राजनीति एक अजब-गजब खेल है। इसके खिलाड़ी वोट कबाड़ने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। इन खेलों से हमें संबंधित खिलाड़ी की राजनैतिक विचारधारा का पता तो चलता ही है, इससे हमें यह भी समझ में आता है कि इस खेल में किस तरह घटनाओं को तोड़ा-मरोड़ा जाता है और एक ही घटना की किस तरह परस्पर विरोधाभासी व्याख्याएँ की जाती हैं। कश्मीरी पंडितों के मामले में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है।

अपने चुनाव अभियान के दौरान, भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने कई ऐसी बातें कहीं जो या तो तथ्यात्मक दृष्टि से गलत थीं या फिर घटनाओं की सांप्रदायिक व्याख्या पर आधारित थीं।

नरेंद्र मोदी ने कहा कि देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को सबसे बड़ी चोट तब पहुंची जब कश्मीरी पंडितों को कश्मीर घाटी से पलायन करना पड़ा। उन्होंने यह दावा भी किया कि इसके पीछे अब्दुल्ला (शेख, फारूख व उमर) थे। यह बात उन्होंने 28 अप्रैल, 2014 को एक जनसभा में कही।

जवाब में फारूख और उमर अब्दुल्ला ने कहा कि कश्मीरी पंडितों के पलायन के समय कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और भाजपा नेता जगमोहन, राज्य के राज्यपाल थे। उस समय केन्द्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी, जिसे भाजपा बाहर से समर्थन दे रही थी।

तीनों अब्दुल्लाओं में जमीन-आसमान का फर्क है। उनकी भूमिकाएँ अलग-अलग रही हैं। वे तीनों घर्मनिरपेक्षता के पैगम्बर भी नहीं हैं। परन्तु घाटी से पंडितों के पलायन के लिए केवल उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।

हमेशा से भारतीय उपमहाद्वीप का अभिशाप रही है साम्प्रदायिकता Communalism has always been the curse of the Indian subcontinent.

सच यह है कि सांप्रदायिकता, हमेशा से भारतीय उपमहाद्वीप का अभिशाप रही है और इसका सबसे त्रासद नतीजा था भारत का विभाजन (Division of India), जिसमें लाखों लोगों ने अपनी जानें गवाईं और अपने घरबार और धंधा-रोजगार खो बैठे।

सांप्रदायिकता के दानव के कारण ही सीमा के दोनों ओर रहने वाले लाखों लोगों को अपनी जन्मभूमि से सैंकड़ों मील दूर, अनजान शहरों और गांवों में स्थानीय लोगों और सरकार के रहमोकरम पर बसना पड़ा।

सांप्रदायिकता के कारण शहरों के अंदर भी पलायन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मुंबई में 1992-93 और गुजरात में 2002 के दंगों के बाद, हजारों लोगों ने अपने घरबार छोड़कर ऐसे मोहल्लों में बसने का निर्णय लिया जहां उनके समुदाय के लोगों का बहुमत था। इससे कई शहरों में एक ही समुदाय के लोगों की बस्तियां बस गईं। मुंबई में मुंबरा और अहमदाबाद में जुहापुरा ऐसी बस्तियों के उदाहरण हैं।

कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन के मूल में हैं कश्मीर के महाराजा The Maharaja of Kashmir is at the root of Kashmiri Pandits' migration from the valley

कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन के मूल में है विभाजन के बाद कश्मीर के महाराजा का स्वतंत्र बने रहने का निर्णय। इसके बाद, पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया, शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान की बजाए भारत के साथ विलय पर जोर दिया और कश्मीर के महाराजा हरिसिंह ने भारत के साथ संधि पर हस्ताक्षर कर दिए।

शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान की बजाए हिन्दू-बहुल भारत को क्यों चुना? Why did Sheikh Abdullah choose Hindu-majority India over Muslim-majority Pakistan?

शेख अब्दुल्ला ने मुस्लिम-बहुल पाकिस्तान की बजाए हिन्दू-बहुल भारत को इसलिए चुना क्योंकि उन्हें यह दृढ़ विश्वास था कि गांधी और नेहरू के नेतृत्व में भारत में धर्मनिरपेक्षता जीवित रहेगी और फूले-फलेगी। सांप्रदायिक तत्वों द्वारा गांधी जी की हत्या, संविधान के अनुच्छेद 370 को रद्द करने के लिए फिरकापरस्त ताकतों द्वारा दबाव बनाए जाने जाने आदि के चलते कश्मीर की स्वायत्तता पर प्रश्न उठाए जाने लगे।

अनुच्छेद 370, कश्मीर के भारत में विलय का आधार था Article 370 was the basis of Kashmir's accession to India

यह महत्वपूर्ण है कि अनुच्छेद 370, कश्मीर के भारत में विलय का आधार था। इस अनुच्छेद के अंतर्गत रक्षा, संचार, मुद्रा और विदेशी मामलों को छोड़कर, सभी मसलों में निर्णय लेने की कश्मीरी की विधानसभा को पूरी स्वायत्तता थी। सांप्रदायिक ताकतें इस स्वायत्तता के विरूद्ध थीं और चाहती थीं कि भारत सरकार सेना का इस्तेमाल कर कश्मीर की स्वायत्तता को समाप्त कर दे और उस पर जबरन कब्जा कर ले। इस तरह की बातों से शेख अब्दुल्ला को बहुत धक्का लगा और उन्हें लगने लगा कि कहीं उन्होंने कश्मीर का भारत के साथ विलय कर गलती तो नहीं कर दी। यह भारत के साथ कश्मीर के अलगाव की शुरूआत थी। पाकिस्तान ने इस अलगाव की भावना को जमकर हवा दी, जिससे इसने खतरनाक मोड़ ले लिया।

शुरूआती दौर में कश्मीरियों की अतिवादिता, कश्मीरियत की अवधारणा पर आधारित थी। कश्मीरियत, बौद्ध धर्म, वेदान्त और सूफी परंपराओं का मिलाजुला स्वरूप है। सन् 1985 में मकबूल भट्ट को फाँसी दिए जाने के बाद और कश्मीर घाटी में अलकायदा के लड़ाकों के घुसपैठ के चलते, इस अतिवाद का स्वरूप बदल गया। इसने सांप्रदायिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। नतीजे में हिन्दू पंडित, अतिवादियों के निशाने पर आ गए।

सन् 1990 के पहले भी पंडित घाटी से पलायन कर चुके थे। यह पलायन विभाजन के समय हुए दंगों और शेख अब्दुल्ला द्वारा लागू किए गए भू-सुधारों के चलते हुआ था।

यह दिलचस्प है कि कश्मीर के हिन्दू नागरिक, पहले बौद्ध बने और बाद में सूफी संतों के प्रभाव में आकर उन्होंने इस्लाम अपनाया।

हिन्दुओं को 15वीं सदी के बाद से पंडित कहा जाने लगा। यह तब हुआ जब अकबर ने कश्मीर पर विजय प्राप्त की और हिन्दुओं को प्रशासनिक पदों पर नियुक्त किया। अकबर उनकी विद्वता से इतना प्रभावित हुआ कि उसने उन्हें पंडित की उपाधि से नवाजा।

कश्मीर अतिवाद के सांप्रदायिकीकरण के कारण पंडितों को घाटी से पलायन करने पर मजबूर होना पड़ा। कश्मीरी अतिवादी, कश्मीरियत की जगह इस्लामवाद के पैरोकार बन गए।

मोदी और उनके जैसे लोग कहते हैं कि कश्मीरी पंडितों को मुस्लिम अतिवादियों द्वारा घाटी से योजनाबद्ध तरीके से भगाया गया। जबकि सच यह है कि घाटी में रहने वाले बहुसंख्यक मुसलमान, कश्मीरी पंडितों को किसी भी तरह से सताए जाने के सख्त खिलाफ थे और हैं।

आज भी कश्मीर के 40,000 मुसलमान दिल्ली में शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं। Even today 40,000 Muslims from Kashmir are living in a refugee camp in Delhi.

कश्मीरी आतंकवादियों ने हिंदुओं को तो अपना निशाना बनाया ही परंतु उन्होंने मुसलमानों को भी नहीं बख्शा। कश्मीर में आतंकी हमलों में घायल हुए और मारे गए लोगों के संबंध में आंकड़ें इस तथ्य के गवाह हैं।

कश्मीर घाटी के विभिन्न भागों में रहने वाले हजारों मुसलमानों को भी रोजगार की तलाश में पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में जाना पड़ा, क्योंकि आतंकवाद के कारण कश्मीर का पर्यटन उद्योग पूरी तरह से ठप्प हो गया था।

आज भी कश्मीर के 40,000 मुसलमान दिल्ली में शरणार्थी शिविर में रह रहे हैं। वे आसपास के राज्यों में कुली आदि का काम कर अपना पेट पाल रहे हैं।

द टाईम्स ऑफ़ इंडिया (05 फरवरी 1992) में छपी एक रपट कहती है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, जनवरी 1990 से अक्टूबर 1992 के बीच, आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में कुल मिलाकर 1585 व्यक्तियों की हत्या की। इनमें से 982 मुसलमान थे, 218 हिन्दू, 23 सिक्ख और 363 सुरक्षाबलों के जवान।

पंडितों के घाटी से बड़े पैमाने पर पलायन, कश्मीर की सर्वधर्मसमभाव की लंबी परंपरा के लिए गहरा धक्का था। परंतु हमें यह याद रखना होगा कि अतिवादियों ने सभी समुदायों के लोगों को नुकसान पहुंचाया, केवल हिन्दुओं को नहीं। पंडित इतने आतंकित हो गए थे कि उन्होंने 1986 में ही घाटी से पलायन करने का निश्चय कर लिया था। परंतु बहुवादी संस्कृति में विश्वास करने वाले जानेमाने कश्मीरियों द्वारा घटित ‘‘सद्भावना मिशन’’ की अपील पर इस निर्णय को टाल दिया गया। सन् 1990 तक कश्मीर में आतंकवाद और बढ़ चुका था। उस समय जगमोहन, जो आगे चलकर भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में मंत्री बने, कश्मीर के राज्यपाल थे।

बलराज पुरी अपनी पुस्तक कश्मीर (ओरिएन्ट ब्लैकस्वान, 1993) में लिखते हैं कि जगमोहन ने सद्भावना मिशन के एक पंडित सदस्य को दबाव डालकर जम्मू में बसने के लिए मजबूर किया। जगमोहन का उद्देश्य सद्भावना मिशन को भंग करवाना था और वे उसमें सफल भी रहे।

बलराज पुरी ने मार्च 1990 में कहा,

‘‘मैंने यह पाया कि कश्मीर के आम मुसलमानों को पंडितों से न कोई बैर था और ना ही कोई शिकायत थी। वे तो केवल यह चाहते थे कि सेना व अन्य सुरक्षाबलों द्वारा कश्मीर में किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की निष्पक्ष जांच हो।’’

उसी दौर में हिन्दू सांप्रदायिक तत्व पंडितों को डराने में लगे हुए थे।

‘‘जम्मू और दिल्ली में यह गलत सूचनाएं फैलाई जा रही हैं कि कश्मीर में बड़ी संख्या में हिन्दू मंदिरों और पवित्र स्थलों को अपवित्र या नष्ट कर दिया गया है। यह पूरी तरह से गलत है। यह आश्चर्यजनक है कि सरकार को यह क्यों नहीं सूझा कि वह दूरदर्शन से कहे कि कश्मीर के मंदिरों पर एक फिल्म बनाकर उसका प्रसारण किया जाए ताकि लोगों को सच्चाई का पता चल सके’’ (भारतीय प्रेस परिषद, 1991)।

जगमोहन की भूमिका है कश्मीरी पंडितों की बदहाली में Jagmohan's role is in the plight of Kashmiri Pandits

कुल मिलाकर, घाटी से पंडितों का पलायन, कश्मीरियों के अलगाव से जनित अतिवाद, सन् 1990 के दशक के अंत में इस अतिवाद के साम्प्रदायिकीकरण, हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों द्वारा पंडितों के मन में डर बिठाने और राज्यपाल जगमोहन के दबाव का दुर्भाग्यपूर्ण नतीजा था। इसमें अब्दुल्लाओं की कोई भूमिका नहीं थी।

कश्मीर के प्रसिद्ध कवि कल्हन अपनी पुस्तक ‘राजतरंगिणी’ में लिखते हैं कि कश्मीर को बल से नहीं बल्कि केवल पुण्य से जीता जा सकता है

हमें कश्मीर के इस प्राचीन कवि की सीख की याद सरकार में बैठे उन लोगों को दिलानी चाहिए जो कश्मीर के संबंध में नीतियां बनाते हैं। किसी एक राजनैतिक दल या नेता को दोष देने से कुछ हासिल नहीं होगा। जब हम इस भयावह त्रासदी की बात करते हैं तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि इसके पीछे वैश्विक आतंकवाद, अमरीका की विश्व के तेल संसाधनों पर कब्जा करने की लिप्सा आदि का भी योगदान रहा है।

राम पुनियानी

(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया)

(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

(नोट – डॉ. राम पुनियानी का यह आलेख कश्मीरी पंडितों की बदहाली का राजनीतिकरण” (Dr. Ram Puniyani's article in Hindi on the plight of Kashmiri Pandits) हस्तक्षेप पर मूलतः 10 मई 2016 को प्रकाशित हुआ था। नए संदर्भोंमें भी यह लेख प्रासंगिक है। हस्तक्षेप के पाठकों के लिए पुनर्प्रकाशन)