नए दौर के आंदोलनों में मार्क्सवाद के अवशेषों की तलाश
नए दौर के आंदोलनों में मार्क्सवाद के अवशेषों की तलाश

अभिषेक श्रीवास्तव (Abhishek Shrivastava), जनपक्षधर, यायावरी प्रवृत्ति के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा आईआईएमसी में हुई है
बीसवीं सदी के आंदोलनों पर मार्क्सवाद का प्रभाव
मार्क्सवादी सिद्धांत और सोवियत रूस का दौर
क्रांतिकारी संघर्षों में मार्क्सवाद की भूमिका
क्या मार्क्सवादी विचारधारा अब सिर्फ रणनीति तक सीमित है?
सोवियत रूस के विघटन के बाद मार्क्सवाद में आए बदलाव
पूंजीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों में मार्क्सवाद
क्या मार्क्सवाद की परंपरागत रूढ़ियों का पुनर्मूल्यांकन हो रहा है?
बहुवैचारिक गठजोड़ और मार्क्सवादी विचारधारा का नया परिप्रेक्ष्य
क्या 'व्यापक एकता' मार्क्सवाद की मूल अवधारणा से भटकाव है?
मार्क्सवाद का भविष्य: रणनीति बनाम सिद्धांत की बहस
बीसवीं सदी के आंदोलनों पर मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव (Influence of Marxism on twentieth century movements) रहा है। लेकिन सोवियत रूस के विघटन के बाद मार्क्सवादी सिद्धांतों की जगह पूंजीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी रणनीतियों ने ले ली है। क्या यह मार्क्सवाद की रूढ़ियों की समीक्षा है या केवल 'व्यापक एकता' का एक और शिगूफा? जानिए इस विश्लेषण में।
अभिषेक श्रीवास्तव
बीसवीं सदी के आंदोलनों पर उन्नीसवीं सदी के मार्क्सवाद का गहरा प्रभाव रहा है। सोवियत रूस के विघटन से पहले तक मार्क्सवादी खेमे में सिद्धांत को बहुत अहमियत दी जाती रही। कहीं किसी लोकप्रिय उभार के साथ जुड़ने से पहले मार्क्सवादी अकसर यह पूछते थे कि हम किस सिद्धांत के तहत क्या हासिल करने वहां जा रहे हैं। यह पुरानी पार्टी के ढांचे का प्रभाव हो सकता है। बीते ढाई दशक में हालांकि एक बदलाव यह देखने में आया है कि हर धारा के मार्क्सवादी मोटे तौर पर पूंजीवाद-विरोधी और साम्राज्यवाद-विरोधी आंदोलनों के बड़े खोल में समाहित होते गए हैं जहां तमाम किस्म की वैचारिकी एक साथ काम करती है। ऐसे बहुवैचारिक गठजोड़ सिद्धांत के सवाल को रणनीति के सवाल से पीछे रखते हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि मार्क्सवाद की रूढ़ियों की समीक्षा के नाम पर एक बार फिर एकांगी तरीके से "व्यापक एकता का शिगूफ़ा" उछाला जाने लगा है।
प्रो. मैथ्यू जॉनसन ने इस पुस्तक में नए दौर के आंदोलनों के संदर्भ में मार्क्सवाद के अवशेषों की तलाश और उनकी समीक्षा से जुड़े अहम लेखों को संकलित किया है। मोटे तौर पर यह पुस्तक उदारवाद और मार्क्सवाद के आपसी रिश्तों को खंगालती है।
मैथ्यू "उदारवाद के अतिक्रमण का महत्व" नामक अपने लिखे अध्याय में बताते हैं कि एक मार्क्सवादी का मूल काम उदारवाद से हासिल उपलब्धियों का इस्तेमाल करते हुए सैद्धांतिकी को व्यवहार में उतारना है, न कि "दुश्मन का दुश्मन दोस्त" वाले लोकप्रिय फॉर्मूले के नाम पर उदारवादी के हाथों इस्तेमाल हो जाना है।
पुस्तक में संकलित कुल बारह अध्यायों को अलग-अलग विद्वानों ने लिखा है। यह कंटीन्यूअम बुक्स से प्रकाशित है और ऑनलाइन उपलब्ध है।
दुनिया भर के मुद्दों पर मौजूदा जन-उभारों में मार्क्सवादी अपनी जगह कैसे बनाएं और स्वयं-स्फूर्त व उदारवादी उभारों के प्रति सही मार्क्सवादी नज़रिया क्या हो, यह समझने के लिए इस पुस्तक को पढ़ा जाना चाहिए।
Web Title: Searching for remnants of Marxism in new age movements


