स्‍त्रीवाद की क्रांतिकारी परंपरा

ऐसा लगता है कि दिल्‍ली की बौद्धिक संस्‍कृति में तेज़ी से बदलाव आ रहा है। आज उसके दो अलग चेहरे देखने को मिले। कल दोपहर गेल ओमवेट का स्‍त्रीवाद की क्रांतिकारी परंपरा पर लेक्‍चर (Gail Omvedt's lecture on the revolutionary tradition of feminism) था तो शाम को Felix Padel का जनांदोलनों और पूंजीवाद के ऊपर एक व्‍याख्‍यान था। दोनों अव्‍वल दरजे के विद्वान, अपने-अपने विषय के जानकार और लंबे समय से इस देश में सबाल्‍टर्न पर काम करने वालों के बौद्धिक मार्गदर्शक।

मंडल और उदारीकरण के बाद जो लोग भी पब्लिक डोमेन में काम करते रहे हैं, वे इन दोनों के नाम और काम से ज़रूर परिचित होंगे। शनिवार भी था। गर्मी भी कम थी। बावजूद इसके, दोनों ही व्‍याख्‍यानों में राजधानी के हिंदी और अंग्रेज़ी के वे तमाम बुद्धिजीवी एक सिरे से नदारद रहे जो आम तौर से ऐसे कार्यक्रमों में पाए जाते हैं।

हिंदी के लेखकों की तो पूछिए ही मत, जाने कहां लिप्‍त(लुप्‍त) हैं सब एक साल से।

बहरहाल, कांस्टिट्यूशन क्‍लब में इसके बावजूद कुर्सियां कम पड़ गईं तो शायद इसलिए कि वहां नौजवानों की तादाद सबसे ज्‍यादा थी।

मेरा अनुमान है कि सभागार को भरने और कार्यक्रम को संचालित करने में दिलीप सी मंडल के चाहने वालों और उनके पिछले कुछ वर्षों में छात्र रहे पत्रकारों का ज्‍यादा योगदान रहा।

इस भीड़ का कोई एक राजनीतिक चेहरा नहीं था। बाकी, अपने जैसे कुछ लिफाफे कुछ लिफाफा मित्रों के साथ हमेशा की तरह मौजूद थे, लेकिन व्‍याख्‍यान की प्रति पहले ही मिल जाने के कारण सारी उत्‍सुकता जाती रही।
इसके उलट गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में फेलिक्‍स को सुनने के लिए अपनी लिफाफा बिरादरी को मिलाकर चालीस से ज्‍यादा लोग नहीं थे। एक तिहाई सो रहे थे। यहां का राजनीतिक चेहरा फिर भी साफ़ था, क्‍योंकि यह समाजवादी जन परिषद का कार्यक्रम था।

बीते वर्ष सरकार बदलने के बाद से कुछ ऐसा घटा है कि दिल्‍ली में अच्‍छी उपस्थिति वाले बौद्धिक कार्यक्रमों का ज्‍यादा लेना-देना उसके प्रचार मूल्य या आयोजक के निजी संबंधों से रहा है जबकि ज्‍यादा गंभीर और सुस्‍पष्‍ट राजनीतिक दिशा वाले कार्यक्रमों में सामान्‍य भागीदारी जबरदस्‍त घटी है।

कुछ साल पहले तक हिंदी और अंग्रेज़ी के जो चेहरे ऐसे आयोजनों में आम होते थे, वे अब गूलर का फूल हो गए हैं। ऐसे में सिर्फ एक शख्‍स पूरी दिल्‍ली में है जो हर बार आस बंधाता है- महेश यादव। आप उन्‍हें हर जगह पाएंगे। हमेशा की तरह झोला लटकाए और देखते ही बढ़कर हाथ मिलाते।

महेशजी आज भी दोनों जगह थे। अपनी पुरानी भूमिका में। उन्‍हें देखकर निराशा छंटती है लेकिन पढ़े-लिखे धोखेबाजों पर गुस्‍सा भी आता है।
जानने वाले जानते हैं, समाजवाद का वह "धोखेबाज़" कौन है। जाने दीजिए...।

अभिषेक श्रीवास्तव

Web Title: Those who know, know who that “traitor” of socialism is

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