हरियाणा के फरीदाबाद में दलित बच्चों की निर्मम हत्या – न्याय कब मिलेगा?

  • मनुस्मृति और वेदों के नाम पर हिंसा का औचित्य – क्या यह न्यायसंगत है?
  • दलितों और अल्पसंख्यकों पर बढ़ते अत्याचार – भारतीय लोकतंत्र की असफलता?
  • क्या धर्मग्रंथों में आततायियों के लिए समान न्याय का प्रावधान है?
  • फरीदाबाद हत्याकांड: जातिगत हिंसा और कानून की निष्क्रियता
  • भगाना से फरीदाबाद तक – कब रुकेगा दलितों पर अत्याचार?
  • भारत में जातिगत हिंसा और सामाजिक न्याय की विफलता
  • क्या कानून और संविधान दलितों को समान सुरक्षा प्रदान कर रहे हैं?

जाति आधारित हिंसा और राजनीतिक समर्थन – कब तक चलेगा यह गठजोड़?

हरियाणा के फरीदाबाद में दलित बच्चों की निर्मम हत्या ने फिर से जातिगत हिंसा और सामाजिक अन्याय को उजागर कर दिया है। क्या मनुस्मृति और वेदों के नाम पर होने वाली हिंसा को जायज ठहराया जा सकता है? जानें इस मुद्दे से जुड़ी पूरी सच्चाई और भारतीय कानून की भूमिका।

हरियाणा के फरीदाबाद में दलित-मासूमों की हत्या :

वेद और मनुस्मृति के बहाने राजनीति करने वाले राजनीतिक-सांस्कृतिक विचार और व्यवहार की जमीन बंजर है :

इन्हें दलित, मजलूम, मासूम से प्यार क्यों आये?

“गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्। आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन।। नाततायिवधे दोषो हन्तुर्भवती कश्चन। प्रकाशं वाप्रकाशं वा मन्युस्तं मन्युमृच्छति।। ”

“मनुस्मृति (8.351).

इसके मायने हैं “चाहे गुरु हो, चाहे पुत्र आदि बालक हो, चाहे पिता आदि वृद्ध हो, और चाहे बड़ा भरी शास्त्री ब्राह्मण भी क्यों न हो, परन्तु यदि वह आततायी हो और घात-पात के लिए आता हो, तो उसे बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए। क्योंकि प्रत्यक्षरूप में सामने होकर व अप्रत्यक्षरूप में लुक-छिप कर आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता”

यह बात कहने के पीछे एक बड़ा कारण है हरियाणा के फरीदाबाद इलाके में गाँव में रहने वाले एक दलित परिवार को जलाकर मार दिया गया. दो मासूम बच्चे जलकर मर गये एक की उम्र ढाई साल और दूसरे की उम्र ११ महीने थी. इन्हें अगड़ी जाति के लोगों ने घर में आग लगाकर मार डाला. यह आतताई और नृशंस संहार नहीं कहा जाय तो इसे और क्या कहना ठीक होगा?

अगर अदालतें आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग में जीने को मजबूर दलितों और अल्पसंख्यकों को हिन्दू लॉ यानी हिन्दू धर्मग्रन्थों के अनुसार अपराधी घोषित करती हैं और वर्णव्यवस्था को मानने वाला समाज भी हिन्दू धर्मग्रन्थों को मानने के लिए धार्मिक और कानूनी रूप से बाध्य है तो हर व्यक्ति को लोकतंत्र में धर्मग्रन्थों का पूरा सच जानने का अधिकार है. दलितों और अल्पसंख्यकों को भी इन धर्मग्रंथों के भीतर दिए गये आदेश को जानना चाहिए साथ ही धार्मिक-लोकतांत्रिक बातों को अवश्य मानना चाहिए. लोकतंत्र में कानून इस बात की इजाजत भी देता है कि हर धर्म के लोग अपने ग्रंथों को मानें. धर्मनिरपेक्ष राज्य होने के कारण धर्म से जुड़े मामलों में राज्य के हर नागरिक को पूरी छूट मिली है. इन बातों से यह बिलकुल स्पष्ट है दलितों, अल्पसंख्यकों, औरतों को यह जानने का हक़ है कि आतताइयों के साथ धर्म के अनुसार कैसा सुलूक किया जाय?

मनुस्मृति के अनुसार आततायी को बिना विचार तत्क्षण मार डालना चाहिए. आततायी को मारने में, मारने वाले का कोई दोष नहीं होता. अगर दलितों की हत्या आततायियों ने की है तो दलित वर्ग को यह हक़ है कि वह भी कानूनी तौर पर अपने धर्मग्रन्थों की बात माने. क्योंकि कानून में इस बात की इजाजत मिली हुई है. शायद आततायियों के लिए कानून में कोई धारा इसी कारण बहुत साफ़ नहीं दी है. अतः बहुसंख्य अगड़ों (आततायियों) के द्वारा “एक्ट नाउ फॉर हॉर्मनी एंड डेमोक्रेसी’ के अनुसार 2014 में मई से साल की समाप्ति तक धर्म से प्रेरित हमलों की 800 से अधिक घटनाएं हुईं।“ चूंकि हर घटना में धर्म एक महत्वपूर्ण वजह रहा है जिसके कारण लगभग हर मामले में कानून ने किसी तरह की सख्ती आतताइयों के लिए अब तक नहीं दिखाई है. क्योंकि धर्म ने तो आतताइयों के लिए कानून से पहले ही सजा तय कर दी है मगर अब तक किसी अल्पसंख्यक समुदाय और दलित वर्ग ने इन आतताइयों की हत्या धार्मिक ग्रन्थों में लिखी जानकारी न होने के कारण नहीं की है.

अगर आतताई अगड़ा है और आर्थिक रूप से कमजोर तबके से ताल्लुक रखता है ऐसे आतताइयों को अगर किसी तरह से राज्य का संरक्षण नहीं मिला है तो लोकतांत्रिक कानून इन्हें पकड़ने में विलम्ब भले ही करे मगर उनकी गिरफ्तारी करने में तनिक मुस्तैदी जरूर दिखाई देती है. इसी के बरख्स जो आतताई सत्तातंत्र के साथ हैं और राज्य उन्हें संरक्षण दे रहा है वे धर्म की आड़ में औरतों के साथ बलात्कार कर रहे हैं, मुसलमानों की हत्या कर रहे हैं, दलितों के घरों में आग लगाकर हत्या कर रहे हैं, आदिवासियों को उनकी पुश्तैनी जमीन से खदेड़कर बेदखल कर रहे हैं. ऐसे आततायियों को वेदों में छः प्रकार से चिन्हित किया गया है- १.विष देने वाला, २.घर में आग लगाने वाला, ३.घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, ४.धन लूटने वाला, ५.दूसरे की भूमि हडपने वाला, ६.पराई स्त्री का अपहरण करने वाला. इसके निदान के लिए वेदों में यह भी कहा गया है कि ऐसे आततायियों का वध तुरंत कर देना चाहिए क्योंकि इनके वध से कोई पाप नहीं लगता.

हरियाणा का इतिहास इस बात का गवाह है कि यह क्षेत्र हिन्दुस्तान का ऐसा हिस्सा है जिसमें महान इतिहास और कई युगों की महान सभ्यताएं, संस्कृतियाँ और दुनिया में अपनी पहचान बनाने वाली ऐतहासिक लड़ाइयां दर्ज हैं. वैदिक सभ्यता और सिन्धु घाटी सभ्यता की पहचान हरियाणा की मिटटी में घुली-मिली है. यह जमीन इतिहास में दर्ज पानीपत की तीन लड़ाइयों की गवाह है. आधुनिक युग में हरित क्रान्ति के लिए इस मिटटी को फसल और दूध पैदा करने का गौरव भी मिला है. चाहे महाभारत का कुरुक्षेत्र युद्ध हो या फिर कृष्ण की भगवत गीता का वादन सबकुछ इसी मिटटी में रमा हुआ है

श्रीमद्भागवत गीता में भगवान तक दुराचारियों का वध करने के लिए उद्धत थे. अतः दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं को इस बात के लिए चिंता नहीं करनी चाहिए कि आततायियों को मारकर वे कोई अपराध कर रहे हैं. इक्कीसवीं सदी की रनभूमि में एक तरफ आततायी हैं जिन्हें राज्य की सत्ता और प्रशासन तंत्र का समर्थन मिला हुआ है दूसरी तरफ ऐसे समुदाय हैं जिन्हें धर्म का साथ निभाने के लिए केवल सत्य और धर्म उनके पास है. और सत्य-धर्म की रक्षा के लिए रणभूमि में आततायियों के सामने इन वर्गों की युद्ध-कुशलता व बौद्धिक प्रशिक्षण ही उनके धारदार हथियार हैं. आतातायियों ने इस मिटटी में धार्मिक उन्माद का आतंक मचा रखा है. इसे गौर से समझने की जरूरत है.

यहाँ पर जाति तथा कुटुंब के बीच मजहबी रंजिश का जहर बोया गया है. इसी मजहब के समक्ष राज्य की ताकत से संपन्न आततायी खड़े हैं इसी मजहब के सामने तमाम कमजोर तबके और जातियां खड़ी हैं. इन जातियों और मजहब के बीच जो गैरबराबरी और हिंसा के विचार धर्म की ओट में लाकर रखे गये हैं उनसे घबराने की बजाय मुकाबला करने की जरूरत पैदा हो चुकी है. मई २०१४ से लेकर अक्टूबर २०१५ तक महाराष्ट्र, हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, पंजाब, आदि तमाम राज्यों में दलित उत्पीडन के अनगिनत मामले दर्ज हुए हैं

भारतीय कानून एक तरफ कहता है कि “संविधान के अनुच्छेद १४, १५, १९(१) और २१ में दर्ज किये गए मौलिक अधिकारों के जुडा हुआ है. ये प्रावधान कहते हैं कि भारत में रहने वाले व्यक्ति के साथ समानता का व्यवहार, आजीविका अर्जित करने, शोषण से मुक्ति पाने और सम्मानजनक जीवन का अधिकार है. यह राज्य (स्टेट) का दायित्व है कि वह इन अधिकारों का संरक्षण करे.” दूसरी तरफ राज्यतन्त्र द्वारा “दलित उत्पीड़न के मामलों (हत्या, बलात्कार, गंभीर चोट , आगजनी,लूटपाट, अपमान, बेगारी, मतदान से वंचित करने, मार्ग रोकने, गांव-घर छोड़ने पर विवश करने आदि) में सरकार द्वारा आर्थिक सहायता देने का प्रावधान है. भारत सरकार की अधिसूचना जारी होने की तिथि ( २३ दिसंबर २०११) से राहत रशि में भी वृद्धि कर दी गई है. नए संशोधन के मुताबिक़ दलित महिला की लज्जा भंग होने पर प्रत्येक पीड़ित को १.२० लाख रुपये देने का प्रावधान है. इसमें ५० फ़ीसदी राशि जांच के तुरंत बाद तथा शेष ५० प्रतिशत मामले की जांच समाप्त होने पर देने का प्रावधान है.”

यह दो विरोधी बाते हैं. जोकि एक ही कानून में दर्ज हैं. अगर पहली बात कानून सम्मत सही है तो ऐसे मामले में दूसरी बात के लिए कानून ने आर्थिक सहायता देने के प्रावधान को लागू करने वाली राज्य सरकारों को स्वतः संज्ञान में लेकर संविधान की मूल अवधारणा के साथ अवमानना मानकर चुनौती क्यों नहीं दी? अगर दूसरी बात सही है तो संविधान ने पहली बात को किन आधारों पर लागू किया है? इस बात का खुलासा होना चाहिए. अगर दोनों बाते ठीक हैं तो धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार और सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार मानने वाले सभी समुदायों में ताकतवर और अगड़े समुदाय को राज्य द्वारा धार्मिक उन्माद, आतंक, हिंसा के लिए विशेषाधिकार और संरक्षण देने के पीछे मंशा क्या है? इस बात को भी बताया जाना चाहिए.

‘‘जो लोग मुल्क मे फसाद करने को दौड़ते फिरें, उनकी यह सजा हैं कि कत्ल कर दिए जाएं या सूली चढ़ा दिएं या उनके एक-एक तरफ के हाथ और एक-एक तरफ के पांव काट दिए जाएं। यह तो दुनिया में उनकी रूसवार्इ हैं और आखिरत (यानी कियामत के दिन) में उनकी रूसवार्इ हैं और आखिरत (यानी कियामत के दिन) में उनके लिए बड़ा (भारी) अजाब (तैयार) हैं।

हां, जिन लोगो ने इससे पहले कि तुम्हारे काबू आ जाएं, तौबा कर ली, तो जान रखो कि खुदा बख्शनेवाला, मेहरबान हैं। ‘‘ (कुरआन, सूरा-5, आयत-33, 34)

अगर हिन्दू और इस्लाम धर्म में एक ही दंड व्यवस्था आततायी होने के गुनाह में सुनाई गई है. तो फिर वो लोग कौन हैं जो हिन्दू और इस्लाम के बीच रंजिश पैदा करते हैं? वो लोग कौन हैं जो दलित और मुसलमान को ही अपने हमलों का शिकार बनाते हैं? वो लोग कौन हैं जो आगजनी, दंगों को अंजाम देते हैं? वो लोग कौन हैं जो कमजोर तबके की महिलाओं के साथ बलात्कार करते हैं. जाहिर है वो तमाम आततायी मजलूमों पर हर तरह की हिंसा के बाद आर्थिक सहायता देकर अपने वर्गहित की चिंता में लगे रहते हैं. और अधिक राजनीतिक ताकत और संपत्ति के लिए सुरक्षित तरीके ईजाद करते हैं. और मजलूमों के इन्साफ की मांग को खारिज कर देते हैं.

इसी तरह का एक मामला हरियाणा राज्य में हिसार के भगाना में 21 मई 2012 को गांव के दलितों का दबंगों से विवाद के बाद सामने आया था। दबंगों ने दलितों को जमीन से बेदखल करके गाँव से बाहर निकाल दिया था. दबंगों ने गांव के खेल मैदान में दलित परिवारों के बच्चों के प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगा दिया था और जो चार परिवार गाँव छोडकर नहीं गये उनके घर की लड़कियों के साथ २३ मार्च २०१४ को बलात्कार करने के बाद बेरहमी से हत्या करके पेड़ पर टांग दिया गया. भागना रेप काण्ड और जमीन छिनने के मामले में इन्साफ न मिलने से हरियाणा में १०० दलित परिवारों ने तीन साल तक धरना प्रदर्शन करने के बाद अगस्त २०१५ इस्लाम क़ुबूल कर लिया था.

२०१४-१५ में दलितों पर हुए उत्पीडन और इन्साफ के मामलों में राज्य, संविधानसम्मत फैसला करने में अक्षम रहा है. मगर राज्य सरकारें अब तक किसी मामले में न तो दोषी करार दी गईं न ही उन्हें किसी तरह का दंड दिया गया. दादरी से लेकर हरियाणा के इस मामले में न ही राज्य के सत्तातंत्र को कोई नुकसान पहुंचा. न ही प्रशासन को किसी तरह के नुकसान का सामना करना पड़ा. जुल्म के खिलाफ विरोध में हिंसा क्यों नहीं आई? जबकि आततायी हिंसक थे. आतताइयों की हिंसा और हत्या की राजनीति करने वाले साम्प्रदायिक और अराजक थे. और ये अभी राज्य के संचालन में पूरी तरह शामिल लोग थे. ऐसा कैसे होता है कि जिस पर हिंसा हुई है वह अहिंसात्मक विरोध करे और जिसने हिंसा की है वह और अधिक हिंसक होकर प्रहार करे? जाहिर है कानून की लचर और गैरबराबरी भरी कार्रवाई के चलते ऐसा होता आया है.

इस तरह के अनेकों मामलों में कानून अपना काम करता है, धर्म अपना काम कर रहा होता है, राज्य और तंत्र अपना काम करता रहता है. ये सभी बिना किसी असह्मती के अपने पक्ष में तर्क और विचार जुटाए अपनी अपनी तरक्की और हिफाजत के लिए एकमत हैं. संसाधनहीन और आर्थिक तौर पर कमजोर तबके खासकर दलित और महिलायें स्वच्छ भारत अभियान के साथ संस्कृति, धर्म और न्यायव्यवस्था में चिपकी गंदगी की झलक सी दिखाई देती हैं इन्हें संघ, अधिनायक और कानून हर तरीके से गंदगी साफ़ करने में सदियों से जुटे हुए हैं.

इक्कीसवीं सदी के डिजिटल इण्डिया के आईने में हिन्दुस्तान के भीतर दलित और शोषित तबके की सूरत कुछ ऎसी दिखाई दे रही है- NCDHR, के मुताबिक़ हर १८ मिनट में दलितों के साथ उत्पीडन की घटनाएँ सामने आ रही हैं. हर हफ्ते १३ दलितों की हत्या हो रही है. हर हफ्ते कम से कम ६ दलितों का अपहरण और उत्पीड़न हो रहा है. हर रोज़ कम से कम तीन दलित महिलायें बलात्कार की शिकार हो रही है. २७ दलितों को हर दिन तमाम तरह की हिकारत और प्रताड़ना सहनी पड़ती है.

ऐसे में धर्म कानून और राज्य की भूमिका के बारे में स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि धर्म, राजनीति और व्यापारिक अनुबंध के बिना लोकतांत्रिक सरकार या ताकतवर साम्राज्य नहीं बन सकता है. जो केवल धर्म तक सीमित है धर्म जहां राजनीति और व्यापार से अलग और अकेला है वहां यह धार्मिक वर्ग धार्मिक निजी तौर से मान्यताएं जी सकता है समुदाय/सम्प्रदाय/संगठन/संघ चला सकता है मगर साम्राज्य नहीं चला सकता. लोकतांत्रिक सरकार तो कतई नहीं. जहां केवल राजनीति है वहां भी बिना धर्म और व्यापारिक सम्बन्ध के साम्राज्य नहीं हासिल किया जा सकता. जहां केवल व्यापार है वहां भी बिना धर्म और राजनीतिक गठबंधन का साथ लिए साम्राज्य नहीं चलाया जा सकता. राज्य सरकार चाहे धर्मनिरपेक्ष रही हों या फिर कट्टर हिन्दू धर्म की समर्थक बिना तीनों के संतुलन और सामंजस्य के हुकूमत नहीं कर सकतीं. इसे विरुद्धों का सामंजस्य भी नहीं समझना चाहिए. ऐसे में कानून केवल धर्म, व्यापार और राजनीति की हिफाजत करने में ही सक्षम है. उसका योगदान आम आदमी की हिफाजत और हक़ को बचाने में इन तीनों के मुकाबले कमतर ही बना रहेगा.

क्या धर्म, राजनीति और व्यापार करने वाले ताकतवर समुदाय में कभी हत्या, बलात्कार, गंभीर चोट , आगजनी,लूटपाट, अपमान, बेगारी, मतदान से वंचित करने, मार्ग रोकने, गांव-घर छोड़ने पर विवश करने आदि की संभावनाएं दशमलव एक प्रतिशत भी ठीक वैसी ही हैं जैसी दलितों और जनजातियों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के साथ हैं? अगर ऐसा नहीं है तो कानून की हिदायतें और हिफाजत की दफाएँ किनके लिए बनाई गई हैं? अगर आर्थिक रूप से कमजोर दलित और अल्पसंख्यक, महिलायें और आदिवासी मिलकर इन आभिजात्य और भद्रलोक में रहने वाले तबकों पर वैसा ही सुलूक करने का प्रयास करें तब सोचिये कैसा कोहराम पैदा होगा? आंतरिक युद्ध की घोषणा होने में तनिक भी देर न लगेगी. इसलिए अगर हमलावर साम्राज्य से लड़ना ही है तो इन कमजोर तबकों को कभी न कभी तो एकजुट होना ही होगा.

हरियाणा के फरीदाबाद इलाके में दलित-मासूमों की हत्या से जाहिर है कि वेद और मनुस्मृति के बहाने राज्य करने वाले राजनीतिक-सांस्कृतिक विचार और व्यवहार की जमीन बंजर है : इन्हें दलितों, मासूमों से प्यार क्यों आये?

- डॉ. अनिल पुष्कर

डॉ. अनिल पुष्कर, पोस्ट डॉक फेलो, इलाहाबाद विवि.