क्या राष्ट्रपति शासन मणिपुर में स्थिरता ला पाएगा?
एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा: कारण और राजनीतिक प्रभाव मणिपुर में राष्ट्रपति शासन क्यों लागू किया गया? क्या राष्ट्रपति शासन मणिपुर में स्थिरता ला पाएगा? जातीय संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता का प्रभाव मणिपुर में आगे क्या होगा? संभावित परिदृश्य मणिपुर में 13 फरवरी 2025 से राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है ! मुख्यमंत्री एन. बीरेन...

Will President’s rule bring stability to Manipur?
एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा: कारण और राजनीतिक प्रभाव
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन क्यों लागू किया गया?
क्या राष्ट्रपति शासन मणिपुर में स्थिरता ला पाएगा?
जातीय संघर्ष और राजनीतिक अस्थिरता का प्रभाव
मणिपुर में आगे क्या होगा? संभावित परिदृश्य
मणिपुर में 13 फरवरी 2025 से राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है ! मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह के इस्तीफे के बाद राज्य में शांति और सुरक्षा की उम्मीद बढ़ी है, लेकिन क्या इससे मणिपुर की राजनीतिक अस्थिरता खत्म होगी? जातीय संघर्ष, कुकी-मैतेई विवाद, और भाजपा सरकार की चुनौतियों पर गहराई से विश्लेषण और पूरी जानकारी के लिए पढ़ें मिजोरम विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर डॉ सुवालाल जांगु का यह लेख!
मणिपुर में राष्ट्रपति शासन: शांति, सुरक्षा और स्थिरता को लेकर उम्मीदें
मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा और उसके बाद राष्ट्रपति शासन लागू होना देर से हुआ और इससे बहुत कम उम्मीद जगी। अगर बिरेन सिंह और केंद्र सरकार पिछले 21 महीनों से राज्य में चल रही अशांति और हिंसा की जिम्मेदारी स्वीकार करे तो कुछ उम्मीद जग सकती हैं। केंद्र ने एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा राजनीतिक दबाव के चलते स्वीकार करना पड़ा हैं। भाजपा को केंद्र में एनडीए के सहयोगियों के साथ-साथ असंतुष्ट विधायकों और सत्तारूढ़ पार्टी के सहयोगी एनपीपी और एनपीएफ से बढ़ते दबाव का सामना करना पड़ा। हालांकि, मणिपुर के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि केवल मुख्यमंत्री के इस्तीफे और उसके बाद राष्ट्रपति शासन से राज्य में स्थिति नहीं बदलेगी। एन. बीरेन सिंह को लेकर भाजपा विधायकों में असंतोष स्पष्ट है, हाल ही में उनके भीतर विद्रोह के संकेत मिले हैं। इसके अलावा, एनपीपी, एनपीएफ और जेडी( यू) जैसे गठबंधन दल भी सिंह से असन्तुष्ट थे। एन. बीरेन सिंह का इस्तीफा और राष्ट्रपति शासन का उद्देश्य मणिपुर पर भाजपा का नियंत्रण खोने से रोकना प्रतीत होता है। भाजपा विधायकों को जनता की नाराजगी का सामना करना पड़ रहा था और अंततः पार्टी को अपनी छवि बचाने के लिए यह कदम उठाना पड़ा।
24 जनवरी को, सभी मैतेई विधायक और एमपी को आरामबाई टेंगोल ने इंफाल के कांगला किले में बुलाया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को छोड़कर सभी 38 विधायक और 2 सांसद इस बैठक में शामिल हुये थे। इन सभी ने मणिपुर की राजनीतिक अखंडता और मैतेई समुदाय की एकता को बनाए रखने की शपथ ली। इस बैठक के दौरान एन बीरेन सिंह के इस्तीफे और राज्य की भावी राजनीतिक रणनीति की पटकथा तैयार की गई। इस बैठक के कारणों में शामिल थे:
1. नगा संगठन, यूनाइटेड नगा काउंसिल (यूएनसी) के दबाव में 7 जिलों को खत्म करने की मांग की गई। (यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि इबोबी सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने दिसंबर 2016 में मणिपुर में 7 नए जिले बनाये थे। नगा समुदाय इन नए जिलों से असंतुष्ट है, क्योंकि इनमें से कुछ प्रस्तावित संयुक्त नगालैंड क्षेत्र से बाहर हैं और कुकी और मार समुदायों के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।)
2. इन जिलों को रद्द करने के लिए जनवरी में यूएनसी, मणिपुर सरकार और मैतेई संगठनों के बीच त्रिपक्षीय सहमति बनी थी।
3. इस आम सहमति को लागू करने से नागा-कुकी संघर्ष फिर भड़क सकता है, क्योंकि मणिपुर में जिला-सीमाएं एक बहुत ही संवेदनशील मुद्दा है।
4. एन.बीरेन सिंह मणिपुर में सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत कर रहे थे जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।
5. आरम्बाई तेंगोल और उसके सहयोगियों के बीच मतभेद उभर आये थे। तेंगोल और यूएनएलएफ (मेइती का एक उग्रवादी संगठन) के बीच एक समझौता हुआ।
6. पार्टी के विधायकों ने एन बिरेन सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल रखे थे और साथ में एनपीपी और एनपीएफ जैसे सहयोगी दलों में भी सिंह के नेतृत्व से नाखुश थे।
7. मणिपुर की स्थिति को लेकर केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा पर घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों तरह का दबाव था।
कंगला फोर्ट में बैठक के दौरान एन बीरेन सिंह के इस्तीफे के संबंध में एक सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए गए जिससे मैतेई विधायकों और सांसदों के बीच राजनीतिक एकता मजबूत हुई और समुदाय के भीतर विभिन्न संगठनों के बीच आम सहमति बनी।
पिछले साल 10 दिसंबर को मणिपुर से बीजेपी के 7 विधायक (कुकी समुदाय के) ने नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर काले मास्क पहनकर मौन धरना दिये थे। दिसंबर 2024 में एनडीए के सहयोगी दलों ने भी एन. बीरेन सिंह की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। नगा संगठनों ने केंद्र सरकार को अल्टीमेटम जारी कर मांग की कि 2015 के नगा शांति समझौते को 26 जनवरी से पहले सार्वजनिक किया जाए और इसके क्रियान्वयन के लिए केंद्र और राज्य की भाजपा सरकार पर लगातार दबाव डाल रहे थे। राज्य सरकार ने सशस्त्र संगठनों के खिलाफ केवल सतही कार्रवाई की है, जिससे चल रही हिंसा और अशांति में कोई बदलाव नहीं आया है। केंद्रीय सुरक्षा बलों को भी मैतेई और कुकी समुदायों के बीच संतुलन बनाए रखने में संघर्ष करना पड़ा है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी तैनाती और कार्रवाई में पक्षपात की धारणा बनी है।
दोनों समुदायों के युवा संगठन हथियारयुक्त और सांप्रदायिक हो गये हैं, गुरिल्ला शैली के संघर्षों में संलग्न हैं। मणिपुर में वर्तमान में सशस्त्र युवा संगठनों की एक समानांतर प्रशासन चल रहा है। कुकी समुदाय ने अलग प्रशासन के लिए अपनी व्यवस्था स्थापित कर ली है, यह मानते हुए कि यह एक स्थायी समाधान है। इसके विपरीत, मेइती समुदाय पहाड़ी क्षेत्रों में अवैध कुकी बसने वालों को हटाने और सीमा पर बाड़ लगाने की मांग करता है। जबकि कुकी समुदाय एक अलग प्रशासनिक व्यवस्था चाहता है| तथाकथित "डबल-इंजन सरकार" अवैध बसने वालों की पहचान करने और उनका हिसाब रखने में विफल रही है| सीमा के केवल 30 किलोमीटर की दूरी पर बाड़ लगाने में कामयाब रही है। हिंसा के कारण विस्थापित व्यक्तियों का अभी तक पुनर्वास नहीं किया गया है, और राज्य प्रशासन कुकी क्षेत्रों में प्रभावी ढंग से काम नहीं कर रहा है। शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं, सरकारी परिवहन और अन्य सार्वजनिक सेवाएं सुचारू रूप से नहीं चल रही हैं। चूराचांदपुर और इंफाल के बीच सरकारी फ़ाइलें हेलिकाप्टर से नेपाली या नागा अधिकारी के द्वारा आदान-प्रदान होता हैं| अनौपचारिक रूप से, कुकी क्षेत्र में एक अलग प्रशासन चल रहा है, जहां कुकी लोग इंफाल से जुड़ने के बजाय स्थानीय प्रशासनिक सेवाओं और मिजोरम से या रही सेवाओं पर भरोसा करना पसंद करते हैं ।
पिछले 50 वर्षों में मणिपुर ने एक राजनीतिक इकाई के रूप में विभिन्न जातीय समुदायों के सह-अस्तित्व वाले राज्य के रूप में जो पहचान बनाई थी, वह पिछले 21 महीनों की हिंसा और अशांति से बिखर गई है। कोई भी सरकारी निकाय, समुदाय या राजनीतिक नेता इस उथल-पुथल की जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है। राज्य का भविष्य अंधकारमय दिखाई देता है, और कई निवासी, मौजूदा स्थिति से परेशान होकर अन्यत्र पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं जो पलायन नहीं कर रहे वे अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं। जातीय विभाजन ने राज्य की सामाजिक, भौगोलिक और राजनीतक एकता को खत्म कर दिया है, जिससे यह सांस्कृतिक और राजनीतिक दोनों रूप से कमजोर हो गया है। मणिपुर सिर्फ एक राज्य नहीं बल्कि एक भू-सांस्कृतिक परिवार है जिसमें मैइते, नागा, कुकी, मिज़ो, नेपाली और मुस्लिम समुदाय शामिल हैं, जो सभी इसकी भौगोलिक-सांस्कृतिक पहचान का अभिन्न अंग हैं।
बीरेन सिंह के इस्तीफे और 13 फरवरी को मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू होने के बाद बड़ा सवाल यह हो गया है कि क्या 3 मई 2023 से पहले जैसा मणिपुर में शांति और स्थिरता का माहौल बहाल हो पाएगा? राज्य के निवासी चाहते हैं कि सरकार निष्पक्ष, स्वतंत्र और आम सहमति से काम करे। हथियारबंद समूहों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए, उन्हें हथियारविहीन किया जाना चाहिए और उनकी गतिविधियों को अवैध घोषित किया जाना चाहिए। जब तक समुदायों का नेतृत्व ये हथियारबंद समूह करते रहेंगे, तब तक राज्य में लोकतांत्रिक सरकार का अस्तित्व कमज़ोर रहेगा।
मणिपुर में समुदायों के बीच अविश्वास की खाई काफी बढ़ गई है, जिसे केवल एक ऐसी सरकार द्वारा ही दूर किया जा सकता है जो एक समावेशी सर्व-समुदाय और सर्वदलीय समिति की देखरेख में काम करती है। संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं को निष्पक्ष और स्वतंत्र रूप से काम करना चाहिए, अपने सरकारी कर्तव्यों के साथ-साथ संवैधानिक दायित्व के रूप में अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करना चाहिए। मणिपुर के बारे में राजनीतिक, विकासात्मक और प्रशासनिक निर्णय इंफाल में जनप्रतिनिधियों और प्रशासनिक अधिकारियों द्वारा लिए जाने चाहिए। यदि ऐसे निर्णय प्रधानमंत्री कार्यालय या नई दिल्ली में भाजपा कार्यालय से तय किए जाते हैं, तो राज्य में शांति और स्थिरता की संभावनाएं कम हो जाएंगी, साथ ही " सबका साथ सबका विकास" के नारे सिर्फ जुमले ही साबित होंगे।
राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने से हिंसा और विस्थापन से प्रभावित लोगों का मानना है कि पिछले 21 महीनों में जो विनाश और अविश्वास पैदा हुआ है, उससे उन्हें अपनी रिहायशी जमीन वापस मिलने की उम्मीद जगी है। भाजपा आम जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है और उसकी सरकार को अब जनता का समर्थन नहीं रहा है। राज्य सरकार कुकी क्षेत्रों की चिंताओं को दूर करने में विफल रही है और राज्य का एक बड़ा हिस्सा पिछले 21 महीनों से अनुच्छेद 355 के अधीन रहा है। राज्य के निवासी एक ऐसी सरकार की मांग कर रहे हैं जो निष्पक्ष, स्वतंत्र और आम सहमति से काम करे। अशांति में योगदान देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिए। पूर्व मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को, जो सरकार के मुखिया थे, पिछले 21 महीनों से राज्य में फैली अशांति, असुरक्षा और हिंसा की जिम्मेदारी लेनी चाहिए।
अपने इस्तीफे के बाद एन बीरेन सिंह राजनीतिक सत्ता खो देंगे, लेकिन वह अरामबाई तेंगोल के माध्यम से मैतेई समुदाय को प्रभावित करना जारी रखेंगे । समुदाय के विभिन्न संगठनों और राजनीतिक नेताओं के बीच आम सहमति और एकता बनेगी, क्योंकि एन बीरेन सिंह के कार्यों को मेइती और कुकी हितों को कमजोर करते हुए नागा समुदाय को खुश करने के रूप में माना जाता था। अगर राज्य में राष्ट्रपति शासन नहीं लगाया गया होता, तो निम्नलिखित स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती थीं: 1. राज्य में उग्रवाद फिर से उभर सकता था (उग्रवादी संगठन पहले से ही ताकत हासिल कर रहे थे)। 2. नागा- कुकी संघर्ष फिर से भड़क सकता था। 3. मणिपुर की क्षेत्रीय और राजनीतिक अखंडता के लिए गंभीर खतरा होता। विधानसभा का सत्र 10 फरवरी को बुलाना संवैधानिक रूप से आवश्यक था; हालाँकि, मुख्यमंत्री, जो पहले ही पार्टी सदस्यों का विश्वास खो चुके थे, विधानसभा का सामना नहीं कर सकते थे। एन बीरेन सिंह ने समुदाय के दबाव के कारण पद छोड़ दिया, लेकिन राष्ट्रपति शासन लगाना केंद्रीय गृह मंत्री और भाजपा के लिए एक मजबूरी बन गयी थी क्योंकि पार्टी के 38 विधायक 24 जनवरी से राष्ट्रपति शासन लागू होने तक नए मुख्यमंत्री के नाम पर सहमत नहीं हो सके।
अब जबकि एन बीरेन सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया है और राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया है, एक महत्वपूर्ण सवाल उठता है: मणिपुर में आगे क्या होगा? हालाँकि राज्य विधानसभा भंग नहीं हुई है, लेकिन नए मुख्यमंत्री पर आम सहमति बनने तक राष्ट्रपति शासन लागू रहेगा। अगला मुख्यमंत्री संभवतः मैतेई समुदाय से होगा, जिसमें राधेश्याम (पूर्व आईपीएस और कैबिनेट मंत्री) या शारदा देवी (भाजपा अध्यक्ष) संभावित उम्मीदवार हैं। हालाँकि, दो परस्पर विरोधी समुदायों के बीच सुलह और शांति समझौता होने की बहुत कम उम्मीद है, क्योंकि कुकी अलग प्रशासन के अलावा किसी अन्य मांग पर बातचीत या समझौता करने की संभावना नहीं रखते हैं।
पृथक-प्रशासन और असंवैधानिक मांगों के लिए सरकारी और राजनीतिक समर्थन मणिपुर में किसी भी समुदाय के लिए उज्जवल भविष्य नहीं लाएगा। हालांकि केंद्रीय सुरक्षा बलों की उपस्थिति हिंसा और असुरक्षा की स्थिति को नियंत्रित तो कर सकती है, लेकिन यह स्थायी शांति और सुरक्षा स्थापित नहीं कर सकती हैं| केवल एक समर्पित सरकार ही अंतर-समुदाय सहयोग और शांति बहाल कर सकती है। पिछले तीन दशकों में मणिपुर में कई बार अंतर-समुदाय हिंसा हुई है, लेकिन इससे कभी भी ऐसी स्थिति नहीं आई है जिसकी वजह से पृथक-प्रशासन या ऐसी सरकार बनी रही जो जनता का विश्वास और विधायकों का समर्थन खो चुकी हो। समुदाय के प्रतिनिधियों और नेताओं को पहाड़ी क्षेत्रों में नशीली दवाओं की खेती, तस्करी और हथियारों के अवैध कब्जे को रोकने की जिम्मेदारी भी लेनी चाहिए। जन प्रतिनिधि और सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए उत्तरदायी हैं कि ऐसा माहौल न बने जिससे कट्टरपंथी युवा संगठनों को बढ़ावा मिले और उन तक हथियारों की पहुँच हो जाए। हिंसा से प्रभावित समुदायों को मणिपुर में अपने भविष्य के लिए अंतर-समुदाय विश्वास को फिर से बनाने के लिए सुलह और बातचीत की तलाश करनी चाहिए। घाटी और पहाड़ी दोनों ही मणिपुर राज्य के अटूट भौगोलिक अंग और सांझी पहिचान हैं|
डॉ सुवालाल जांगु
लेखक मिजोरम विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के सहायक प्रोफेसर हैं
Web Title: Will President's rule bring stability to Manipur?


