तो डॉ, दाभोलकर की शहादत ज़रूरी थी पाखंड के खिलाफ़ क़ानून बनाने के लिये ?
तो डॉ, दाभोलकर की शहादत ज़रूरी थी पाखंड के खिलाफ़ क़ानून बनाने के लिये ?

opinion, विचार
डॉ. दाभोलकर की शहादत और अंधविश्वास विरोधी कानून का इंतजार – कब जागेगा आधुनिक भारत?
महाराष्ट्र का अंधविश्वास विरोधी कानून क्यों लटका रहा? डॉ. दाभोलकर की हत्या से जुड़े सवालों पर मोहन श्रोत्रिय का विचारोत्तेजक विश्लेषण....
2005 में महाराष्ट्र विधान सभा ने जिस अंधविश्वास-पाखंड-प्रसार विधेयक को पारित कर दिया था, वह तब से अब तक लटका क्यों रह गया? वह लटका इसलिये रह गया क्योंकि भाजपा-शिवसेना ने विधान परिषद में उसमें अडंगा लगा दिया था और सरकार उसके बाद इस विधेयक को भूल गयी।
भाजपा-शिवसेना को क्या डर था इस विधेयक के पारित हो जाने के बाद क़ानून की शक्ल अख्तियार कर लेने से? यही कि इन दोनों का वोट बैंक इसके खिलाफ़ था। हिन्दू संस्कृति की दुहाई देने वाली शक्तियाँ वैसी स्थिति में अपना धंधा चौपट हो जाने के खतरे को अपने सिर के ऊपर मँडराती देख रही थीं। ये शक्तियाँ एक तरफ़ क़ानून बनाने की प्रक्रिया में अड़चनें खड़ी कर रही थीं, तो दूसरी तरफ़, डॉ दाभोलकर को अपनी गतिविधियों पर विराम लगाने की धमकियाँ दे रही थीं। यह भी कह रही थीं कि ऐसा नहीं हुआ तो उनका अन्त वैसा ही होगा जैसा गांधी का हुआ था। ... और जब अब डॉ दाभोलकर की हत्या हो ही गयी है तो यह कोई बहुत क़यास लगाने का मामला रह नहीं जाता कि ऐसा किसने किया होगा!
यह सिर्फ़ महाराष्ट्र के लिये दुख और चिंता का विषय नहीं है, बल्कि पूरे देश के लिये है। डॉ दाभोलकर जो अभियान चलाये हुये थे, उसके निहितार्थों को ढँग से समझा जाये, तो यह साफ़ हो जायेगा कि वह वैज्ञानिक सोच विकसित करने और पाखण्ड पर चोट करने सम्बंधी संवैधानिक दायित्वों का ही निर्वाह कर रहे थे। यानी वह जो कुछ भी कर रहे थे, वह तो राज्य को अपने आप करना चाहिए था। अपने आपको एक आधुनिक राज्य के रूप में प्रस्तुत करने के लिये !
महाराष्ट्र सरकार अब अध्यादेश लाने की बात कर रही है। यह काम तो पिछले आठ सालों में कभी भी हो जाना चाहिए था। इस कायराना हत्या के बाद तो सरकार को ऐसे तमाम लोगों को सुरक्षा प्रदान करने को भी सुनिश्चित करना होगा और धमकियों देने वालों, तथा धमकियों को क्रियान्वित करने वालों के खिलाफ़ कड़े क़दम भी उठाने होंगे। यह भी बताना होगा कि समाज को आगे ले जाने वालों (उदाहरण के लिये कबीर कला मंच) के काम से जुड़े लोगों को जेल में डालने में तो सरकार कोई वक़्त खोती ही नहीं, तो फिर तथाकथित संस्कृति मंचों की धमकियों का संज्ञान लेने में कोताही कैसे बरत जाती है?
कहने की ज़रूरत नहीं कि गांधी के बाद, डॉ दाभोलकर पहले व्यक्ति हैं, जो पुनरुत्थानवादी-सांप्रदायिक तत्वों के हाथों शहीद हुये हैं। यह खतरे का संकेत है, भारत सरकार के लिये भी। यह वह नया भारत तो कहीं से नहीं है, जिसका संकल्प संविधान-निर्माताओं ने लिया था। चेत सको तो चेत जाओ!
मोहन श्रोत्रिय


