#RSS की विचारधारा ही असहिष्णुता का ज़हर पैदा कर रही है
#RSS की विचारधारा ही असहिष्णुता का ज़हर पैदा कर रही है
'हिंदुत्व’ तो एक खांटी राजनीतिक परियोजना, इसका हिन्दू धर्म से कोई लेना-देना नहीं
सीताराम येचुरी
एक बार फिर मोदी सरकार के पैरोकार, देश में सांप्रदायिक तथा अन्य प्रकार की असहिष्णुता में हुई जबर्दस्त बढ़ोतरी को ही नकारने के लिए सिद्धींत गढ़-गढ़कर पेश करने में जुट गए हैं। इजारेदार मीडिया और खासतौर पर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया संस्थान एक बार फिर, 'हाशिया’ बनाम 'रीढ़’ के विभेद के सिद्धांत परोस रहे हैं। देश को यह कहकर भरमाने की कोशिश की जा रही है कि जो भी गड़बडिय़ां हुई हैं, उनके लिए तो हिंदुत्व का 'हाशिया’ ही जिम्मेदार है और 'रीढ़’ की इस सब के लिए कोई जिम्मेदारी ही नहीं बनती है। जाहिर है कि इस हाशिए पर अंकुश लगाना, कानून व व्यवस्था की मशीनरी का काम है। आरएसएस/भाजपा का इस सब में कोई दोष नहीं है! इस तरह, देश में इस तरह की भयानक असहिष्णुता और उससे जुड़ी घृणा व हिंसा फैलाने के लिए, तथाकथित रीढ़ को हर तरह की जिम्मेदारी से बरी ही करने की कोशिश की जा रही है।
एक फर्जी अंतर: लेकिन, हिंदुत्ववादी रीढ़ और हाशिए का यह अंतर सरासर फर्जी है। आरएसएस की ही विचारधारा है जो हमारे धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक भारतीय गणराज्य को, अपनी कल्पना के घोर असहिष्णु, फासीवादी 'हिंदू राष्ट्र’ में तब्दील करने की अपनी विचारधारात्मक परियोजना को आगे बढ़ाने के क्रम में, असहिष्णुता का ज़हर पैदा कर रही है तथा फैला रही है। वास्तव में रीढ़ और हाशिए के बीच भेद करना, वास्तव में आरएसएस और भाजपा में अंतर करने जैसा ही है जबकि यह पूरी तरह से स्पष्टï है कि भाजपा हमेशा से आरएसएस के राजनीतिक बाजू की तरह ही काम करती आई है।
बेशक, आरएसएस के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल की हाल की रांची की बैठक में आरएसएस के प्रवक्ता ने यह सरासर बेतुका दावा किया था कि सांपद्रायिक असहिष्णुता फैलाने के आरोप तो आरएसएस पर बार-बार ही लगते आए हैं, लेकिन ऐसे सभी आरोप झूठे साबित हुए हैं।
वास्तव में उनका दावा तो यह भी है कि इस मामले में आरएसएस को अकारण ही कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है और ऐसा कुछ ताकतों की साजिश के हिस्से के तौर पर किया जाता रहा है।
इससे पहले भी अनेक मौकों पर हमने, देश में हुए विभिन्न दंगों की जांच के बाद, प्रतिष्ठित न्यायाधीशों की अध्यक्षता वाले जांच आयोगों की रिपोर्टों के अंश प्रकाशित किए हैं। 1992-93 मुंबई के सांप्रदायिक दंगों तथा उसके बाद हुए बम विस्फोटों तक, ऐसे सभी दंगों की रिपोर्टों में आरएसएस का साफतौर पर नाम आया है और उसे ये दंगे कराने के लिए जिम्मेदार घृणा का ज़हर फैलाने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है। खैर! इतिहास तो आरएसएस/भाजपा के लिए हमेशा ही समस्या खड़ी करता आया है। इसीलिए तो वे इतिहास का पुनर्लेखन करने पर तुले हुए हैं।
आरएसएस और सैन्य प्रशिक्षण
याद रहे कि हिंदुओं को सैन्य प्रशिक्षण देने के आरएसएस के प्रयासों का भी लंबा इतिहास है। वास्तव में 'हिंदुत्व’ की संज्ञा को वीडी सावरकर ने ही गढ़ा था और उन्होंने तभी यह भी स्पष्टï कर दिया था कि इसका हिंदुओं के धार्मिक आचारों यानी हिंदू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। 'हिंदुत्व’ तो एक खांटी राजनीतिक परियोजना है।
सावरकर का नारा था: "तमाम राजनीति का हिंदूकरण करो और हिंदू धर्म का सैन्यीकरण करो।’’ इसी से प्रेरणा लेकर डॉ. बीएस मुंजे, जो आरएसएस के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के सरपरस्त थे, फासीवादी तानाशाह मुसोलिनी से मिलने के लिए इटली गए थे। 19 मार्च 1931 को उनकी मुलाकात हुई थी। मुंजे ने अपनी डायरी में 20 मार्च को जो कुछ दर्ज किया था, इतालवी फासीवाद जिस तरह अपने नौजवानों (वास्तव में फासी दस्तों को) सैन्य प्रशिक्षण दे रहा था, उस पर उनके मुग्ध होने को ही दिखाता है। अचरज नहीं कि भारत लौटने के बाद डॉ. मुंजे ने 1935 में नासिक में सेंट्रल हिंदू मिलिट्री एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की थी, जिससे आगे चलकर 1937 में भोंसला सैन्य स्कूल की स्थापना का बीज पड़ा। याद रहे कि अब से कुछ वर्ष पहले ही यह सैन्य स्कूल, आतंकवादी गतिविधियों के सिलसिले में छानबीन के दायरे में आ चुका था। 1939 में गोलवलकर ने नाजी फासीवादी राज में हिटलर द्वारा यहूदियों का सफाया किए जाने का यह कहते हुए महिमामंडन किया था कि यह, "हिंदुस्तान में हम लोगों के लिए एक अच्छा सबक है कि उससे सीखें और लाभान्वित हों।’’ और आगे चलकर, 1970 में गोलवलकर ने ही ऐलान किया था: "आमतौर पर, अनुभव यही बताता है कि बुराई की ताकतें (पढ़ें—गैरहिंदू) तर्क और प्यार की बोली नहीं समझती हैं। उन्हें तो बलपूर्वक ही दबाना पड़ता है।’’
कर के मुकर जाने का खेल
बहरहाल, यह तो आरएसएस का तरीका ही है कि जब उसकी कोई हरकत पकड़ी जाती है या उसकी आतंकवादी हरकत बेनकाब हो जाती है, वह फौरन इसके लिए जिम्मेदार लोगों से अपना कुछ भी लेना-देना होने से इंकार करने लगता है। मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी की हत्या के बाद से आरएसएस लगातार यह दावा करता रहा है कि नाथूराम गोडसे, उसके साथ जुड़ा हुआ नहीं था, जबकि खुद नाथूराम गोडसे के भाई ने इस दावे का खुलकर खंडन किया था।
नाथूराम गोडसे के भाई, गोपाल गोडसे ने मीडिया के साथ साक्षात्कार में कहा था: "हम सभी भाई आरएसएस में थे। नाथूराम, दत्तात्रेय, मैं और गोविंद। आप कह सकते हैं कि हम अपने घर की जगह पर आरएसएस में ही बड़े हुए थे। वह हमारे लिए तो परिवार की ही तरह था। नाथूराम, आरएसएस में बौद्घिक कार्यवाह हो गए थे। उन्होंने अपने बयान में कहा था कि उन्होंने आरएसएस छोड़ दी थी। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा था कि गांधीजी की हत्या के बाद, गोलवलकर और आरएसएस बड़ी मुसीबत में पड़ गए थे। लेकिन, उन्होंने आरएसएस छोड़ी नहीं थी।’’(फ्रंटलाइन, 28 जनवरी 1994)
खैर, असली मुद्दा इस तकनीकी तथ्य का नहीं है कि कोई खास कार्रवाई करते समय, ऐसी कार्रवाई करने वाला बाकायदा सदस्य था या नहीं और नहीं था तो उसे हाशिए का हिस्सा मान लिया जाए। असली मुद्दा तो आरएसएस तथा उससे जुड़े संगठनों द्वारा विचारधारात्मक रूप से लोगों के मन में ज़हर भरे जाने का है, जो इस तरह की हिंसक घृणा को पालता-पोसता है।
असीमानंद को हिंदुत्ववादी आतंक के ताने-बाने का मुख्य स्तंभ माना जाता है और उसे समझौता एक्सप्रेस दुहरा विस्फोट (फरवरी 2007), हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट (मई 2007) तथा अजमेर दरगाह विस्फोट (मई 2007) कांड के लिए मुख्य अभियुक्त के रूप में गिरफ्तार किया गया है और महाराष्ट्र में मालेगांव में हुए दो बम विस्फोटों (सितंबर 2006 तथा 2008) के लिए भी नामजद किया गया है। कारवां पत्रिका की एक कवरस्टोरी के अनुसार, उसी असीमानंद ने साक्षात्कार में कहा था कि, "उसके आतंकवादी हमलों को आरएसएस में शीर्ष स्तर से—सीधे आरएसएस के वर्तमान प्रमुख मोहन भागवत से, जो उस समय संगठन सरकार्यवाह थे, अनुमोदन हासिल हुआ था।’’ भागवत ने असीमानंद ये तब यह कहां बताते हैं: "यह करना बहुत जरूरी है। लेकिन, आप इसे संघ के साथ मत जोडि़एगा।’’ आरएसएस के आतंकवाद के साथ रिश्तों को बेनकाब करने वाली यह रिपोर्ट, असीमानंद के सहयोगी, आरएसएस के प्रचारक सुनील जोशी के बारे में भी विस्तार से बताती है, "जिसे इस षडय़ंत्र के विभिन्न अलग-अलग हिस्सों को आपस में जोडऩे वाला सूत्र बताया जाता है—जिसमें बम बनाने वाले तथा बम लगाने वाले भी शामिल थे—जिसकी 2007 के दिसंबर में, रहस्यमय परिस्थितियों में हत्या हो गई थी।’’
कहीं संसद पर भी 'गुजरात मॉडल’ तो लागू नहीं किया जा रहा :
तो यह है सच्चाई। बहरहाल, इस सब के बीच प्रधानमंत्री मोदी विदेश के दौरे करने में, अनिवासी भारतीयों को लेकर बड़े-बड़े तमाशे आयोजित करने में या फिर देश में विदेशी राष्ट्र/शासनाध्यक्षों की अगवानी करने में या फिर आने वाले दिनों की विदेश यात्राओं के कार्यक्रम बनाने में ही लगे रहे हैं। यह मोदी सरकार देश को एक के बाद एक, तमाशों के ही रास्ते पर धकेलने में लगी हुई है। "न्यूनतम सरकार और अधिकतम शासन’’ के वादे को शब्दश: भुला ही दिया गया है। सांप्रदायिक घृणा की राजनीति को दिए जा रहे संरक्षण ने, सरकार और हिंसक "भीड़’’ के बीच के अंतर को करीब-करीब खत्म ही कर दिया है। अब संसद के लिए भी गुजरात मॉडल: बताया जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी एक बार फिर विदेश के दौरे पर निकलने वाले हैं। 25 नवंबर तक वह चार और देशों का दौरा कर लेंगे। इससे संसद के शीतकालीन सत्र के ही बुलाए जाने पर एक बड़ा सवालिया निशान लग गया है। सामान्यत: नवंबर के तीसरे सप्ताह से शीतकालीन सत्र बुलाया जाता है। इस हिसाब से 16 नवंबर से सत्र होना चाहिए था। लेकिन, अब इस तारीख से सत्र शुरू होने की तो कम ही संभावना है। हां! अगर प्रधानमंत्री के विदेश दौरे पर रहते हुए सत्र शुरू किया जा रहा हो, तो बात दूसरी है। कहीं यह सब देश की संसद पर भी 'गुजरात मॉडल’ लागू किए जाने का मामला तो नहीं है।
बौद्धिकों की आवाज और मोदी सरकार
उधर मौजूदा हालात पर देश की बेहतरीन प्रतिभाओं के विशाल हिस्से द्वारा बढ़ते पैमाने पर उठाई जा रही विरोध की आवाज के प्रति, प्रधानमंत्री मोदी के कुछ मंत्रिमंडलीय साथी घोर हिकारत का प्रदर्शन कर रहे हैं। देश में बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ विरोध की आवाज उठाने की शुरूआत, साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित कई प्रसिद्ध लेखकों के अपने पुरस्कार लौटाने से हुई थी और अब इसने विरोध की ऐसी जबर्दस्त चौतरफा पुकार का रूप ले लिया है, जिसमें साहित्यकारों के साथ अब सिनेमा निर्माता/ निर्देशक, पेंटर व अन्य कलाकार, इतिहासकार, अकादमिक विद्वान, वैज्ञानिक आदि, सभी क्षेत्रों की जानी-मानी हस्तियां जुड़ गई हैं।
देश की इन जानी-मानी प्रतिभाओं ने असाधारण साहस का प्रदर्शन किया है और भारतीय जनता की एकता की रक्षा करने के लिए और इस देश की मिली-जुली संस्कृति की महत्ता स्थापित करने के लिए, अपनी आवाज उठाई है। उनकी इन कार्रवाइयों के इसके संकल्प को और बल मिला है कि इस गणराज्य की जनतांत्रिक नींवों की रक्षा करें, ताकि देश व जनता की एकता के बनाए रखा जा सके।
अचरज की बात नहीं है कि भाजपाई केंद्रीय मंत्रियों ने विरोध की इन आवाजों को "राजनीति प्रेरित’’ करार दिया है और यह विरोध भड़काने के लिए वामपंथी पार्टियों पर निशाना साधा है। इस तर्क से तो रिजर्व बैंक के गवर्नर से लेकर, नारायण मूर्ति व किरण शॉ मजूमदार जैसी कार्पोरेट हस्तियों तक और जयंत नार्लीकर, रोमिला थापर, कृष्णा सोबती और ऐसे ही दूसरे हजारों लोग, सब के सब वामपंथी हुए। यह दूसरी बात है कि उन्हें अपनी कतारों में शामिल किए जाने पर वामपंथ को गर्व ही होगा!
विफलताओं से ध्यान बंटाने का खतरनाक चाल - क्या यही अच्छे दिन हैं...?
वित्त मंत्री साफतौर पर जनता का ध्यान, अपने राज में अर्थव्यवस्था के घोर कुप्रंबधन तथा इसके चलते जनता पर भारी बोझ लादे जाने की ओर से हटाने की कोशिश कर रहे हैं। दाल के दाम आसमान छू रहे हैं। भारतीयों के विशाल बहुमत के गुजारे का साधन, दाल-रोटी भी अब जनता की पहुंच से बाहर होती जा रही है। किसानों के हताशा में आत्महत्याएं करने का सिलसिला लगातार जारी है। औद्योगिक क्षेत्र के वृद्धि की करवट लेने के मुगालते तक तेजी से काफूर होते जा रहे हैं। बेरोजगारी बेरोक-टोक बढ़ रही है। मूडी जैसी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियां तक भारत के हालात पर चिंता जता रही हैं। क्या यही अच्छे दिन हैं...?
ऐसा है प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा सरकार का असली चेहरा। जिस भारत को आज हम जानते हैं, उसकी रक्षा करने के लिए यह जरूरी है कि भारत का ही प्रतिगामी रूपांतरण करने की इस विचारधारात्मक परियोजना को आगे बढ़ाने की कोशिशों को राजनीतिक रूप से शिकस्त दी जाए।


