समाजवादी पार्टी की स्थापना: 17 मई 1934 की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से समाजवादी पार्टी तक का सफर
  • डॉ. लोहिया, जेपी और अन्य नेताओं की विचारधारा की विरासत
  • समाजवादी विचारधारा में विभाजन और भ्रम की राजनीति
  • आपातकाल, सीआईए के आरोप और विचारधारा की हत्या
  • आज का समाजवाद: सत्ता की साझेदारी या सिद्धांतों की तिलांजलि?

क्या समाजवादी आंदोलन का भविष्य बचा है?

समाजवादी पार्टी के 90वें स्थापना दिवस पर जानिए आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ. लोहिया और अन्य समाजवादी नेताओं का योगदान, उनके विचार, विभाजन के कारण और मौजूदा दौर में समाजवाद की प्रासंगिकता पर डॉ. सुरेश खैरनार का विशेष लेख।

समाजवादी पार्टी के 90 वें स्थापना दिवस 17 मई के उपलक्ष्य में

साथियो आज समाजवादी पार्टी का 90 वां स्थापना दिवस है. हालांकि इसके साल भर पहले नासिक की जेल में बंद अच्युत पटवर्धन, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेंद्र देव तथा अन्य लोगों ने जेल में बंद रहते हुए ऐसे दल की आवश्यकता महसूस की थी, और पटना में उसे 17 मई 1934 को आज ही के दिन नब्बे साल पहले पटना के अंजुमन इस्लामिया हॉल में, कांग्रेस के भीतर समाजवादी गुट की विधिवत स्थापना हुई थी.

उस समय आचार्य नरेंद्र देव पैंतालीस साल के थे. और कार्यक्रम के आयोजक जयप्रकाश नारायण 32 साल के थे. मतलब यह कांग्रेस के भीतर के युवा समाजवादियों का प्रयास था. इसलिए उसे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी ( सीसीपी ) के नाम से जाना जाता है.

मैं बचपन से ही राष्ट्र सेवा दल के कारण समाजवादी विचारधारा को मानने वालों में से एक रहा हूँ. लेकिन तब से लेकर अब तक कौन सी समाजवादी पार्टी सही है, और कौन सी गलत है ? इस पेशोपेश में हूँ. और इसीलिए, मैं किसी भी पार्टी का सद्स्य कभी नहीं बन सका. क्योंकि जब मैं सेवा दल की शाखा चलाता था, उस समय दो सेवा दल के पूर्व अध्यक्ष ( उस समय दलप्रमुख ) मेरी शाखा में आकर गए थे. एक एस एम जोशीजी जो सयुंक्त सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष थे, दूसरे नाना साहब गोरे, जो प्रजा समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष थे. और मुझे तो दोनों बहुत प्रिय थे. लेकिन उनकी दो समाजवादी पार्टियां मेरी समझ में नहीं आता था, कि ये दोनों महाराष्ट्र के नेता एक ही शहर के, खूब अच्छे मित्र, लेकिन दो अलग-अलग पार्टियों के नेता क्यों हैं ? मैं जब इस पशोपेश में था, तब ड़ॉ. लोहिया इस दुनिया को अलविदा कह चुके थे. और जेपी सर्वोदय में लोक सेवक बन गए थे. तो मेरे लिए श्री. एस. एम. जोशी, श्री. नाना साहब गोरे, जॉर्ज फर्नांडीज, बैरिस्टर नाथ पै, प्रोफेसर मधु दंडवते, मृणाल गोरे, प्रोफेसर सदानंद वर्दे, भाई वैद्य, ड़ॉ. जी. जी. पारीख, प्रोफेसर जी. पी. प्रधान मास्तर, ड़ॉ. बापु कालदाते सभी अच्छे लगते थे. इन्दुमति आचार्य केलकर पुत्रवत प्रेम करते थे. और ड़ॉ. लोहिया की मराठी में अनुवादित की हुई सभी पुस्तकों को उम्र के बीस साल के पहले ही पढ़ चुका था. फिर सेवादल के अभ्यास शिविरों में विनायक कुलकर्णी, हमीद दलवाई, नरहर कुरुंदकर, अभि शाह, प्रधान मास्तर, यदुनाथ थत्ते, कालदाते, नाना साहब गोरे,एस एम जोशी सभी महानुभावों के भाषण सुन कर बडा हुआ. पर इनकी दो पार्टीया क्यों हैं ? यह मैं अभी तक नहीं समझ पाया. फिर इनको क्या सूझा, मालूम नहीं. जेपी आन्दोलन के (1973-74) दौरान या पहले ही इनकी एक पार्टी हो गई. और अध्यक्ष बने थे, तेज तर्रार चक्का जाम नारे के निर्माता, जॉर्ज फर्नांडीज. लेकिन बहुत जल्दी आपातकाल में ही, जनता पार्टी के निर्माण में यह पार्टी 1 मई 1977 के दिन विट्ठल भाई पटेल हाऊस के लॉन में विसर्जित की गयी और भानामती का कुनबा जनता पार्टी के नाम से बनाई गई थी.

फिर दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर जनता पार्टी दो साल के पहले ही टूट गई. तो मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की स्थापना की. और उसके ही आसपास हमारे मित्र किशन पटनायक, भाई वैद्य जी की अगुआई में पहला नाम समाजवादी जनपरिषद, ठाणे मे मैं विशेष रूप से कलकत्ता से उस समय आया था. पहले 'समाजवादी जन परिषद' और उसके बाद हैदराबाद में 'सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के भी बनने के समय सबसे ज्यादा भाई वैद्य जी के आग्रह करने के बावजूद, मैं उसमें नहीं गया था. क्योंकि मुझे लगता था कि, जब मुलायम सिंह यादव ने सपा बना ली तो उसी को अंग्रेजी नाम देकर पार्टी बनाने का तुक मेरी समझ में नहीं आया था. और सभी बनाने वाले लोग अपने- अपने घरों में पराये हो गए थे. ग्राम पंचायत स्तर पर भी उनका किसी का भी जनाधार बचा नहीं था. छोटे बच्चों के घर - घर खेलने जैसा पार्टी- पार्टी खेलने वाला खेल लगा हैं.

शायद भारत के संसदीय राजनीति के इतिहास में, यह पहली पार्टी होगी जो अमीबा के जैसे, अपने ही सेल से दूसरी पार्टी निर्माण करने का उदाहरण है. 1934 से लेकर आज तक कितनी-कितनी बार सुधरो या टूटो का ड़ॉ. राम मनोहर लोहिया के सिद्दांत को अमली जामा पहनाया होगा ? सुधरने की सुध अभी भी नहीं है. लेकिन टूटो को ही याद रख लिया गया.

और अब 90 साल की बरसी के उपलक्ष्य में हमारे अपने ही लोग अलग - अलग पोस्ट लिख कर दावा कर रहे हैं, कि फलाना महान है, जो पार्टी को आगे बढ़ाने के लिये उपयुक्त होगा. और पहले के 90 साल के भीतर जो हो गए हैं, वो क्या थे ? क्या किए क्यों किए ? और इतनी बार टूट होने के कारण क्या रहे ? इसका बगैर मूल्यांकन किए आप कहा पहुँचने वाले हैं ? फिर वही घूम फिर कर वापस आ जायेंगे. और सुधरो या टूटो का खेल खेलते रहोगे ?

मेरी व्यक्तिगत मान्यता है कि विशिष्ट मानसिकता या प्रकृति वाले लोग अपने आप ऐसे संगठन या आयोजनों में शामिल होते हैं. वहां इज्म सेकंडरी होता है, क्योंकि कितने लोग वह दर्शन पढ़कर, समझ कर, उस दल या संगठन में शामिल होते हैं ?

मुझे आपातकाल में मुम्बई में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक महाराष्ट्रियन नेता से मिलने का मौका मिला था, जो अपने घर में सिर्फ अकेले ही निठल्ले बैठे हुए थे. और बहुत ही फुर्सत के साथ मुझसे बातचीत कर रहे थे. क्योंकि जो बिचौलिए लेकर गए थे, उन्होंने शायद उन्हें पहले ही बता दिया था. कि मैं जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में महाराष्ट्र की जनसंघर्ष समिति के सदस्यों में से एक हूँ. और अभी आपातकाल की वजह से भूमिगत हूँ. वह खुद राजनीतिक षड्यंत्र के तहत श्रीमती इंदिरा गांधी को अपने वश में करने के लिए जयप्रकाश नारायण की आलोचना कर रहे थे. और आपातकाल का समर्थन कर रहे थे. और सबसे हैरानी की बात उनके दल ने आपातकाल हटाने के बाद उनके खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई करते हुए, उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया से निकाल बाहर कर दिया था और आपातकाल का समर्थन करने की इस नेता ने गलती की माफी मांगी थी. इस नेता ने अपनी ढलती हुई उम्र में अपना राजनीतिक करियर समाप्त कर लिया था. उस मुलाकात में उन्होंने मुझे कहा कि "दास कैपिटल के 50 पन्ना भी मैंने नहीं पढ़े हैं" और वो कमुनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे. तो मैंने मन-ही-मन में कहा था, "कि शायद आपने पूरा पढा होता तो आज यह नौबत आपके हिस्से में नहीं आई होती."

क्योंकि दो घंटे से भी ज्यादा समय में, वह सिर्फ "जयप्रकाश नारायण सीआईए की मदद से इंदिरा गाँधी को अपदस्थ करने के लिए ही यह सब कुछ षडयंत्र कर रहे हैं और आप युवा लोग भावना में बहकर उनका साथ दे रहे हैं. देखो ना बगल के बंगला देश में शेख मुजीबुर्रहमान को और उनके परिवार के सदस्यों को कैसे बेरहमी से मार डाला है. बिल्कुल इंदिरा गाँधी जी की भी इसी तरह हत्या करने वाले हैं.

जब मैं यह मुलाकात कर रहा था, उस समय मेरी उम्र 23 साल की थी और कम्युनिस्ट पार्टी का इतना बड़ा नेता, इस तरह के कॉन्स्पिरसी थेयरी की बात बता रहे थे. लेकिन मुझे रत्तीभर का विश्वास नहीं हो रहा था और लग रहा था, कि इस आदमी ने अपने जीवन के ज्यादा से ज्यादा समय कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व करते हुए, संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन का भी नेतृत्व, एस एम जोशी के बराबर ही, मजदूरों तथा अन्य कई प्रकार के आंदोलनों का नेतृत्व किया है. लेकिन तात्कालिक रूप से उन मुद्दों पर उन्होंने कामयाबी हासिल की है. आजादी के बाद तीस साल होने वाले हैं. लेकिन उनके सपनों को साकार कर सके, ऐसा बदलाव करने की ताकत वह नहीं जुटा सके. और अब जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में संपूर्ण भारत को हिलाकर रखने की वजह से ही श्रीमती इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा की है. और लाखों लोगों को गिरफ्तार करते हुए जेलों में बंद कर दिया है और सेंसरशिप लगा दी है. उस दौरान इनके बाद के नेता भाई ए बी बर्धन कांग्रेस के वसंत साठे और प्रतिभा पाटील के साथ, यही कॉन्स्पिरसी थेयरी "जयप्रकाश नारायण सीआईए के एजेंट है. और यह आंदोलन भी सीआईए के मदद से चल रहा था, जिसके वजह से आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी. और सेंसरशिप का बेशर्मी से समर्थन कर रहे थे. इस तरह के भाषण मैंने खुद अपने कानों से सुने थे,. इसलिए मुझे इतना बड़ा नेता भी वही कॉन्स्पिरेसी थेअरी दोहराते हुए दिखाई रहे थे. इसलिए मेरे ऊपर कोई खास असर नहीं पड़ा. उल्टा लगा कि इतना बड़ा नेता जयप्रकाश नारायण से इर्ष्या की आग में जलता हुआ नजर आ रहा था.

वापसी में मुझे उनके पास ले जाने वाले मित्र को मैंने कहा कि आज कि "मुलाकात नहीं हुई होती तो, इनके बारे में मेरे मन में कुछ आदर - सम्मान बचा था, वह खत्म नहीं हुआ होता. यह आदमी भी आखिर सामान्य लोगों के जैसे ही बहुत कमजोर और इर्ष्यालु और बहुत ही छोटा लगने लगा. हालांकि कांग्रेस ने अधिकृत रूप से आपातकाल लगाने की गलती की संपूर्ण देश से माफी भी मांगी है. लेकिन उसके बावजूद कुछ भांड जो कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व को खुश करने के लिए वर्तमान समय में कुछ कांग्रेस के पेरोल पर निर्भर लोग, इस वर्ष आपातकाल को 50 वर्ष पूरे हो रहे हैं और यह दोहरा रहे हैं. और 1975 के 25 जून के रोज आपातकाल लगाने के श्रीमती इंदिरा गांधी के निर्णय का समर्थन करने की वकालत करते हुए 1942 भारत छोड़ो आंदोलन के हीरो जयप्रकाश नारायण और डॉ. राममनोहर लोहिया (1967 में गुजर गए ) लेकिन उन्हें भी देशद्रोही तथा सीआईए के एजेंट जैसा घिनौना आरोप कर रहे हैं.

जयप्रकाश नारायण ने तो इस आरोप का जवाब अपने जीते जी ही दिया था कि "अगर मैं देशद्रोही हूँ, तो फिर इस देश में कोई भी देशभक्त नहीं हो सकता." जिन लोगों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर आजादी के आंदोलन में भाग लिया हो. और दोनों की जिंदगी एक फकीर जैसी रही हो. आज दोनों के नाम पर ना ही कोई संपत्ति है. और न ही कोई उसका वारिस . जयप्रकाश नारायण को इस आरोप के बाद आपातकाल लगाने के पहले. जबलपुर की जनसभा को संबोधित करते हुए, मैंने अपने उपस्थिति में "अपने दो जोड़ी कपड़े तथा पटना के कदमकुआ स्थित महिला चरखा समिति के दो कमरों के जगह पर रहता हूँ. और मुझे बुढ़ापे के कारण मेरा सहायक गुलाब मेरी देखभाल करता है. "ऐसा स्पष्टीकरण देते हुए मैंने खुद देखा और सुना हूँ. ऐसी जीवन शैली वाले आदमी को सीआईए के दलाल जैसा आरोप करते हुए शर्म आनी चाहिए.

मैं कलकत्ता में (1982 - 1997) तक पंद्रह साल रहते हुए कुछ कम्युनिस्ट विचारधारा के मित्रों को बंगाल के तीन (प्रोफेसर अम्लान दत्त, वरिष्ठ पत्रकार श्री. गौर किशोर घोष तथा प्रोफेसर शिवनारायण रॉय ) इन रॉइस्ट वरिष्ठ मित्रों को भी यह कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग सीआईए के दलाल बोलते थे. मैंने उन्हें पूछा कि कभी इन लोगों के घर गए हो ? इनको मिलने वाले सीआईए के पैसे का यह लोग क्या कर रहे हैं ? एक मध्य वित्त बंगाली के जैसे और दो-चार खद्दर के कपड़े में रहने वाले. इन तीनों के पास खुद का वाहन भी नहीं है. यह तीनों पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यात्रा कर रहे हैं. आखिर इनको मिलने वाला सीआईए का पैसा कहां जा रहा है ? और ऐसे घटिया आरोप करने वाले लोगों की मैं हमेशा ही भर्त्सना करते आ रहा हूँ. और आज भी करता हूँ.

कानू सान्याल की जीवनी 'फ़र्स्ट नक्सल' शीर्षक से मैंने पढ़ी है और उसे पढृने के बाद, उनका नक्सल आंन्दोलन का सफर देखकर लगता है, कि यह लोग भी टूट के बारे में समाजवादियों के भाईबंद लगते हैं. 23 मार्च ( शहीद भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव की फांसी का दिन है.) इसी तारीख को 2010 में कानू बाबु के आत्महत्या करने के पहले तक, टूट का सिलसिला जारी था. और मतभिन्नता देखकर लगता है, कि इतने समर्पण वालों की बुद्धि को क्या हो गया है ? देश एकदम बुद्धिहीन लोगों के हाथों में चला जा रहा है. और हमारे बुद्धिमान मित्र बाल की खाल निकालने का काम कर रहे हैं.

समाजवादियों का तो बहुत बड़ा योगदान रहा है, जो संघ परिवार को प्रतिष्ठित करने के लिए जॉर्ज फर्नांडीज, रामविलास पासवान, नितीश कुमार, बचीखुची आबरू मट्टी पलित किए हैं. और यह लोग कौन सा समाजवादी अजेंडा लागु कर रहे हैं ? नरेंद्र मोदी लगभग पूरे देश को बेच रहे हैं और पासवान, नितीश बाबु को सांप सूंघ गया है. ये लोग कभी समाजवादी रहे होंगे ? इस बारे में शक होने लगता है.

ड़ॉ. सुरेश खैरनार

17 मई 2025 ,नागपुर.

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