महिलाओं का शोषण करने वाले को सजा, पीएम से था राजनीतिक संबंध!

  • 3 हज़ार अश्लील वीडियो, सन्न कर देने वाला सच!
  • "गौर से देखिए इस व्यक्ति को..."

नई दिल्ली, 4 अगस्त 2025: एक ऐसा मामला जो न सिर्फ कानून व्यवस्था, बल्कि हमारी राजनीति और मीडिया की संवेदनशीलता पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है – वह अब न्यायपालिका के फैसले के बाद फिर से चर्चा में है।

कर्नाटक के एक राजनीतिक नेता को हाल ही में अदालत ने महिलाओं के यौन शोषण और प्रताड़ना के मामले में दोषी करार दिया है। इस व्यक्ति के खिलाफ हजारों आपत्तिजनक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुए थे, लेकिन तब भी मुख्यधारा की मीडिया ने लगभग चुप्पी साधे रखी।

युवा पत्रकार और एंकर आंचल सिंह ने इस मुद्दे पर एक भावुक और तीखी प्रतिक्रिया दी है। उन्होंने कहा, "गौर से देखिए इस व्यक्ति को – प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसके लिए प्रचार किया था। कोर्ट ने इसे सजा सुनाई है क्योंकि इसने लगभग कई महिलाओं के साथ यौन शोषण किया।"

उन्होंने यह भी सवाल उठाया कि मुख्यधारा के संत, धर्मगुरु और सामाजिक नेतृत्व इस मसले पर चुप क्यों रहे? आंचल सिंह का कहना था कि ऐसे मुद्दों पर अक्सर "जो लोग समाज सुधार की बातें करते हैं, वे भी खामोश रहते हैं।"

प्रज्वल रेवन्ना को राजनीतिक संरक्षण पर भी उठे सवाल

प्रज्वल रेवन्ना की राजनीतिक पृष्ठभूमि और संबंधों को लेकर भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं। वह एक ऐसी पार्टी से था जो भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी है।

आंचल सिंह ने आरोप लगाया कि, "अगर इस मामले को राजनीतिक दुश्मनी के तहत न उठाया गया होता, तो शायद यह कभी सामने ही नहीं आता। सोचिए, अगर समझौता हो गया होता, तो यह आंकड़ा हजारों से लाखों तक पहुंच सकता था।"

न्याय मिला, लेकिन क्या पर्याप्त है?

इस मामले में फास्ट ट्रैक कोर्ट ने दोषी को सजा सुनाई है, लेकिन यह सवाल बना हुआ है कि इतने सालों तक यह शोषण कैसे चलता रहा और किसी ने आवाज़ क्यों नहीं उठाई?

मामला जितना गंभीर है, उससे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि मीडिया, राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों की चुप्पी ने इसे और बढ़ावा दिया।

क्या कहती है महिला कांग्रेस?

महिला कांग्रेस पहले से ही महिला सुरक्षा को लेकर न्याय मार्च जैसे आंदोलन चला रही है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि देशभर में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर सरकारें गंभीर नहीं हैं। इस मामले ने उनकी बात को और बल दिया है।

यह मामला हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम एक ऐसे समाज में रह रहे हैं जहां सत्ता और संबंध न्याय की राह में बाधा बनते जा रहे हैं? और क्या हमें अब एक ऐसी पत्रकारिता और राजनीति की ज़रूरत है जो सत्ता से ही नहीं, सच से सवाल करे?