस्तातंरण कर दिया संस्थागत महाविनाश पर्व के लिए, जैसे नाजी फासी रूपांतरण हो रहा है तमाम उदात्त विचारधाराओं के मध्य और जिस तरह वर्ण वर्चस्व और नस्ली भेदभाव के तहत आम नागरिक के नागरिक और मानवाधिकारों के हनन के साथ सत्ता का सैन्यीकरण हो रहा है धर्मोन्मादी वैदिकी परंपराओं के मुताबिक, वहां आम आदमी हाशिये पर भी खड़ा रहने को स्वतंत्र है ही नहीं। उसके लिए तो मृत्यु परवाना पर दस्तखत कर दिये गये हैं। मसलन पाकिस्तान से आ रहे शरणार्थियों को नागरिकता देने की मांग करने में संघ परिवार को कोई परहेज नहीं है। लेकिन संघ परिवार के भावी प्रधानमंत्री ने बंगाल के श्रीरामपुर में बांग्लादेशियों के खिलाफ जिहाद का ऐलान करते हुए कहा कि सन् 1947 के बाद जो भारत आये हैं, वे अपना बोरिया बिस्तर बांध लें, 16 मई के बाद उन्हें बांग्लादेश भेज दिया जायेगा।

हम 2003 से जब नागरिकता संशोधन बिल राजग सरकार के गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने पेश किया, और जिसे बिना सुनवाई सर्वदलीय सहमति से पास किया गया, लगातार देश भर में जल जंगल जमीन नागरिकता से बेदखली के खास इंतजामात के डिजिटल बायोमेट्रिक चाकचौबंद के बारे में लोगों को समझाते रहे हैं, संघ परिवार के एजेंडे का खुलासा (Exposing the agenda of the Sangh Parivar) करते रहे हैं, लेकिन किसी को कायदे से समझा नहीं सकें।

मोदी ने एक झटके से बता दिया कि भारत विभाजन के शिकार तमाम लोग (Victims of the Partition of India) बांग्लादेशी घुसपैठिया हैं और जिन बेशकीमती खनिज इलाकों में आदिवासियों के मध्य जंगल में उनका मंगल रचा गया है, वहां से उन्हें हटाकर बिना प्रतिरोध कॉरपोरेट परियोजनाओं को लागू किया जाना है।

जनसंख्या घटाने का माकूल इंतजाम है।

मुंबई में जैसा शिवसेना ने किया है, वैसा ही घृणा अभियान दरअसल संघी कुलीनतंत्र का चरित्र है।

धर्मभीरु धार्मिक हिंदू जनगण को समझाया जाता है कि यह सब कुछ मुसलमानों को औकात बताने के लिए है।

हर अपराध के लिए भारत विभाजन की तर्ज पर मुसलमानों को जिम्मेदार बताकर संघी तलवार हिंदुओं की गरदनें उतार रही हैं,हिन्दुत्व की पैदल सेनाओं को इसका अहसास तक नहीं है।

बंगाल में लेकिन पहली बार हुआ कि किसी मुख्यमंत्री ने शरणार्थियों के नागरिक और मानवाधिकारों के हक में संघ परिवार के खिलाफ युद्ध घोषणा कर दी है। विडंबना है कि उनकी यह कवायद भी बंगाल में निर्णायक तीस फीसद वोट बैंक को साधने की है। वोट बैंक की मजबूरी के चलते हिंदू शरणार्थियों को अब देश भर में संघ की तरफ से समझाया जा रहा है, सारे के सारे प्रचारक मौखिक नेट प्रचार में लगे हैं कि दरअसल संघ मुसलमानों को ही बांग्लादेशी घुसपैठिया मानता है। नरेंद्र मोदी की युद्धघोषणा दरअसल मुसलमानों के खिलाफ है।

असम में बांग्लादेशियों के खिलाफ अस्सी के दशक में हो रहे आंदोलन के वक्त भी और पूर्वोत्तर में हिंसा को न्यायपूर्ण ठहराने के लिए भी बहुसंख्य हिंदुओं को असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और अमानवीय तरीके से समझाया जाता रहा है कि सारी कवायद मुसल्लो को देश बाहर करने की है। अब भी संघी तत्व बार-बार यह साबित करने में लगे हैं कि हिंदू शरणार्थियों के खिलाफ नहीं है संघ परिवार। जबकि सन् साठ में असम में बांगाल खेदाओ अभियान के निशाने पर हिंदू शरणार्थी ही थे।

उत्तराखंड की पहली संघी सरकार ने उत्तराखंड में सन 1952 से बसे और 1969 में संविद सरकार के जमाने में भूमिधारी हक हासिल किये तमाम बंगाली शरणार्थियों को जो संजोग से हिंदू हैं, उन्हें बांग्ला देशी घुसपैठिया घोषित कर दिया। ओड़ीशा के केंद्रापाड़ा में भारत विभाजन के तुरंत बाद बसाये गये नोआखाली के विभाजन पीड़ित हिंदू शरणार्थी परिवारों, जिन्होंने अपने परिजनों को कटते मरते बलात्कार का शिकार होते देखकर भारत में शरण ली थी, को भाजपा-बीजद गठबंधन सरकार ने बांग्लादेश डिपोर्ट करने का अभियान चलाया।

बांग्ला बोलने वाले हर शख्स को बंगाल से बाहर बांग्लादेशी बताया जाता है, यह भूलते हुए कि भारत विभाजन के शिकार बंगाली भी हैं ठीक उसी तरह जैसे कश्मीर, सिंध और पंजाब के शरणार्थी। लोग भूल जाते हैं कि बंगाल अब भी भारत का प्रांत है।

यही नहीं, नरेंद्र मोदी ने एकदम ठाकरे परिवार की तरह बंगाल में कमल खिलाने के लिए हिंदू मुसलमान और बंगाली गैर बंगाली विभाजन करने की हर चंद कोशिश की। जबकि वाम शासन में विकास हो न हो, राजनीतिक आतंक की वजह से दम घुट रहा हो, लेकिन धर्म, जाति, भाषा, लिंग आधारित राजनीति के लिए कोई जगह थी नहीं। वाम शासन से पहले भी ऐसा ही रहा है।

शारदा फर्जीवाड़े में राजनेता पहली बार भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे हैं, जो साबित भी नहीं हुए हैं, बाकी देश के मुकाबले वाम वामविरोधी ध्रुवीकरण के अलावा कोई दूसरा विभाजन नहीं था। बंगाल की इस राजनीतिक विरासत को नमोलहर बाट लगाने वाली है।

जो हिंदू शरणार्थी पहले वामदलों के समर्थक थे, वे तृणमूली हो गये और अब वे धार्मिक ध्रुवीकरण के तहत केसरिया हुआ जा रहे हैं। जबकि संघ परिवार की अपनी कोई ताकत है नहीं।

तृणमूल के जनाधार और वोट बैंक ध्वस्त करने की गरज से कांग्रेस और वामदलों ने अप्रत्यक्ष मदद करके भाजपा के चार फीसद वोट बैंक को बीस-तीस फीसद तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की है।

विडंबना है कि धर्म, जाति, भाषा और अस्मिता आधारित विभाजन के लिए जो वामपंथी विचारधारा बंगाल में सबस बड़ी किलेबंदी थी, वहां से मोदी के राष्ट्रविरोधी नागरिकता मानवाधिकारविरोधी युद्ध घोषणा के खिलाफ कोई प्रतिवाद नहीं है। वह भी वोट बैंक की ही वजह से।

अब तक दिल्ली की कुर्सी मतदाताओं ने तय कर दी है। सही को सही, गलत को गलत बताने में कामरेड हिचक क्यों रहे हैं। जब ममता खामोश थीं, तो आरोप थे कि संघ परिवार के साथ उनका गुपचुप समझौता है। बाकी देश में भा अजब तमाशा है। मोदी खुद मुसलमानों के खिलाफ युद्धघोषणा कर रहे हैं और दूसरी तरफ से प्रतिक्रिया होने पर बोलने वालों के खिलाफ राष्ट्रद्रोह के आरोप लगाये जा रहे हैं। चित भी उनकी पट भी उनकी। संघ परिवार के तमाम घटक, संघी सिपाहसालार और पैदल सेनाएं एक ही कमान से नियंत्रित हैं, सब कुछ सोची समझी मार्केंडिंग की आधुनिकतम प्रणाली के तहत है। एक ही कमोडिटी को बाजार में बेचना है, नमोमय भारत। बाकी सब-कुछ हाशिये पर। लेकिन हाशिये पर चले जाने से वे संघ के एजेंडा में शामिल मसले खत्म नहीं हो गये हैं। उसकी याद दिलाने के लिए समय-समय पर देश के कोने-कोने से अलग-अलग कंठ से अलग-अलग स्वर उभर रहे हैं। एक ही बांसुरी के वे अलग-अलग छिद्र हैं, जिससे सुर लेकिन एक ही है।

तीन-तीन राम के सिपाहसालार बनाये जाने पर उत्तर प्रदेश में मुलायम और मायावती और बिहार में लालू प्रसाद के करिश्मे से जब दलित मुसलिम ओबीसी वोट बैंक के किले नमो सुनामी को मीडिया सर्वों के विपरीत रोक ही रहे हैं, तो ओबीसी भावी प्रधानमंत्री के हक में ओबीसी संत ने ओबीसी वोट बैंक को दलितों के खिलाफ लामबंद करने की सोची समझी संघी रणनीति के तहत हनीमून पुराण रच दिया। यह फिसली जुबान का मामला नहीं है, यह है जहरीला संघी समीकरण जिसे हिन्दुत्व का मुलम्मा ओढ़ा दिया जाता है।

बलि से पहले बकरे को घास उतनी ही दी जाती है कि बलि के वक्त वह ज्यादा मिमयाकर कर्मकांड में व्यवधान न डालें।

नयनदाज्यू ने बहरहाल बेहद सादगी से यह पहेली परोस दी है। अब बूझ लें आप बूझें तो हमें भी बता दें।

“कई दशक बाद भारतीय राज नीति में कुछ अलग हट कर करता दीख रही आम आदमी पार्टी मुझे भी लुभाती है, लेकिन अनेक शंकाएं और आपत्तियां भी मेरे दिल में इसको लेकर हैं, जिनमें से प्रमुख सफ़ेद टोपी है। यह सफ़ेद टोपी कहीं से भी एक आम आदमी होने का आभास नहीं देती, बल्कि एक विशिष्ट वर्ग का प्रतिनिधित्व तथा अभी व्यक्ति करती है। इसे गांधी टोपी कहा जाता है, लेकिन गांधी ने सिर्फ डेढ़ साल पहन कर इसे उतार फेंका, और इसकी निरर्थकता भांप कर इसे फिर कभी नहीं पहना। दर असल यह टोपी संस्कृति "आप" ने अन्ना हजारे से ली है, जो एक विचार शून्य व्यक्ति साबित हो चुके हैं। भारत के जोगी- जोगटों की तरह अन्ना हजारे को भी अपना आडम्बर महिमामंडित कर खुद को पुजवाने के लिए एक विशिष्ट वस्त्र विन्यास चाहिए। एक निम्न मध्य वर्गीय आम आदमी यह झका झक सफ़ेद टोपी कैसे मेंटेन कर सकता है, जिसके पास नहाने का साबुन भी सुलभ नहीं। क्या पुनर्विचार करेंगे आप ?”

असल में राजनीति आम जनता की नुमांइंदगी करती नहीं है। फर्जी जम्हूरियत के तिलिस्म में हम कैद हैं। इस तिलिस्म को तोड़ने के लिए राज्यतंत्र पर काबिज कुलीन संघी तंत्र के तंत्र मंत्र यंत्र को तोड़ना बेहद जरूरी है। मिट्टी से लथपथ मैले कुचले लोगों की भागेदारी सुनिश्चित किये बिना जो असंभव है।

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।