सूरजगढ़ खनन और आदिवासी विस्थापन: विकास की आड़ में आदिवासी अधिकारों का दमन
डॉ सुरेश खैरनार का यह लेख एक गंभीर, तथ्यपरक और भावनात्मक दस्तावेज़ है, जो आदिवासी समाज के समकालीन संकट को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, संवैधानिक संदर्भ और सामाजिक न्याय की दृष्टि से बहुत ही प्रभावी ढंग से सामने रखता है। इसमें सूरजगढ़ खदानों के ज़रिए आदिवासियों के जीवन, अस्तित्व और अधिकारों पर हो रहे हमले को एक बड़े सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श से जोड़ते हुए विश्लेषण किया गया है।

dr suresh khairnar
सूरजगढ़ खनन परियोजना: आदिवासी विरोध क्यों?
- संविधान की पाँचवीं और छठी अनुसूची की अनदेखी
- विकास बनाम विस्थापन: कौन दे रहा है कीमत?
- संघ परिवार की एकरूपता नीति और आदिवासी पहचान पर खतरा
- पर्यावरणीय संकट और वन कटाई की अनदेखी
- डॉ. बी.डी. शर्मा और आदिवासी अधिकारों की ऐतिहासिक लड़ाई
- आदिवासी आंदोलन की गूंज: मावा नाटे मावा राज से लेकर ठिय्या तक
डॉ सुरेश खैरनार का यह लेख एक गंभीर, तथ्यपरक और भावनात्मक दस्तावेज़ है, जो आदिवासी समाज के समकालीन संकट को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, संवैधानिक संदर्भ और सामाजिक न्याय की दृष्टि से बहुत ही प्रभावी ढंग से सामने रखता है। इसमें सूरजगढ़ खदानों के ज़रिए आदिवासियों के जीवन, अस्तित्व और अधिकारों पर हो रहे हमले को एक बड़े सांस्कृतिक और राजनीतिक विमर्श से जोड़ते हुए विश्लेषण किया गया है।
विकास की बलि चढ़ते आदिवासी
सबको एक रंग में रँगने की संघ परिवार की नीति के कारण आज हमारे देश के सभी तरह के अल्पसंख्यक समुदायों के लोग खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं, जिनमें नंबर एक मुस्लिम, फिर ईसाई, सिख, बौद्ध तथा सभी तरह के आदिवासी, घुमंतू व विभिन्न जनजातियों के लोग शामिल हैं. हमारे संविधान के विभिन्न प्रावधानों की अनदेखी करके और मूल निवासियों की संकल्पना को जड़ से खत्म करने की साजिश के तहत तथाकथित विकास के नाम पर उनकी पहचान के साथ उनका अस्तित्व ही समाप्त करने की नीति के कारण, आज सूरजगढ़ पहाड़ी को काटा जा रहा है. कश्मीर से लेकर उत्तरपूर्व तक, सभी अनुसूचित जनजातियों के लोगों को जड़ से खत्म करने की साजिश के तहत यह सब चल रहा है.
‘मावा नाटे मावा राज’ अबूझमाड़ (छत्तीसगढ़) के आदिवासियों के जन आंदोलन से निकलकर इस घोषणा ने समस्त आदिवासी क्षेत्रों को अपने संविधानप्रदत्त अधिकारों की याद दिलाने का काम किया है. लेकिन आजादी के पचहत्तर साल के बाद भी सरकार का सबसे हैरानी वाला काम, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले की सूरजगढ़ खदानों का खनन स्थानीय आदिवासियों के विरोध के बावजूद लगातार जारी है.
आदिवासियों के संरक्षण के लिए बनी पाँचवीं और छठी अनुसूची तथा ग्रामसभा की अनदेखी करके सूरजगढ़ पहाड़ी पर लौह उत्खनन के लिए लॉयडस एंड मेटल्स कंपनी को लीज प्रदान की गयी है. और वर्तमान में त्रिवेणी अर्थ मूवर्स कंपनी द्वारा लौह उत्पादन का काम जारी है. सैकड़ों की संख्या में बाहरी क्षेत्र के मजदूरों व मशीनों के माध्यम से पहाड़ी को काटा जा रहा है. कच्चा माल बाहर निकालने के लिए वनों की कटाई भी धड़ल्ले से जारी है.
वर्तमान में सूरजगढ़ पहाड़ी का अधिकांश हिस्सा पूरी तरह काटा गया है. आदिवासियों का जीवन वनों और पहाड़ियों पर निर्भर है. इसलिए वे ग्राम सभाओं के माध्यम से सूरजगढ़ माइनिंग का विरोध (Opposition to Surajgarh Mining) कर रहे हैं.
और कश्मीर या उत्तरपूर्व के प्रदेशों की तरह कानून और व्यवस्था की आड़ में विभिन्न तरह की सेना जिसमें स्थानीय पुलिस के अलावा सेंट्रल रिजर्व फोर्स, और भारत की सभी तरह की पैरामिलिट्री तैनात करके विभिन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों को संपूर्ण जंगल, जल, और जमीन सौंपी जा रही है. और समस्त उत्तर पूर्व, आदिवासी बहुल झारखंड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, महाराष्ट्र के गढ़चिरौली जिले से लेकर गोंदिया, भंडारा, चंद्रपुर, मध्यप्रदेश, भारत के लगभग एक चौथाई इलाके को अशांत क्षेत्र (डिस्टर्ब एरिया) घोषित कर दिया गया है. क्या यही हमारी आजादी की पचहत्तर साल के बाद की उपलब्धि है?
सूरजगढ़ में खनन के लिए वनभूमि से बेदखल किये जाने का आदिवासियों द्वारा विरोध सूरजगढ़ माइनिंग बंद करने की माँग को लेकर लगातार तीन दिनों से ग्रामसभा और आदिवासी समुदाय द्वारा जारी ठिय्या आंदोलन के चलते, महाराष्ट्र के आदिवासी विभाग के राज्यमंत्री ने कहा कि आदिवासियों पर किसी भी तरह का अन्याय नहीं होने दिया जाएगा. लेकिन आज सूरजगढ़ माइनिंग बंद करने की माँग पर उनका क्या रुख है ?
हमारे राजनेता दलित, आदिवासी, महिला और गरीब को पचहत्तर साल से अपनी चुनावी राजनीति में खूब भुनाते रहे हैं. लेकिन चुनाव के लिए धन देने वाले धन्नासेठों के खनन का काम हो या जंगल कटाई का तथा अन्य परियोजनाओं का काम, वे इसे बदस्तूर जारी रखते हैं. और भारत की कुल आबादी के साढ़े आठ से नौ प्रतिशत की आदिवासी आबादी के 75 फीसद का विस्थापन फिर वह खनन का काम हो, या बाँध परियोजना हो, या ज्यादातर विकास के नाम पर चल रही परियोजनाएं हों, इनके चलते विस्थापन के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी लोग ही हैं. और इसीलिये गढ़चिरौली जिले की सूरजगढ़ खदानों का खनन स्थानीय आदिवासियों के विरोध के बावजूद लगातार जारी है.
हमारे देश के संविधान यह प्रावधान है कि "शिड्यूल एरिया के अंदर किसी भी परियोजना को जब तक स्थानीय ग्राम सभा की इजाजत नहीं मिलती है. तब तक कोई काम शुरू नहीं होना चाहिए." लेकिन वर्तमान समय में देश की सत्ता की बागडोर सँभालने वाले दल ने अपने मातृ संगठन संघ परिवार के एजेंडे के अनुसार हमारे संविधान से लेकर दलितों, आदिवासियों के लिए बने सभी संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी करते हुए एक देश, एक विधान, एक निशान, एक भाषा जैसे अपने एक रंग में रँगने की नीति के कारण गत ग्यारह सालों से फिर वह नागरिकता कानून की बात हो या कश्मीर से 370 का प्रावधान खत्म करने की बात हो या कृषि के नये कानूनों को लेकर चल रहे किसानों का आंदोलन और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को औने-पौने दामों में बेचने का सिलसिला, यह सब आदिवासियों, किसानों, मजदूरों के विरोध के बावजूद लगातार जारी है. आज सूरजगढ़ माइनिंग का काम भी उनकी उसी नीति के कारण बदस्तूर जारी है . और आदिवासी को वनवासी बोलना भी उनके नीतिगत फैसले के कारण उनके अस्तित्व को नकार कर उन्हें बेदखल करने की साजिश है.
आज से पाँच सौ साल पहले अमरीका में गोरों ने मूल निवासी रेड इंडियंस के साथ यही व्यवहार किया था. इसलिए सिएटल चीफ का 1854 का तत्कालीन राष्ट्रपति को लिखे पत्र का एक छोटा अंश कोट कर रहा हूँ. "खुले आसमान और जमीन की ऊष्मा की खरीद-फरोख्त आप कैसे कर सकते हैं? हमारे लिए ऐसा सोचना ही अजूबा है. अगर हवा की ताजगी और पानी की झिलमिल चमक पर हमारी मिलकियत नहीं है. तो उसे आप खरीद कैसे सकते हो ? हमारे लोगों के लिए इस पृथ्वी का हर हिस्सा पवित्र है. चमकने वाली हर सूचिका, पानी का हर किनारा, अँधियारे वनों में घिरता कुहासा वलय, उनका हर अंतराल और गुनगुनाते कीट-पतंग हमारे लोगों की स्मृति और अनुमति के लिए पावन हैं.
परंतु अगर हम तुम्हें अपनी जमीन बेचते हैं, तो तुम यह अवश्य ध्यान रखना कि वायु हमारे लिए मूल्यवान है, तो हर तरह के जीवन का आधार है, उनकी चेतना में सहभागी है. वह हवा जो हमारे पितामह की पहली सांस के रूप में आती है, उसके अंतिम उछ्वास में विलीन हो जाती है. और यदि हम तुम्हें अपनी जमीन बेचते हैं. तो तुम उसमें उस स्थान को विलग और पवित्र मानना, जहाँ पहुँच कर गोरा आदमी भी हमारी झाड़ियों के फूलों की मीठी सुगंध से लदी वायु का आस्वादन कर सके."
(सिएटल के चीफ द्वारा अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति को सन 1854 में लिखी हुई चिट्ठी कुछ अंश. )
एक तरफ शिड्यूल एरिया के कारण हमारे संविधान निर्माताओं ने पाँचवीं और छठी अनुसूची बनाकर भारत के समस्त आदिवासी क्षेत्रों को सुरक्षित रखने के लिए विशेष प्रावधानों की व्यवस्था करने के बावजूद, सभी परियोजनाओं का काम बदस्तूर जारी है. वर्तमान सूरजगढ़ पहाड़ी को काटा जा रहा है. लेकिन हमारे राजनेता सिर्फ आदिवासी समुदाय को आश्वासन देने के अलावा और कुछ नहीं कर रहे हैं. आदिवासी विभाग का मंत्री होने के नाते उन्हें सबसे पहले सूरजगढ़ माइनिंग बंद करने का आदेश जारी करना चाहिए था. इसके बदले सिर्फ यह कहना आदिवासी समुदाय के ऊपर अन्याय नहीं होने दिया जाएगा, ऐसी हवाई बातें करने का क्या मतलब है ?
कुछ दिन पहले नागपुर प्रेस क्लब में एक परिचर्चा में मुझे शामिल होने का मौका मिला था. तत्कालीन वनमंत्री को हमारे देश के जंगलों के कारण विकास करने में बहुत बड़ी बाधा निर्माण हो रही है, जैसी बात करते हुए देखकर मैंने कहा कि आपको वनमंत्री की जगह वननष्ट मंत्री बनाया जाना चाहिए. आज भारत के वनों की कटाई धड़ल्ले होने के कारण हमारे पर्यावरण को भयानक संकट के दौर से गुजरना पड़ रहा है. वनों के संरक्षण के लिए ही वनमंत्री का पद बनाया गया, और एक आप हो कि कह रहे हो कि वनों के कारण विकास करने में बहुत बाधा आ रही है. आप अपने ही विभाग के खिलाफ बोल रहे हो.
यही बात मैंने केंद्रीय पर्यावरण मंत्री के द्वारा सुनी है. और मैंने उन्हें भी कहा था कि 1970 के दशक में जिनेवा कन्वेंशन के बाद प्रथम बार भारत में पर्यावरण मंत्रालय बनाया गया है. तो आपके मंत्रालय का काम भारत के पर्यावरण संरक्षण का है, और आप खुद के ही मंत्रालय के खिलाफ बोल रहे हो. यह इनकी गलती नहीं है. मंत्रालय तो इन्हें सिर्फ बंदरबाँट करने के लिए मिला है. काफी लोगों को लगता है कि विकास यानी जबरदस्त औद्योगीकरण, आठ लेन के सीमेंटेड हाईवे, बुलेट ट्रेन, और समस्त जंगलों को नष्ट करके तथाकथित विकास के नाम पर बाँध, बिजली, औद्योगीकरण. इस मानसिकता के कारण वह मंत्री यह भी नहीं जानते कि उनके मंत्रालय का काम क्या है ?
डॉ. बीडी शर्माजी की ‘टूटे वायदों का अनटूटा इतिहास- भारतीय राज्य और आदिवासी लोग’ नाम की उनके अपने ही सहयोगी प्रकाशन की 232 पन्नों की हिंदी में लिखी किताब है.
डॉ. बीडी शर्माजी खुद 1956 के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी रहे हैं. और 1991 में आदिवासी सवालों को लेकर ही तत्कालीन सरकार के साथ नीतिगत मतभेदों के कारण उन्होंने अपने पद का त्याग किया और. उसी के बाद उन्हें भारत की अनुसूचित जातियों और जनजातियों के आयुक्त के पद पर नियुक्त किया गया था. और उनकी 28 वीं रिपोर्ट आज भी संपूर्ण देश के आदिवासियों के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज माना जाता है. उनकी किताब की प्रस्तावना से कुछ उद्धृत कर रहा हूँ.
"आज हमारे देश में आदिवासी लोग और उनके देश या इलाकों के बारे में भारी बहस छिड़ी हुई है. राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी चिंता उन्हें उन दानवी ताकतों से मुक्ति दिलाने की है. जो इन इलाकों पर लगभग दशकों से छाये हुए हैं. सबसे मजेदार बात तो यह है कि उस राज्य को, जो आज उनके बारे में इतना चिंतित है. और संविधान के तहत उनके संरक्षण और उनके हितों के संवर्धन के लिए आज्ञापित है. इतना तक नहीं मालूम है कि इस बीच कितने आदिवासी विस्थापित हुए. सुनहरी लूट की भागम-भाग में कितनी बस्तियों पर कब्जा किया है? और कितनी उजाड़ी गयी हैं? जैसे अभी सूरजगढ की बात है.
कानून की आड़ में किस तरह की और जालसाजी हुई ? और कितनी छोटी-छोटी आदिम जनजातियों को ताकतवर समूहों ने बिडार दिया या खत्म कर दिया है.
इन तमाम भूलों के बावजूद आदिवासी समाज विशेषाधिकार संपन्न रहा आया है. उनके लिए पंचशील के रूप में (दशक 1950) अभूतपूर्व सदिच्छा का भंडार है, आदिवासी उपयोजना के रूप में (दशक 1970) कार्य-योजना के रूप में दशक 1990 और 1996 श्रेष्ठतम प्रस्तुति और पंचायत उपबंध अनुसूचित क्षेत्रों पर विस्तार अधिनियम पेसा कानून के रूप में स्वशासी व्यवस्था की अनूठी दुनिया है. "हमारे गाँव में हमारा राज" की घोषणा इसी कानून की घोषणा की उपज है.
मानो धरती पर स्वर्ग के साकार होने जैसा लगने लगा. पर समय के साथ यह भव्य चमत्कार मृग मरीचिका बन कर रह गया. लघु वनोपज पर इसे इकट्ठा करने वाले की मिलकियत वगैरा-वगैरा सुन रहा था (1976,1996,2006) लेकिन आठ साल के बाद आयी बीजेपी की सरकार ने साफ-साफ बोल दिया है कि पाँचवीं और छठी अनुसूची असंवैधानिक है. हालाँकि संघ खुद हमारे संविधान की घोषणा होने के दूसरे ही दिन संविधान को नकार चुका है. लेकिन सत्ता में आने के बाद चतुराई से संविधान की शपथ लेकर ही संविधान को खत्म करने की नीति के तहत आदिवासियों को दिये विशेषाधिकार पाँचवीं और छठी अनुसूची को असंवैधानिक करार दिया है. और उसी के बाद कश्मीर का 370 खत्म करने के बाद अब उत्तर पूर्व का 371 भी खत्म करने की साजिश है.
क्योंकि एक राष्ट्र, एक विधान, एक निशान की घोषणा जो है. और इस तरह एकता में अखंडता की जगह संपूर्ण भारत में, हिंदू राष्ट्रवाद की खातिर, विविधता को खत्म करने की कड़ी में अल्पसंख्यकों से लेकर दलितों, आदिवासियों तथा विभिन्न घुमंतू जनजातियों के अस्तित्व को नकार कर उन्हें बेदखल करने की साजिश बदस्तूर जारी है.
डॉ. सुरेश खैरनार,
7 मई 2025, नागपुर.


