संजीव ‘मजदूर’ झा

हमारे समाज का यथार्थ स्पष्ट रूप में सिर्फ़ महिला-विरोधी ही नहीं बल्कि असलियत में मानवता के विरोध में है. जो पुरुष पुरुषवादी मानसिकता के आधार पर महिला-शोषण को शुरू से ही तवज्जो नहीं देते और जो पुरुष सिर्फ़ अपने घर की महिलाओं की सुरक्षा तक ही सीमित हैं, ये दोनों किस्म के लोग अपने-अपने स्तर पर उन तंत्रों के नजदीक ही हैं जो महिला-विरोधी है. किसी भी समाज में उस समाज की त्रासदी का सबसे खौफ़नाक मंजर महिलाओं और बच्चों पर ही पड़ता है इसका जीता-जागता उदहारण औपनिवेशिक दौर का इतिहास है. भारतीय समाज में इस तरह की लगातार स्त्री-विरोधी घटनाएँ यह भी रेखांकित करती है कि देशभक्ति और राष्ट्रवाद के नारों की आड़ में समाज को कहाँ धकेला जा रहा है. विकास के नाम पर सत्ताएं ऐसा खेल पहले से भी खेलती आ रही है.

इस तरह की स्थिति सोनी सोरी और पद्मा समेत सैंकड़ों केस में हम देख चुके हैं. हाल फिलहाल में रागिनी दुबे और दंतेवाड़ा में अभी-अभी सी.आर.पी.ऍफ़ द्वारा छेड़-छाड़ की घटना. ये घटनाएँ तो अपनी जगह हैं हीं साथ ही इसके पक्ष-विपक्ष में जो प्रतिक्रियाएं उभर रही हैं यह और भी चिंता का विषय है. गुरमेहर कौर और अब वर्णिका कुंडू के प्रतिवाद पर जो प्रतिक्रियाएं हैं इसके सभी पक्षों पर ध्यान देना भी आवश्यक हो उठा है. उस दिन को गुजरे अभी अधिक दिन नहीं हुए जब रेप की घटना पर कहा गया— ‘गायत्री मंत्र का प्रयोग किया जाना था’ या लड़कियां खुद जिम्मेवार हैं इन घटनाओं के लिए. यह मानसिकता तो यथावत बनी हुई है. दुर्भाग्यवश कनक जैसी स्त्रियाँ भी इस तरह की मानसिकता के लपेटे में आ जाती हैं.

कहते हैं हमारी भाषा का गहरा संबंध हमारी संस्कृति से है तो फिर कृष्ण-कल्पित की भाषा किस संस्कृति का विकास कर रही थी और उस संदर्भ को आज वर्णिका कुंडू से जोड़कर अनिल जनविजय क्या यह लिखकर अपना वास्तविक पक्ष नहीं साबित कर रहे हैं कि—“वे औरतें अब कहाँ हैं जो कल्पित को गालियाँ दे रही थीं? अब वे इन लफंगों और मवालियों के विरुद्ध पोस्ट क्यों नहीं लिख रहीं?”

तो क्या जनविजय जी की यह भाषा आपसी प्रतिद्वंदिता की भेंट चढ़ते नजर नहीं आ रही? क्या यह जरुरी नहीं कि इस वाहियात तंत्र की आलोचना में एकजुटता दिखाने की जरुरत को महसूस किया जाए? शायद उनके लिए नहीं. हाँ ऐसा नहीं है कि वे यह कह रहे —महिलाओं के साथ ऐसा होना चाहिए. लेकिन वे जिन महिलाओं को प्रतिरोध के लिए ललकार रहे हैं, अपनी सीमाओं में ही सही पर प्रतिरोध तो वे कर ही रही हैं. जनविजय भी यह भ्रम पाले होंगे, पालना चाहिए. लेकिन उन्हें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस सूक्ष्म दृष्टि का प्रयोग वे आलोचना करते वक़्त करते हैं उसका प्रयोग उनपर भी किया जा सकता है. और यदि ऐसा ही है तो जब उन्होंने इस घटना पर यह लिखा कि—“ मैं उस देशभक्त की भी हत्या कर दूंगा जो मेरी बेटियों, बहनों, भतीजियों, भांजियों को उनकी मर्जी के बिना छूने की कोशिश करेगा.”

अच्छी बात है स्त्री हक़ में आपका बयान आंदोलनकारी है लेकिन इससे वे महिलाएं कम आन्दोलनकारी नहीं हो जाती हैं जो अपने घर के अलावा भी किसी और की भी भांजी, बहनों और बेटियों के लिए लिखती हैं, लड़ती हैं. आपके बयान तो ‘मैं’ और ‘मेरा’ बोध लिए काफी व्यक्तिगत लगता है. अब कृप्या यह मत कह दीजिएगा कि आपके ‘मैं’ या ‘मेरे’ कहने को मैंने विस्तार में उसका अर्थ ग्रहण नहीं किया है. यह व्यक्तिकता ही तो है जब आप कल्पित जी पर प्रश्न नहीं करके उन महिलाओं पर करते हैं जो अपनी लड़ाई अपने तरीके से लड़ रही होती हैं. आप गुरमेहर कौर और अभी वर्णिका के प्रतिरोधी सुर में सुर मिलाते उन्हीं स्त्रियों की आवाज क्यों नहीं सुन पाते जो कल्पित की भाषा के विरोध में भी बेसुरी नहीं थी. साथ ही ‘हत्या करना’ एक और समस्या ही तो है.

इस संदर्भ में इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि इस मसले को किसी ‘कुंडू’ जाति से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए. साथ ही खाप पंचायत का सहयोग वास्तव में इस लड़ाई की व्यापकता को भी संकीर्ण कर सकता है. इसलिए यह जरुरी है कि एक स्वस्थ सोच के साथ इस लड़ाई को जातिगत आधार जैसे खापों से दूर रखा जाए. लेकिन हम इन जरूरी और महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर तब तक कैसे विचार कर सकते हैं जब तक कि व्यक्तिकता के खांचे से हम स्वयं को आजाद नहीं कर लेते.

मैं यह नहीं कहता कि स्त्री-आंदोलन या उनकी सृजनात्मकता पर प्रश्न नहीं किए जा सकते हैं. जरूर किए जा सकते हैं और किया जाता भी है साथ ही उनके पास यह गहरी समझ है भी कि कौन से प्रश्न ‘स्त्री-प्रतिरोध’ के हित में उठाए जाते हैं और कौन से स्वहित में?

मैं स्त्रियों को आदर्श रूप में भी देखने की वकालत नहीं करता हूँ. साथ ही इस अनुभव से भी गुजर चुका हूँ कि स्त्री-अधिकारों का दुरूपयोग कर कैसे जीना मुश्किल कर दिया जाता है. लेकिन इसके साथ ही मैं यह जरुर कहना चाहूँगा कि—उन अधिकारों के दुरूपयोग में भी अधिकांशतः पुरुषवादी सत्ता की घुसपैठ ही होती है जो परुष प्रधान समाज में यह तर्कों के साथ स्थापित कर सके कि किस प्रकार स्त्रियाँ ‘तिरिया-चरित्र’ ही होती हैं. मैं ऐसे लोगों को भी जानता हूँ जिन्होंने इस तरह की घटनाओं से विचलित होकर कभी स्त्री-विरोधी कार्य नहीं किया है.

सवाल यह है कि क्या हम अपने समय और समाज से कटते नहीं जा रहे हैं? क्या इस नव-उपनिवेशवादी माहौल में हमें इतनी आसानी से समस्याओं के कारणों का पता चल जाता है? नहीं. हमें गंभीरता के साथ इसपर विचार करने की जरुरत है. साथ ही रचनात्मक आलोचना की भी जरुरत है.

वर्णिका यदि साहस के साथ यह कहती है कि—“ WHY SHOULD I HIDE? I AM THE SURVIVOR, NOT THE ACCUSED” तो हमें इस साहस को स्वीकार करते हुए साथ ही उन स्त्रियों का भी सम्मान करना चाहिए जो आज इन मसलों पर किसी से डरती नहीं बल्कि खुलकर पक्ष में खड़ी हो जाती हैं.

स्थितियां वीभत्स हो रही हैं और ऐसी स्थिति में हमें समग्रता में यह विश्लेषण करना होगा कि हमारे समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक कैसे आंदोलनों को जोड़ना होगा ताकि समग्रता में स्त्री-अधिकारों को लेकर यह लड़ाई परवान चढ़ सके सिवाय इसके कि हम मौका ढूंढते रहे कि कब इनकी भर्त्सना की जा सके. स्वाभाविक है यदि आप उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई नहीं मानते तो फिर उनके तौर-तरीकों के आलोचनात्मक लोकतांत्रिक अधिकार को भी आप खो देते हैं.