संपूर्ण क्रांति के 51 वर्ष: जयप्रकाश नारायण के आंदोलन की प्रासंगिकता और आज का भारत
5 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण ने 'संपूर्ण क्रांति' का नारा दिया था। 51 साल बाद, इस ऐतिहासिक आंदोलन की प्रासंगिकता पर सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार व सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता व राष्ट्र सेवादल के पूर्व अध्यक्ष डॉ सुरेश खैरनार का गहन विश्लेषण।

sampoorn kraanti ke 51 varsh
संपूर्ण क्रांति क्या थी? जयप्रकाश नारायण का दृष्टिकोण
- 5 जून 1974 की ऐतिहासिक गांधी मैदान सभा – एक सिंहनाद
- आज 51 साल बाद संपूर्ण क्रांति की स्थिति
- संपूर्ण क्रांति और सामाजिक-आर्थिक विषमता का मूल्यांकन
- क्या वर्तमान सरकार जयप्रकाश नारायण के विचारों के विरुद्ध है?
- संघर्ष वाहिनी और जेपी के सिपाहियों का बदलता स्वरूप
- क्या अब संपूर्ण क्रांति सिर्फ एक कर्मकांड बन कर रह गई है?
वर्तमान राजनीति में संपूर्ण क्रांति की जगह और भविष्य
5 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण ने 'संपूर्ण क्रांति' का नारा दिया था। 51 साल बाद, इस ऐतिहासिक आंदोलन की प्रासंगिकता पर सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार व सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता व राष्ट्र सेवादल के पूर्व अध्यक्ष डॉ सुरेश खैरनार का गहन विश्लेषण।
संपूर्ण क्रांति अब नारा है भावी इतिहास हमारा है
पांच जून 1974 पटना के गांधी मैंदान की सभा में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति की घोषणा को आज 51 वर्ष हो रहे हैं.
"संपूर्ण क्रांति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है". इस नारे को आज 51 साल पूरे हो रहे हैं. मैं इस आंदोलन में उम्र के इक्कीस साल का, यानी उस समय के अनुसार भारत में मतदान करने की उम्र का. और मैं एक संवेदनशील नागरिक होने के नाते इस आंदोलन में तन- मन- धन से शामिल था. “था” शब्द दोबारा इसलिए दोहरा रहा हूँ कि हमने संपूर्ण क्रांति के कितने कदम की यात्रा की है ? और आज 51 साल पूरे होने पर, मुझे लगता है, कि सिर्फ एक कर्मकांड के तौर पर जैसे हम हमारे त्योहार, दीपावली, दशहरा, ईद, क्रिसमस या किसी भी अन्य धार्मिक त्योहारों को जैसे, मनाया जा रहा है. लेकिन संपूर्ण क्रांति का कौन-सा पहलू ? कौन से पैमानों को हमने अब तक पूरा किया ? या उसके लिए कुछ कोशिश की है ? इसका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है.
जयप्रकाश नारायण की 'संपूर्ण क्रांति' नाम की 104 पन्ने की पुस्तिका के, प्रकरण चार, पन्ना नंबर 58 में, संपूर्ण क्रांति के विभिन्न पहलुओं के अनुसार- "मैं इस आंदोलन को संपूर्ण क्रांति के रूप में देखता हूँ कि समाज में अमुलाग्र परिवर्तन हो; सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, नैतिक परिवर्तन एक नया समाज इसमें से निकले, जो - जो समाज के आज के समाज से बिलकुल भिन्न हो, उसमें कम-से-कम बुराइयाँ हो. हम ऐसा भारत चाहते, जिसमें सब सुखी हों. और अमीर-गरीब का जो आकाश पाताल का भेद है,वह न रहे. या कम-से-कम हो. समाज की बुराइयाँ दूर हों, इन्साफ हो जो आर्थिक परिवर्तन हो, उसका फल यह हो कि, सबसे नीचे के लोग हैं, जो सबसे गरीब हैं, चाहे वे खेतिहर मजदूर हों, भूमिहीन हों-मुसलमान, हरिजन, आदिवासी, ये सबसे नीचे हैं, इनको पहले उठाना चाहिए यह 1974 की बात है.
वर्षों से भारत की आजादी के बाद, जो कुछ हुआ सब कुछ उल्टा हुआ, गरीबी बढ़ती गयी. और उसके साथ ही अमीरी भी. और दोनों का फर्क भी बहुत बढ़ता गया, भूमि सुधार के कानून भी पास हुए, परंतु भूमिहीनता बढ़ती ही गयी, घटी नहीं, पहले जितने परसेंटेज में भूमिहीन थे, आज उससे अधिक हैं.
यह जो क्रांति आरंभ हुई है, अगर वह सफल होती है, तो यह सब उसमें से निकलेगा. समाज की बुराइयाँ, छुआ-छूत, जात-पात के झगड़े, सांप्रदायिक झगड़े, सब समाप्त होने चाहिए. हम सब हिंदुस्तानी हैं, हम इन्सान हैं, यह विचार फैलना चाहिये. सबके दिल में इसकी जगह होनी चाहिए. हमारे कार्य में, हमारे जीवन में यह प्रत्यक्ष होना चाहिए, केवल जुबान पर नहीं, जैसा आज हो रहा है.
और इसी तरह, चूंकि इसमें छात्र है, मैंने अक्सर इनसे कहा है कि, हिंदू-समाज में, मुस्लिम-समाज में भी शायद किसी रूप में हो, जो यह तिलक-दहेज की प्रथा है, अगर यह आंदोलन सफल हुआ तो यह चलन भी बंद होगा. इस तरह मैं दूर तक देखता हूँ, जो सर्वोदय की मंजिल है, जो समाजवाद की मंजिल या साम्यवाद की मंजिल है- सब एक तरह की बात करते हैं, तरीके, रास्ते अलग-अलग हैं. और हो सकते हैं, मैं इस आंदोलन को वहां ले जाना चाहता हूँ, यह क्रांति है, मित्रों संपूर्ण क्रांति."
साथियो यह जयप्रकाश नारायण के, सर्वसेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी के, जनवरी 1975 के 104 पृष्ठ की पुस्तिका का, सत्तावन और अठ्ठावन पन्नों पर, संपूर्ण क्रांति के 'विभिन्न पहलु' नाम का अध्याय के कुछ विचार है. आगे जेपी जी ने इन सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चा की है. और हम संपूर्ण क्रांति के सिपाही इसे रटकर, 1977 के मई में महाराष्ट्र के अमरावती में एक सप्ताह का शिविर करने के बाद विधिवत् महाराष्ट्र संघर्ष वाहिनी की स्थापना करके, मुख्यतः महाराष्ट्र में छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की जगह-जगह स्थापना के लिए, निकल पड़े. मैंने खानदेश, पश्चिम महाराष्ट्र, कोंकण और महाराष्ट्र के सीमावर्ती, कर्नाटक के बेलगाँव, निपाणी, इत्यादि महाराष्ट्र से सटे हुए हिस्सों में, अपने ढंग से प्रचार-प्रसार के लिए अपने आप को झोंक दिया था. और हम सीधे जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति के सिपाही होने के नाते अखबारों में आज डॉ. सुरेश खैरनार रत्नागिरी में हैं. और संपूर्ण क्रांति पर मौलिक मार्गदर्शन करेंगे. इस तरह के लगभग हर जगह खबरें छपती थीं. और हमारे श्रोताओं में बाकायदा विधानसभा के विधायकों से लेकर हर जगह के बौद्धिक तबके की उपस्थिति होती थी. पुणे के 'गोखले इन्स्टीट्यूट' जैसे प्रतिष्ठा प्राप्त संस्थान में भी इस विषय पर बोलने का मौका मिला था.
इस तरह के जीवन के सबसे बेहतरीन समय मैंने दिया है. और संपूर्ण क्रांति की सपनों की दुनिया बनाने हेतु कोशिश की है. और इसमें हमें उस समय की सत्ताधारी दल जनता पार्टी के विधायक, सांसद और अन्य पदाधिकारियों का काफी सहयोग मिला है. लेकिन आज संपूर्ण क्रांति के घोषणा के, 51 साल पूरे होने पर पीछे मुड़कर देखने के बाद लगता है, कि वह एक तात्कालिक सपना था. और उस सपने में मेरे जैसे सैकड़ों युवक-युवतियां शामिल थी. उसमें से कोई राजनीतिक दल के दामन थाम लिये. तो संसद सदस्यों से विधायक तथा मुख्यमंत्री और कुछ मंत्रियों के पद पर चले गये.
और जिन्हें प्रोजेक्ट बनाने की कला आती थी. वह एनजीओ बन गये, और जिन्होंने जेपी के आवाहन पर शिक्षा में क्रांति के लिए शिक्षा अधूरी छोड़ दी थी, उन्होंने उसे पूरी करके कोई पत्रकार, कोई वकील, कोई शिक्षा के क्षेत्र में, और अन्य नौकरियों में चले गये. जिसे मैं अपनी समझ के अनुसार संपूर्ण क्रांति की एक स्त्री - पुरुष समानता की व्याख्या के अनुसार 'हाऊस हज्बंड' की भूमिका निभाने की कोशिश कर रहा हूँ.
लेकिन जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकल कर, राजनीति में जाने वाले लोगों ने, संपूर्ण क्रांति की ऐसी की तैसी करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. और उत्तर भारत के काफी बड़े हिस्से पर 1977 से लगातार, अलट-पलट कर जेपी के आंदोलन को भुनाने वाले ही लोग सत्ता में रहे हैं. और इन्होंने संपूर्ण क्रांति के कौन सा पहलू को लेकर क्या काम किया है ? यह एक अकादमिक शोध का विषय है. और समाजशास्त्र या राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों को इस विषय पर जरूर शोध करना चाहिए.
लेकिन सबसे संगीन बात- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार जेपी के इस आंदोलन में शामिल होकर, साँप जैसे नई चमड़ी लेकर चमकता है, वैसा ही उसने गाँधीजी की हत्या के बाद, अपने चेहरे को नया मुखौटा पहने के बाद ही अपने शताब्दी के वर्ष में भारत की राजनीति में आजका मुकाम हासिल किया है. और संपूर्ण क्रांति तो दूर की बात है, संविधान से सेक्युलरिज्म और सोशलिस्ट शब्दों को हटाकर वर्तमान सरकार ने अपनी पूंजीवाद के हिमायती होने की बात डंके की चोट पर दिखा दिया है.
और इसिलिये मुक्त अर्थव्यवस्था, जिसमें गरीब और गरीब हो रहा है. और अमीरों को ( उसमें भी विशेष रूप से, गौतम अदानी का एंपायर ) वर्तमान सरकार उसकी हर तरह से मदद करता हुआ, सभी पर्यावरण संरक्षण के सभी कानूनों की अनदेखी करते हुए, झोपड़पट्टियों से लेकर हवाई अड्डे, रेलवे, बंदरगाह, रक्षा के क्षेत्र सरकार देश की सार्वजनिक संपत्ति, खनिज और जल, जंगल, जमीन का वारे-न्यारे कर रही हैं.
और सभी सरकारी उद्योगों को वर्तमान सरकार द्वारा औने-पौने दामों में प्राइवेट मास्टर्स को देना जारी है. जिसमें, रेलवे, सड़क परिवहन, हवाई यातायात, जहाजरानी, विभिन्न सरकारी उद्योग, जिसमें हमारे रक्षा जैसे देश की सुरक्षा को दांव पर लगाने से लेकर, शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण उपक्रमों को भी प्राइवेट मास्टर्स को सौंपने के लिए सरकार, खुद ही स्कूलों की फीस बढ़ाकर और सरकारी अस्पतालों की खस्ता हालत बनाने का ताजा उदाहरण नांदेड़ के सरकारी अस्पताल में भर्ती पेशंट की मौतें इसका जीता - जागता उदाहरण है.
और उनके लिए कृषि कानूनों को बदलने से लेकर, सीलिंग कानून, उद्योगपतियों की सुविधा के लिए, मजदूरों के सैकड़ों सालों की लड़ाई के बाद हासिल किये हुए कानूनों को बदलने की सरकार द्वारा किए हुए बदलाव पूंजीपतियों के हित में, शिक्षा के क्षेत्र से लेकर आरोग्य व्यवस्था जो एक कल्याणकारी सरकारों का दायित्व होता है, उससे सरकार अपना पल्ला झाड़ रही है.
और सबसे संगीन बात कोरोना जैसी महामारी में लाखों लोगों की जान जाने के बाद, सरकार की स्वास्थ्य सेवा उजागर हो चुकी है. और सरकार अपनी जिम्मेदारी नहीं मान रही. सब कुछ प्राइवेट स्वास्थ्य टायकूनों के हवाले कर दिया है. शिक्षा के क्षेत्र में भी शिक्षा सम्राटों के हवाले शिक्षा सौंपी जा रही है. इसलिए बची खुची सरकारी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की फीस बेतहाशा बढ़ाने का एकमात्र उद्देश्य दलित, आदिवासी, पिछड़ों और गरीबों के लिए वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में कोई गुंजाइश नहीं रहे.
और सबसे संगीन बात, जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से नया मुखौटा पहने के बाद ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी राजनीतिक ईकाई भाजपा द्वारा शुरू किया गया, 'राम मंदिर-बाबरी मस्जिद' के आंदोलन से अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए, भागलपुर का दंगा 24 अक्तूबर 1989 , गुजरात का दंगा 27,फरवरी 2002 , मुंबई तथा देश के विभिन्न हिस्सों में सैकड़ों जगहों पर 6 दिसंबर 1992 के दिन अयोध्या में बाबरी विध्वंस के बाद कितने लोगों की जिंदगी दांव पर लगी ? और इस वजह से भारत में स्वतंत्रता के बाद पहली बार सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करते हुए अपने लिए चुनाव प्रचार के लिए हमारी देश की सेना के जवानों की जान के साथ खिलवाड़ तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक तथा पुलवामा जैसे घटनाओं को भी अपने चुनाव प्रचार के लिए भुनाना डेढ़ महीना पहले का पहलगाम हमले की घटना कैसे हुईं ? क्योंकि इसी सरकार ने दावा किया कि 370 हटाने के बाद आतंकवादियों की कमर तोड़ दी गई है, इसलिए कश्मीर में अमन चैन आ गया है. लेकिन पुलवामा और पहलगाम की घटनाओं ने इस दावे की पोल खोल दी है. कश्मीर में हमारा सेना तथा अन्य सुरक्षा बलों की इतने बड़े पैमाने पर तैनाती होने के बाद भी यह हमला कैसे हुआ ? आज डेढ़ महीना हो गया लेकिन अभी तक कोई जानकारी नहीं है. और ऑपरेशन सिंदूर जैसे कार्रवाई की, लेकिन अधिकृत रुप से सरकार की तरफ से सही जानकारी क्यों नहीं दे रहे हैं ? हमारे कितने विमान नष्ट हुए हैं ? जिसके लिए सौ से अधिक देशों में सांसदों के दलों को भेजने का कष्ट करना पड़ा. लेकिन विरोधी दलों की संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग क्यों नहीं मानी जा रही है ?
जबकि पाकिस्तान के ऊपर भारत में आतंकवादियों द्वारा 26/11 से लेकर संसद पर हमला तथा पंजाब और कश्मीर में घटित आतंकवादियों की हरकतों को बताने के लिए ही सौ से अधिक देशों में हमारे संसद के सदस्यों के संवाद यात्रा के तुरंत बाद ही, यूएनओ की सुरक्षा परिषद की आतंकवाद विरोधी कमिटी के चुनाव में पाकिस्तान के सामने भारत को हार का सामना करना पड़ रहा है. इसका क्या मतलब है ?
और वर्तमान में तथाकथित नागरिक संशोधन बिल, लव जिहाद, हिजाब, गोहत्या जैसे मुद्दों के माध्यम से मॉब लिंचिग करके सौ से अधिक संख्या में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को मारने और कश्मीर, लक्षद्वीप जैसे मुस्लिम बहुलतावादी क्षेत्रों में हिंदुत्व की राजनीति लादने के काम करने के कृत्य, से संपूर्ण विश्व में भारत की छवि बिगाड़ी है. गुजरात दंगे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा था कि मैं विदेशों में क्या मुंह लेकर जाऊँगा ? क्योंकि इस तरह भारत में अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के ऊपर हमले होने से हमारी इज्जत नहीं रहेगी. लेकिन अटल जी के नाम लेने वाले दल ने उनके इस प्रतिक्रिया से सीखने की जगह संपूर्ण राजनीति को सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के इर्द - गिर्द लाकर खड़ी कर दी है.
और जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति की व्याख्या का मखौल उड़ाने के कृत्य एक से बढ़कर एक करते जा रहे हैं. और जयप्रकाश नारायण के बनाये हुए पीयूसीएल, सीएफडी, संघर्ष वाहिनी के साथी सालाना जलसे, मित्र-मिलन और साल- छ महीने में एकआध निवेदन तैयार करने के अलावा कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं.
मुझे हमारे संघर्ष वाहिनी के 1977 - 80 के दिन याद आ रहे है. संघर्ष वाहिनी की राष्ट्रीय समिति की बैठकों में युगांडा के तत्कालीन तानाशाह, ईदी अमीन या दक्षिणी अफ्रीका की वर्णभेदी सरकारों को भी, धमकाने के प्रस्ताव पारित करने के लिए, एक-एक शब्द के लिए, रात-रात चर्चा करते थे. फिर बड़ी ही मुश्किल से वह प्रस्ताव पारित होता था. लेकिन उसकी कॉपी दिल्ली स्थित उनके एंबेसियों तक नहीं पहुँचा पाते थे. और ईदी अमीन और बोथा तो बहुत ही दूर की बात है. लेकिन संपूर्ण क्रांति के लिए जिन लोकसमितियों का गठन करने के लिए जयप्रकाश नारायण जी ने कहा था. उन लोकसमितियों का नाम लेकर कुछ लोग एनजीओ बना कर उनके नाम का इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन उसके परिणाम स्वरूप संपूर्ण क्रांति कहां है ? यह सवाल संपूर्ण क्रांति दिवस के अवसर पर बार - बार मेरे मन में आ रहा है.
डॉ. सुरेश खैरनार,
5 जून 2025, नागपुर.


