Prophets of doom मत बनिये, हिन्दू साम्प्रदायिकता मुस्लिम विरोध पर ही टिकी है
Prophets of doom मत बनिये, हिन्दू साम्प्रदायिकता मुस्लिम विरोध पर ही टिकी है
Prophets of doom मत बनिये, अगर आप नसीरुद्दीन शाह के कथन को सही मान रहे हैं तो परोक्षतः भाजपा की परोक्ष मदद कर रहे हैं…
आज का सवाल और जवाब।
माफ करना दोस्तों। आप आज के राजनीतिक हालात और सम्भावनाओं पर अपनी बौद्धिक जकड़न के चलते समझने में चूक रहे। यह सरकार, आरएसएस-भाजपा सरकार हिन्दू साम्प्रदायिक कार्ड पर निर्भर है और उसी के दम पर सत्ता में आई थी। जाहिर है कि इस सरकार में मुस्लिमों के लिए कोई सम्मानजनक स्थिति नहीं होनी थी और न हुई। उन पर घोर मानसिक व हर तरह का अत्याचार व बेदर्दी रही। ऐसा होना बिल्कुल स्वाभाविक भी था क्योंकि हिन्दू साम्प्रदायिकता मुस्लिम विरोध पर ही टिकी है। पिछले साढ़े चार साल में भारत की जनता और समाज ने इस चुनौती का बहादुरी से सामना किया और उनके सारे प्रयासों उकसावों के बावजूद समाज का ताना बाना बना ही रहा।
अजीब लग सकता है तर्क, लेकिन सच ये भी है कि सारे साम्प्रदायिक और फासीवादी मनोवृत्ति के बावजूद यह सरकार भारत राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप में कोई ढांचागत परिवर्तन न कर सकी है जबकि वो लगभग सारे देश में राज पर थी।
अगर राजनीतिक पार्टियों की बात करें तो पक्का पाएंगे कि भाजपा के खिलाफ अगर कोई दल ठोस तरीके से पिछले सालों में लड़ा है तो वो राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस है। क्षेत्रीय स्तर पर अगर लालू जी की पार्टी छोड़ दें, तो जैसे सबको सांप सूंघा हुआ है। मायावती, अखिलेश यादव की पार्टी ऐसी डरी हुई हैं कि उन्हें तो सलाह देनी चाहिए कि राजनीति छोड़कर घर बैठो, अगर सच बोलने से भी डर लगता हो। बल्कि ये तो परोक्ष रूप से भाजपा की कठपुतली की तरह ही आज भी काम कर रहे हैं।
ये तीनों राज्य जहां भाजपा हारी है वो ऐतिहासिक महत्त्व का चुनाव था। मध्य प्रदेश आरएसएस भाजपा का सांगठनिक रूप से सबसे मजबूत किला था। छत्तीसगढ़ पूंजीपतियों की भाजपा से मिली भगत कर सैर गाह था और वहां भी आदिवासी इलाकों में आरएसएस लंबे समय से कार्यरत रहा था। राजस्थान की स्थिति भी भाजपा के लिए बहुत मजबूती की है। किस पार्टी ने हराया भाजपा को?
अगर कोई साम्प्रदायिकता को लेकर वास्तव में गम्भीर है तो मानेगा कि राजसत्ता से साम्प्रदायिक दलों की दूरी बहुत बुनियादी सवाल है क्योंकि उसके बिना लोकतंत्र की सामान्य बातें भी प्रयोग करना बहुत कठिन है।
आज नसीरुद्दीन शाह साहेब के कथन को आप आज के हालात का सही नजारा बता रहे हैं, तो इस तरह से भाजपा की परोक्ष मदद कर रहे हैं। आज हिन्दू मुस्लिम भोंपू बन्द करने की जरूरत है क्योंकि बड़ी मुश्किल से तो इस सरकार को उसकी तमाम नाकामियों पर घेरा जा रहा है। जनता इनके साम्प्रदायिक खेल इस हद तक समझ चुकी है कि अब अयोध्या कार्ड तक फुस्स हो चुका है। ऐसे में नसीर साहेब के बयान पर हल्ला बोलना या वाह-वाह, हाय-हाय करना केवल राग अलापना है।
देश के बदले हालात को समझने के लिए आपको अपना पुराना फेवरिट कांग्रेस विरोध rhetoric और कम्युनिस्ट पार्टियों में ही बदलाव खोजने का चश्मा बदलना पड़ेगा।
आखिर में, आज के हालात में मुस्लिम दशा पर रोदन साम्प्रदायिकता को मदद पहुँचाने जैसा है। prophets of doom मत बनिये।
नसीरुद्दीन शाह का पूरा वक्तव्य ...... और मेरी समझ।
"ये जहर फैल चुका है और दोबारा इस जिन्न को बोतल में बंद करना बड़ा मुश्किल होगा खुली छूट मिल गई है कानून को अपने हाथों में लेने की। कई इलाकों में हम लोग देख रहे हैं कि एक गाय की मौत को ज़्यादा अहमियत दी जाती है, एक पुलिस ऑफिसर की मौत के बनिस्बत. मुझे फिक्र होती है अपनी औलाद के बारे में सोचकर। क्योंकि उनका मजहब ही नहीं है। मजहबी तालीम मुझे मिली थी, रत्ना (रत्ना पाठक शाह-अभिनेत्री और नसीर की पत्नी) को बिलकुल नहीं मिली थी, वो एक लिबरल परिवार से आती हैं। हमने अपने बच्चों को मजहबी तालीम बिलकुल नहीं दी। क्योंकि मेरा ये मानना है कि अच्छाई और बुराई का मजहब से कुछ लेना-देना नहीं है। अच्छाई और बुराई के बारे में जरूर उनको सिखाया। हमारे जो बिलीफ हैं, दुनिया के बारे में वो हमने उन्हें सिखाए। कुरान-शरीफ की एक-आध आयत याद ज़रूर करवाई क्योंकि मेरा मानना है उससे तलफ्फुज़ सुधरता है। उसके रियाज़ से। जिस तरह हिंदी का तलफ्फुज़ सुधरता है रामायण या महाभारत पढ़के। खुशकिस्मती से मैंने बचपन में अरबी पढ़ी थी इसलिए कुछ आयतें अब भी याद हैं। उसकी वजह से मेरे खयाल से मेरा तलफ्फुज़ है। तो फिक्र मुझे होती है अपने बच्चों के बारे में कि कल को उनको अगर भीड़ ने घेर लिया कि तुम हिंदू हो या मुसलमान, तो उनके पास तो कोई जवाब ही नहीं होगा। इस बात की फिक्र होती है कि हालात जल्दी सुधरते तो मुझे नज़र नहीं आ रहे। इन बातों से मुझे डर नहीं लगता गुस्सा आता है। और मैं चाहता हूं कि राइट थिंकिंग इंसान को गुस्सा आना चाहिए डर नहीं लगना चाहिए हमें। हमारा घर है हमें कौन निकाल सकता है यहां से।”
नसीर साहब ने जो कहा है वो एक विचार है और हर किसी को अपना मन दिल दिमाग बोलने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। उन्हें अपनी बात कहने के लिए जो घेरा जा रहा है वो जाहिलियत है।
इसके बाद यह कहना चाहूंगा कि उनका कथन सही स्थिति का मुज़ाहिरा नहीं करता। यह बात तीन साल पहले भले सही लगती हो लेकिन आज देश की जनता जग चुकी है। फिरकापरस्ती ढलान पर है, आखिरी पायदान पर है।
क्या यह ख़बर/ लेख आपको पसंद आया ? कृपया कमेंट बॉक्स में कमेंट भी करें और शेयर भी करें ताकि ज्यादा लोगों तक बात पहुंचे


