यह लेख उत्तराखंड की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति, चुनावी रणनीतियों, और समकालीन मुद्दों पर गहरा विश्लेषण प्रस्तुत करता है। इसमें उत्तराखंड के निर्माण के उद्देश्यों और आज की स्थिति के बीच के अंतर को उजागर किया गया है, जिसे वरिष्ठ पत्रकार पलाश विश्वास ने "माँगा था उत्तराखंड, बना दिया उल्टाखंड" के रूप में व्यक्त किया है।

मुख्य बिंदु:

उत्तराखंड का वर्तमान परिप्रेक्ष्य:

सामाजिक मुद्दे और जन असंतोष:

राष्ट्रीय और चुनावी परिप्रेक्ष्य:

भाषा, शिक्षा और संस्कृति पर हमला:

यह लेख सिर्फ उत्तराखंड तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरे भारत की सामाजिक-राजनीतिक स्थिति को संबोधित करता है। इसमें उत्तराखंड के मुद्दों के बहाने राष्ट्रीय राजनीति, भाषा नीति, चुनावी रणनीतियों, और सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाए गए हैं। सवाल यह है कि क्या जनता इस स्थिति को बदलने के लिए जागरूक होगी या सत्ता की नौटंकी में उलझी रहेगी?

माँगा था उत्तराखंड। नेताओं ने बना दिया उल्टाखंड

हमारे गुरुजी ताराचंद्र त्रिपाठी, जिन्हें हम जीआईसी में चाणक्य कहा करते थे और बाद में जाना कि वे तो मुक्तिबोध के ब्रह्मराक्षस हैं, फिर नये सिरे से फेसबुक पर सक्रिय है। बुढ़ापे में भी चैन से नहीं बैठते हमारे गुरुजी, थोड़ा भी इधर उधर हुए कि फौरन फोने पर कान उमेठ देते हैं।

वे लंबे अरसे से खामोश रहे हैं जो हमारी चिंता का सबब रहा है क्योंकि सारे गुरुजन तो दिवंगत हुए ठैरे, इकलौते वहीं अभी हमें वेताल की तरह विक्रमादित्य बनाये हुए हैं और उनकी लगाई आग हमारी पूंछ से निकलबे नहीं करै है।

नैनीताल पहुंचकर फोन किया तो पता चला कि वे मुरादाबाद में हैं तो हम हल्द्वानी नहीं रुके और हरुआ दाढ़ी से अबकी दफा पर मुलाकात हो ही नहीं पायी। बाद में अमर उजाला के प्रिंटलाइन से पता चला कि हमारे पुरातन सहकर्मी मित्र सुनील साह वहीं स्थानीय संपादक पदे विराजमान हैं।

भास्कर से तो मुलाकात नैनीताल में हो गयी लेकिन देहरादून जाकर भी सुनीता और उनकी बेबी से मुलाकात न हो सकी। चंद्रशेखर करगेती बिन मिले रह गये। रुद्रपुर के तमाम मित्रों से भी मुलाकात न हो सकी।

लेकिन हमने नैनीताल समाचार से अपने गुरुजी को फोने पर प्रणाम करके निकले तो तसल्ली हुई कि देश अब भी बचा हुआ है और लोकतंत्र भी बचा रहेगा क्योंकि अब भी हमारे इकलौते गुरुजी हैं जो नरेंद्र मोदी संप्रदाय पर भारी है।

उन गुरुजी ने लिक्खा है, जरा गौर करेंः

माँगा था उत्तराखंड। नेताओं ने बना दिया उल्टाखंड। सुना है तेलंगाना भी तेल लगाना बनने की कगार पर है।

गुरुजीने हालांकि झारखंड पर लिखा नहीं है।

इस के साथ ही चंद्रशेखर करगेती का यह पोस्ट ताजातरीनः

कवितायें भी बहुत कुछ कह जाती है, गीत बन कर

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कई लोग हैं जो अभी भी नहीं समझ पा रहें हैं, क्योंकि वे पढ़े लिखे है ! आधे पढे लिखे राणा जी आज से लगभग 35 साल पहले अब के विकास का अर्थ सही मायने में समझ गए थे, पहाड़ की कीमत से भरी अटेचियों को हम आज भी नहीं देख पा रहें ! काश हम भी सत्ता में बैठे पहाड़ में विकास के ठेकेदारों के मंसूबो को समय रहते समझ पाते !

त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, रौय दुखो को ड्योर पहाड़ ||

बुजुर्गो ले जोड़ पहाड़, राजनीति ले तोड़ पहाड़ |

ठेकदारों ले फोड़ पहाड़, नान्तिनो ले छोड़ पहाड़ ||

त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, रौय दुखो को ड्योर पहाड़ ||

ग्वाव नै गुसैं घेर नै बाड़, त्यर पहाड़ म्यर पहाड़ ||

सब न्हाई गयी शहरों में, ठुला छ्वटा नगरो में,

पेट पावण क चक्करों में, किराय दीनी कमरों में |

बांज कुड़ों में जम गो झाड़, त्यर पहाड़ म्यर पहाड़ ||

त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, रौय दुखो को ड्योर पहाड़ ||

क्येकी तरक्की क्येक विकास, हर आँखों में आंसा आंस ||

जे। ई। कै जा बेर पास, ऐ। ई। मारू पैसो गाज |

अटैचियों में भर पहाड़, त्यर पहाड़ म्यर पहाड़ ||

त्यर पहाड़ म्यर पहाड़, रौय दुखो को ड्योर पहाड़ ||

साभार — हीरा सिंह राणा

आज सवेरे कश्मीर घाटी में युवा वकील अशोक बसोत्तरा से बातें हुईं जो वहां केसरिया लहर के मुकाबले चुनाव मैदान में हैं और उनकी अब भी वही शिकायत है कि बाकी देश की आंखों में कश्मीर घाटी नहीं है जैसे पूर्वोत्तर के तमाम मित्र या फिर तमिलनाडु या दंडकारण्य के साथी या आदिवासी भूगोल के लोग या गोरखालैंड वाले कहते रहते हैं कि इस देश के लोकतंत्र में उनकी कहीं सुनवाई नहीं होती। न इस देश के नागरिकों को अपने सिवाय किसी की कोई परवाह है।

नागरिकों को यह अहसास है ही नहीं कि यह देश किसी सरकार बहादुर का साम्राज्य नहीं है और न इस देश का प्रधानमंत्री किसी दिव्यशक्ति के प्रतिनिधि हैं।

अश्वमेध के घोड़े लेकिन खूब दौड़ रहे हैं जैसे बाजारों में दौड़ रहे हैं सांढ़।

साँढ़ों की दौड़ ही इस देश की, लोकतंत्र कीऔर अर्थव्यवस्था की सेहत का पैमाना है और इसी बुल रन को जारी रखने के लिए बंगाल, पंजाब, तमिलनाडु, काश्मीर, झारखंड जैसे असुर जनपदों को छत्तीसगढ़, तेलंगाना और उत्तराखंड बना देने की कवायद है ।

और कवायद है देवसंस्कृति के पुनरूत्थान की, संस्कृत को अनिवार्य बनाने की कवायद जारी है। यानी मुकम्मल रंगभेदी मनुस्मृति राज का चाकचौबंद इंतजाम।

लोगों को केंद्रीय विद्यालयों में संपन्न तबकते के बच्चों को पढ़ायी जा रही तीसरी भाषा जर्मन को हटाने का अफसोस हो रहा है लेकिन भारतीय भाषाओं और बोलियों, समूची लोक विरासत और जनपदों की हत्या की खबर भी नहीं है।

शिक्षा के अधिकार की परवाह नहीं है। खास लोगों के परमानेंट आरक्षण की नालेज इकोनामी की खबर भी नहीं है और न परवाह है। सबको समान शिक्षा, समान अवसर की कोई चिंता है ही नहीं।

बीबीसी संवाददाता मित्रवर सलमान रवि ने हालात यूं बयां किये हैं -

No vehicle available। All vehicles taken away for election duty।

Reached Daltonganj for the first phase of Assembly elections।

फिर भी क्या खूब लिखा है भाई उदय प्रकाश जी नेः

कल-परसों से जर्मन भाषा को केंद्रीय विद्यालयों में तीसरी भाषा के रूप में हटाये जाने को लेकर बहसें चल रही हैं।

क्या संघ अब जर्मनों को 'शुद्ध और सर्वोच्च आर्य' तथा हिन्दू द्विजों- उच्च सवर्णों को उसी आर्य वंश का मानने वाली पुरानी धारणा त्याग देगा ?

क्या हिटलर के बारे में विचार बदल गए और अब वह उसकी आत्मकथा का प्रचार-प्रसार बंद कर देगा और उसे प्रतिबंधित कर देगा ?

और बड़ा सवाल यह — क्या अब संघ हिटलर की नाज़ी वर्दी, जो अब तक संघ का औपचारिक यूनिफार्म है, उसे भी बदल देगा ?

बड़ा वैचारिक शिफ्ट है भाई जी।

अब जर्मन की जगह संस्कृत आ गयी तो ड्रेस कोड भी तो बदलना ही लाजिम है।

अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा जी से नैन क्या मिले क़ि हज़रत अमीर खुसरो की कव्वाली हो गयी —

'छाप तिलक सब छीनी रे, तोसे नयना मिलाय के .... !'

ओबामा तो निकला बहुतै बड़ा रंगरेज़... हो रसिया !

संसद का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हुआ है। सत्र शुरू होने से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि संसद का शीतकालीन सत्र आज प्रारंभ हो रहा है और मुझे उम्मीद है कि ठंडे माहौल में ठंडे दिमाग से काम होगा। देश की जनता ने हमें देश चलाने के लिए चुना है। पिछले सत्र मे विपक्ष की सकारात्मक भूमिका के कारण बहुत अच्छा काम हुआ था मुझे उम्मीद है इस बार भी ऐसा ही होगा।

अब क्या होना है, बूझ लीजिये नौटंकी की पटकथा घमासान।

O- पलाश विश्वास

पलाश विश्वास । लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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