मानवता को खतरा मशीनों से नहीं पूंजीवाद से है : फासीवाद का बढ़ता कदम और क्रन्तिकारियों की रणनीति
मानवता को खतरा मशीनों से नहीं पूंजीवाद से है : फासीवाद का बढ़ता कदम और क्रन्तिकारियों की रणनीति

opinion, विचार
कैप्टन के के सिंह
मै पहले ही बता दूँ कि यह लेख किसी क्रांतिकारी दल का मैनिफेस्टो या कार्यक्रम नहीं है. यह एक सोच है, आधार है मार्क्सवादी भगत सिंह और ऐतिहासिक द्वंदवादात्मक पद्धति, और उस पर आधारित आज तक के आर्थिक, राजनितिक, सामाजिक अनुभव. इसमें और जोड़ने की जरुरत है ताकि, आज का विश्लेषण समग्रता में कर सकें, क्रांति को सही रास्ते पर ला सकें.
भारतीय इतिहास भिन्न है यूरोप के इतिहास से, फिर भी एक समानता है.
यूरोप और अमेरिका में जहाँ दासप्रथा था, भारत में जातिवादी प्रथा एक कोढ़ के रूप में पनपा, बड़ा हुआ और सड़कर समाज को दूषित कर रहा है. दोनों ही उत्पादन के तरीकों से सम्बन्ध रखते हैं और उसकी उपज हैं.
फिर पूरे विश्व में राजतन्त्र या सामंतवाद ने अपना कब्ज़ा किया. उत्पादन के साधन, मुख्य रूप से जमीन, पर स्वामित्व कायम किया और किसानों को उसपर काम करने का अवसर दिया लगान के बदले में! ध्यान रहे जमीन अभी भी सामाजिक था. भगवान या काल्पनिक शक्ति, जिसने ‘दुनिया और जीवन बनाया’, का महत्त्व बढ़ा और उसके आधार पर बने धर्म ने लाखों, करोड़ों इंसानों को मारा!
पूंजीवाद
फिर करीब 500 वर्षों पहले पूंजीवाद का आगमन हुआ और राजा/जमींदार-प्रजा/किसान का सम्बन्ध बदलकर पूंजीपति-मजदूर में तब्दील हो गया. उत्पादन क्षमता में अपार वृद्धि हुई और साथ ही साथ जहाँ नव निर्मित मजदूर वर्ग (जो पहले किसान थे, जमीन से जुड़े हुए थे, और अब सर्वहारा बन गए, जिनके पास अपने को जीवित रखने के लिए अपने श्रम को बेचने के आलावा और कोई श्रोत नहीं बचा) के शोषण में गुणात्मक वृद्धि हुआ, वही अकूत धन का निर्माण और उसका जमावड़ा कुछ के हाथों में हुआ. सैकड़ो और हजारों मजदुरों को एक साथ, एक शहर में रहने का मौका मिला, जाति, धर्म, रंग गौण हुआ और एक भाईचारा का जन्म हुआ, जो एक क्रांति का आधार बना!
मुनाफे की होड़ से जन्म हुआ एकाधिकार पूंजीवाद का
मुनाफे की होड़ ने एकाधिकार पूंजीवाद को जन्म दिया, यानि स्वतन्त्र बाज़ार ख़त्म हुआ और खुले प्रतियोगिता के जगह तोड़-फोड़, युद्ध, आतंकवाद ने स्थान लिया. यहाँ तक कि सरकार भी स्वतन्त्र नहीं रही, चाहे वह विकसित देश हो या अविकसित. अविकसित देशों के ऊपर केवल देश के पूंजीपतियों का ही हाथ नहीं बल्कि विदेशी पुंजियों का भी हस्तक्षेप साफ़ साफ दिखता है. विरोध करने पर हर तरीके के साधन का इस्तेमाल किया गया, ताकि ‘प्रजातान्त्रिक’ तरीके से चुने गए सरकार को गिराया जा सके, बदले में एक ‘गुलाम’ सरकर लाया जा सके, जरुरत पड़ने पर सेना का भी इस्तेमाल किया गया!
भारत
1992 से कांग्रेस की ने ‘सुधार’ के नाम पर श्रम कानून और जमीन अधिकरण कानून को लाने की भरपूर कोशिश की. वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के आदेशों का पालन मजबूती से होने लगा! बढ़ते जीडीपी से खुश देशी और विदेशी बुर्जुआ वर्ग ने मनमोहन सिंह की भरपूर तारीफ की, मीडिया ने राहुल गाँधी की तारीफ में भरपूर दासता दिखाई. एफडीआई और अमेरिकी हस्तक्षेप का विरोधी दलों ने विरोध किया पर दिखावे के लिए, जो अब साफ़ है; भाजपा सारे काँग्रेसी आर्थिक नीति को ही अपना ही नहीं रही, बल्कि उसे त्वरित लागू भी कर रही है.
धर्म और देश एक मुखौटा है मेहनतकाश जनता के भारी शोषण को छुपाने के लिए, उसके एकताबद्ध विरोध को हाशिये पर करने के लिए.
सामंतवाद ने जो इस्तेमाल धर्म का किया था, उसे ख़त्म करने के बजाय, पूंजीवाद ने उसका पुनरुत्पादन और बृहद रूप में किया. वाम ने भी विरोध किया, काफी ‘सभ्यता’ दिखाई और विरोध सडकों पर जुलूस के रूप तक आया पर वर्ग संघर्ष के रूप में नहीं, मजदूर वर्ग को सत्ता से जोड़ने के रूप में नहीं, जो तेलंगाना या नक्सलबाड़ी में दिखा था.
बीच में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए सरकार बनी. जिसने इस ‘सुधार’ को आगे ही नहीं बल्कि त्वरित लागू किया! जनता ने इसका भरपूर विरोध किया और काँग्रेस सरकार वापस आई. यहाँ विश्व आर्थिक संकट का भी आगमन हुआ, जो 2008 में अमेरिका से शुरू हुआ. इस मंदी ने आजतक पीछा नहीं छोड़ा और विश्व पूंजीवाद आर्थिक उछाल की उम्मीद लगाये बैठा है.
अमेरिका और यूरोप के बुर्जुआ आर्थिक ‘विशेषज्ञ’ मार्क्स का ‘दास कैपिटल’ पढ़ रहे हैं. इस पुस्तक के बिक्री में जबरदस्त उछाल आया है;. पर उनका दुर्भाग्य, दास कैपिटल पूंजीवाद के अन्दरूनी अंतर्द्वंद की चर्चा बखूबी करता है, पर उससे निजात के लिए समाजवाद की स्थापना की बात करता है. यानि पूंजी के रूप में आमूल परिवर्तन. निजी पूंजी की जगह सामाजिक धन की वकालत. केवल वितरण ही नहीं बल्कि उत्पादन के साधन पर कुछ पूंजीपतियों के जगह पूरे समाज का नियंत्रण! पूंजीवाद के विरोध को ध्वस्त करने के लिए मार्क्स सर्वहारा तानाशाही की वकालत जरुरत के रूप में करते हैं, जो फ्रान्स की क्रांति से निष्कर्ष के रूप में निकला था (और अब तो और सख्ती की जरुरत होगी, जो शिक्षा सोवियत रूस में पूंजीवाद की पुनर्स्थापना से हुई है)!
2014 का चुनाव
2012 तक जनता अपना धैर्य खो चुकी थी. ऊपर से काँग्रेस प्रशासन का अपराध, भ्रष्टाचार और जनता के दुखों के प्रति असंवेदनशीलता भी काफी हद तक सामने आ चुकी था. भारतीय और विदेशी पूंजी भी मनमोहन सिंह के नेतृत्व से असंतुष्ट थे. दोनों का असर एक आन्दोलन के रूप में हुआ. यह जन लोकपाल आन्दोलन के नाम से प्रसिद्द हुआ. यह आन्दोलन कुछ हद तक स्वस्फूर्त भी था, फिर भी इसमे पूंजी के दलाल, चिन्तक, मीडिया और पैसे लगे हुए थे. यह आन्दोलन अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुआ और अंतत काँग्रेस सरकार को मोदी सरकार ने हटाया.
मोदी सरकार को लाने में एक सुनियोजित देशी, विदेशी पूंजी और मीडिया का हाथ था. आप ने भी कुछ सफलता हासिल की, पर उसकी कोशिश पूंजीवाद में सुधार तक ही सीमित थी. प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव जो पूंजीपतियों पर सरकारी नियंत्रण के पक्ष में थे, बाहर के रास्ते दिखाए गए, एक महज गैर प्रजातान्त्रिक तरीके से.
हाल के 5 राज्यों के चुनाव में आप ने गोवा और पंजाब में चुनाव लड़े, जहाँ उसे मुँह की खानी पड़ी. दिल्ली के एमसीडी चुनाव में भाजपा के पैसे, मीडिया और लगातार आप के खिलाफ दुष्प्रचार ने आप को बुरी तरह हराया.
धर्म और देशवाद ने तर्क का सत्यानाश कर दिया है.
आप ने बिजली, पानी, स्वास्थ्य और शिक्षा में अच्छा काम किया था, पर दिल्ली की जनता ने उसे नकार दिया.
यहाँ यह भी कहना गलत नहीं होगा कि 1977 के आन्दोलन का मुख्य नारा या मुद्दा था, जनप्रतिनिधि को 5 साल से पहले बुलाने का अधिकार. यह मुद्दा प्रखर ना होने के बावजूद 2012 में छाया रहा. अब विपक्षी दल तो उसका नाम भी नहीं ले रहे हैं, योगेन्द्र यादव के कहने के बावजूद आप खामोश है, और अपनी बुर्जुआ मौकापरस्ती और लालच को ही प्रकट कर रही है, भले ही वह कश्मीर के पीडीपी और भाजपा की मिली जुली सरकार से कम मौकापरस्ती हो.
2014 से 2017 तक की कहानी
जी हाँ. कहानी ही तो है! बढ़ते फासीवाद की. इसका जन्म अचानक नहीं हुआ है. 1925 में जन्मी आरएसएस ने अंग्रेजों की खिदमत की, 1942 के आन्दोलन में अंग्रेजों का साथ दिया, इसके प्रमुख सावरकर ने अंग्रेजों से माफ़ी मांगी और काला पानी की सजा को ख़त्म करवाया. वाजपेयी ने भी देश छोडो आन्दोलन से अलग रहने का लिखित वचन दिया और जेल में जाने से बचे. 1947 में तिरंगा झंडा को जलाया. हाल तक अपने कार्यालयों में तिरंगा नहीं फहराया. शुरूआती दौर से ही मालिकों और पूंजीपतियों की खिदमत करना इसके संविधान में था. दूसरी ओर दलितों, अल्पसंख्यकों, औरतों, आदिवासियों और मजदूरों के प्रति घृणा भी इसकी खून में ही था. यह घोर दक्षिण पंथी दल इटली के फासीवादी दल से ही प्रेरणा लेता रहा है!
मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही 34 श्रम कानून ख़त्म कर दिए और साथ ही साथ संविधान में संधोशाधन कर अम्बानी के एफआईआर को निरस्त्र कर दिया.
स्वतंत्रता के बाद काँग्रेस ने, नेहरू, पटेल आदि के नेतृत्व में भारत को पूंजीवाद के रास्ते पर लाया. अम्बेडकर के नेतृत्व में बना संविधान भी इसकी पुष्टि करता है. शुरुआती दौर में भातीय पूंजीवादी इतने सशक्त नहीं थे की वह खुद अपने पैरों पर खड़ा हो सके. नतीजा था ‘मिक्स्ड इकोनोमी’, जो कहीं से भी समाजवाद के रास्ते पर नहीं था, भगत सिंह (या उनके हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिअशन से, जिनके कमांडर चंद्रशेखर आज़ाद थे) के मजदूर राज्य से कहीं से भी करीब नहीं था! ज
ब पूंजी की ताकत एक खास सीमा से अधिक बढ़ गयी और उसे राज्य के मातहत रहने की जरूरत नहीं रही, (विदेशी पूंजी को भी मदद लेने की जरूरत पड़ी ताकि देशी स्रोतों का भरपूर शोषण किया जा सके), तो शुरू हुआ ‘सुधार’ का दौर, जो आवश्यक रूप से पूंजी के मोटा होने के लिए किया जाता है, चाहे वह अमेरिका में हो या हमारे यहाँ या फिर, ग्रीस, फ़्रांस, चीन या रूस में.
फासीवाद हर जगह दिख रहा है, चाहे राज्य या इसके विभिन्न अंग में हो या समाज में. गौ रक्षक, हिन्दू सेना, बजरंग दल, आरएसएस आदि इसके अंग हैं, जिसे आज की सत्ता पैसे, पुलिस, अर्ध सेना, प्रशाषण आदि का संरक्षण है.
मारुती उद्योग के मजदूरों और अपंग साईं बाबा को आजीवन कारावास भी बढ़ते फासीवाद का ही एक उदहारण है. गाँव, कस्बों तक में यह दिख रहा है.
अल्पसंख्यकों, दलितों को देखें. एक भय व्याप्त है. रोजगार की कमी, छिनती जमीन, सिकुड़ते जंगल जहां हजारों वर्षों से आदिवासी रह रहे थे, घटती क्रय शक्ति और ऊपर से फासीवाद के टुकड़े पर पलने वालों का आक्रमण!
शहर या गाँव में, जो ऊँची जाति से हैं, मध्य वर्ग के हैं, उनके ऊपर यह भय अभी नहीं दिख रहा है, पर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी? मंझले और छोटे वर्गीय व्यापारियों को देखें. उनका भी सर्वहाराकरण हो रहा है. आखिर 7% से अधिक जीडीपी कहाँ जा रहा है?
इस बीच वित्त पूंजी का आकार बढ़ रहा है. सेंसेक्स अपना पुराना रिकॉर्ड तोड़ रहा है. पर क्या मजदूर वर्ग बढ़ रहा है? समाजवाद के खिलाफ कुँए के मेढक तर्क देते हैं की मध्यम वर्ग बड़ा हो रहा है, सर्वहारा क्रांति अब संभव नहीं है. चीन भी उदहारण है इनका, इस तर्क के समर्थन में. 2008 याद है ना? ज्यादा बड़ा आर्थिक गिरावट आहट दे रहा है.
एक उदहारण देना आवश्यक है.
तकरीबन 3 साल पहले 1% पूंजीपतियों, वित्तीय संस्थानों के पास भारत के उतने धन थे जो 48% भारतीय के पास थे, अब उसी 1% के पास उतना है, जो 53% के पास हैं! धन का संकेन्द्रीयकरन बढ़ रहा है.
इस आंकड़े को विश्व स्तर पर भी देखा जा सकता है. 1 साल पहले करीब 68 लोगों के पास उतना था जितना आधे पृथ्वीवासी के पास, जो अब 8 लोगों के पास है. माध्यम वर्ग भले ही बढ़ा हो, पर उसका सर्वहाराकरण लगातार हो रहा है! यह एक प्रक्रिया है, ध्रुव सत्य नहीं.
दिखता है फासीवाद का असली रूप.
अमेरिका में ट्रंप का आना, फ़्रांस और यूरोप, युक्रेन में दक्षिणपंथीयों का काफी तेजी से बढ़ना, बढ़ते युद्द और तीसरे विश्व युद्ध की संभावना भी इसी का भयानक रूप है. आतंकवाद का ऐसा भयानक रूप पहले कभी नहीं दिखा. स्टीफेन हॉकिन्स (अपंग, भौतिकशस्त्र के महानतम वैज्ञानिक) ने कहा है कि मानवता को मशीनों से खतरा नहीं है बल्कि पूंजीवाद से है.
क्रन्तिकारी क्या करें?
जी हाँ, यह प्रश्न स्वाभाविक है. यहाँ यह सवाल प्रगतिशील ताकतों, युवकों और विद्यार्थियों के लिए भी बहुत महत्वपूर्ण है! मजदूर वर्ग, किसानों के लिए अति जरtरी है.
आज की स्थिति का एक सही विश्लेषण, एक ऐतिहासिक सन्दर्भ में जरूरी है. बदलते हालात में विश्लेषण भी बदलेगा, क्रांति का रास्ता भी बदलेगा, कौन सा वर्ग किस वर्ग के साथ सम्बन्ध बनाएगा, यही विश्लेषण तय करेगा. एक सही वैज्ञानिक और क्रांतिकारी राजनrतिक रास्ता तय होगा, जिसपर मजदूर वर्ग की अगुवाइ में क्रांति सफल हो सकता है.
आज जरुरत है फासीवाद के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग को प्रशिक्षित करना, उन्हें गोलबंद करना, हर फासीवादी चाल और कार्य का विरोध करना, वर्ग संघर्ष को तीव्र करना, राज्य सत्ता को हासिल करना, समाजवादी समाज स्थापित करना.
यह स्पष्ट है, जो भी हमारे साथ आयें इस आन्दोलन में उन्हें भी हमारे लक्ष्य से रूबरू करवाएं.
ध्यान रखें, कई धर्मनिरपेक्ष बुर्जुआ दल भी हमारे साथ आ सकते हैं पर उनका लक्ष्य पूंजीवादी समाज ही है, पर अब हम वापस फासीवाद का आधार पूंजीवाद हरगिज नहीं लाना चाहते, बल्कि इस दानव को, जो मेहनतकाश जनता के खून और पसीने पर फलता फूलता है, हमेशा हमेशा के लिए ख़त्म करना चाहते हैं!
मजदूर दिवस पर सभी क्रांतिकारियों, मजदूरों, किसानों को क्रान्तिकारी अभिनन्दन!
Web Title:The threat to humanity is not from machines but from capitalism: The growing steps of fascism and the strategy of revolutionaries


