धारा 377 - सिद्धांत बड़ा कि न्याय? इसे कहते हैं प्रगतिशील पाखण्ड
धारा 377 - सिद्धांत बड़ा कि न्याय? इसे कहते हैं प्रगतिशील पाखण्ड

अभिषेक श्रीवास्तव (Abhishek Shrivastava), जनपक्षधर, यायावरी प्रवृत्ति के वरिष्ठ पत्रकार हैं। उनकी शिक्षा दीक्षा आईआईएमसी में हुई है
प्रगतिशीलता का एक आयाम धारा 377 का विरोध बन चुका है
छात्र की बस यही गलती है कि वह मधुर मनोहर अतीव सुंदर मालवीयजी की राष्ट्रवादी बगिया में पढ़ने आ गया
अभिषेक श्रीवास्तव
दस दिन पहले बर्बर सामूहिक दुष्कर्म के शिकार बीएचयू के छात्र की आंतरिक मेडिकल जांच में आज बलात्कार की पुष्टि नहीं हो सकी।
डॉक्टर का कहना था कि बाहरी जांच ठीक से नहीं की गयी और देरी के कारण साक्ष्य खत्म हो गए।
पुलिस ने अब तक किसी की गिरफ्तारी नहीं की है और विश्वविद्यालय प्रशासन मामले से ही इनकार कर रहा है।
क्या आपको लगता है कि किसी महिला का रेप हुआ होता तब भी स्थिति यही होती?
क्या प्रशासन ऐसी छूट ले पाता? क्या युनिवर्सिटी झूठ बोल पाती? क्या मेडिकल में दस दिन लग जाते? क्या स्त्री अधिकार संगठन, मानवाधिकार संगठन चुप बैठे रहते?
आइए, कुछ बातें समझने की कोशिश करते हैं।
मुकदमा आइपीसी की धारा 377 में दर्ज है जिस पर बीते सात साल से राजनीति और मुकदमेबाजी हो रही है।
जुलाई 2009 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने 'सहमति' के आधार पर समलैंगिक संबंध को जब अपराध की श्रेणी से हटाया था, तो कथित एलजीबीटी समुदाय में बड़ा जश्न मना था। सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में जब इस फैसले को पलट दिया, तो गज़ब की राष्ट्रीय चीख-पुकार मची।
इस मुकदमे ने हमारे दौर में आधुनिकता की ऐसी परिभाषा गढ़ी है कि प्रगतिशीलता का एक आयाम धारा 377 का विरोध बन चुका है।
हमारे समाज के तमाम एनजीओ, प्रगतिशील संगठन, मानवाधिकार संगठन, स्त्री अधिकार संगठन और यहां तक कि कम्युनिस्ट छात्र संगठन भी एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के पक्ष में खड़े होकर 377 का विरोध करते हैं।
तब बताइए, क्या खाकर कोई संगठन बीएचयू के एक अदद छात्र के साथ खड़ा होगा?
सिद्धांत बड़ा कि न्याय? इसे कहते हैं प्रगतिशील पाखण्ड।
अब आइए प्रतिगामी (गैर-प्रगतिशील/यथास्थितिवादी/आस्थावादी) व्यक्तियों/संगठनों पर। वे तो हमेशा से समलैंगिकता को पाप मानते रहे हैं। धर्म की नगरी बनारस और सर्वविद्या की राजधानी बीएचयू में ऐसा महापाप? वे मान लेंगे तो उनका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा और धर्म भ्रष्ट हुआ तो धंधा चौपट हो जाएगा।
इसीलिए पुलिस, प्रशासन, शिक्षक समुदाय, धार्मिक लोग सब न केवल संट मारे बैठे हैं बल्कि घटना के होने को ही नकार रहे हैं।
बड़ी मुश्किल से एक एफआइआर हुई है, उसे रफा-दफा करने की कोशिशें इसीलिए जारी हैं। इसे कहते हैं परंपराजन्य पाखण्ड।
इन दो सामाजिक पाखण्डों के समर्थन में धारा 377 का 150 साल पुराना दिलचस्प इतिहास भी खड़ा है जिसमें न्यायपालिका के समक्ष आए अब तक कुल छह मामलों में केवल एक में सज़ा तामील हुई है।
सुन कर झटका लगा?
अब आप ही बताइए, क्या हम बीएचयू के छात्र के मामले को 377 के इतिहास का दूसरा मामला बनाने की हैसियत रखते हैं जिसमें सज़ा तामील हो जाए?
हल्ला करने से कुछ हो सकता है, लेकिन करेगा कौन? पाले के दाएं और बाएं एक जैसे लोग बैठे हैं।
ये मामला दबंगई और गुंडई का नहीं है, हमारी सामाजिक संरचना का है जिसमें झूठ बोलना किसी के लिए पॉलिटिकली करेक्ट है तो किसी दूसरे के लिए रेलीजियसली करेक्ट।
बेचारे छात्र की बस यही गलती है कि वह इस वीरभोग्या वसुंधरा पर पैदा हो गया और मधुर मनोहर अतीव सुंदर मालवीयजी की राष्ट्रवादी बगिया में पढ़ने आ गया।
Web Title: Section 377 – Is principle more important or justice? This is called progressive hypocrisy


