नरेंद्र मोदी अपने ‘मेक इन इंडिया’ कार्यक्रम को सफल बनाने के तलब में जिस तरीके से देश की सम्प्रभुता को अंकल सैम के सामने गिरवी रख के आये, उसके नतीजे सामने आ रहे हैं। अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (USTR) ने भारतीय IPR के सम्बन्ध में नए सिरे से जाँच शुरू कर दी है। इसकी रिपोर्ट इस साल में अंत में आने की सम्भावना है। इस प्रसंग को मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति का लिटमस टेस्ट के रूप में देखा जा सकता है।
विनय सुल्तान
सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से कोई एक सप्ताह पहले राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने रात को जारी किए गये एक आदेश के जरिए उन 108 दवाओं पर से अपना नियंत्रण हटा लिया जिसे उसने दो महीने पहले ही नियंत्रित दवाओं की श्रेणी में रखा था। एनपीपीए ने इस बारे इसके इतर कोई जानकारी नहीं दी कि वो इन 108 दवाओं से नियंत्रण हटा रहा है। इस बाबत छपे समाचारों में सूत्रों के हवाले से कहा गया था कि कोई ‘अमेरिकी लॉबी’ जीवन रक्षक दवाओं की कीमत में बढ़ोत्तरी के लिए जिम्मेदार है।
इससे पहले रसायन और उर्वरक मंत्री निहाल चंद मेघवाल ने 18 जुलाई को राज्यसभा में दवाओं की कीमत तय करने के बाबत दिये गये लिखित जवाब में कहा था कि ‘मधुमेह और हृदय रोग के उपचार से सम्बंधित गैर-अधिसूचित 108 दवाओं के सन्दर्भ में अधिकतम खुदरा कीमत की सीमा तय करने के लिए राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) की दखल के परिणामस्वरूप इन दवाओं की कीमतों में लगभग 01 प्रतिशत से लेकर 79 प्रतिशत तक कमी आयी है। ये 108 दवाएँ आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिल नहीं हैं और औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अधीन इनकी कीमतों में कमी की गयी है।’ तो आखिर दो महीने में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को इन दवाओं की कीमत तय करने के मामले में यू-टर्न लेना पड़ा। इन 108 दवाओं में एड्स, मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर जैसे रोगों की दवाएँ हैं।
निहाल चंद मेघवाल के जवाब से यह बिलकुल साफ़ था कि दवाओं की कीमतों के नियमन में किसी भी प्रकार की कानूनी प्रक्रिया को नहीं तोड़ा गया था। औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अनुसार यदि जरूरी हो तो ‘जनहित’ के आधार पर उन दवाओं की कीमत को भी नियन्त्रित किया जा सकता है जो ‘आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची से बाहर है। ऐसे में NPPA का बिना कारण बताए अचानक नियन्त्रण हटाना किसी बाहरी दबाव की ओर संकेत करता है।
इस मामले को समझने के लिए हमें फ़ोर्ब्स पत्रिका के 16 सितम्बर को छपे लेख ‘India's War On Intellectual Property Rights May Bring With It A Body Count’ के तर्कों को समझना जरूरी है। इस लेख में तरह-तरह तर्कों के जरिए जिरह की गयी थी कि किस प्रकार भारत के बौद्धिक सम्पदा कानून अमेरिकी दवा कम्पनियों को नुकसान पहुँचा रहे हैं। लेख के अनुसार भारत Global Intellectual Property Center की सूची में सबसे आखिरी पायदान पर है।
पत्रिका के अनुसार भारत का बौद्धिक सम्पदा कानून पर हमला पिछले दो साल में तेजी से बढ़ा है। भारत ऐसा अपने जेनरिक दवा उद्योग को बढ़ावा के लिए कर रहा है। लेख में अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी से मुलाकात के दौरान इस मुद्दे को अहम तौर पर उठाने की हिदायत दी गयी थी। आपको बता दें भारत दुनिया का सबसे बड़ा जेनरिक दवा निर्यातक देश है। भारत सहित तीसरी दुनिया की बड़ी गरीब आबादी अपनी जान बचाने के लिए इन्ही जेनरिक दवाओं पर निर्भर है। फ़ोर्ब्स द्वारा यह हास्यास्पद तर्क तब दिये जा रहे हैं जब अमेरिकी कांग्रेस में जेनरिक दवाओं की कीमतों में हो उछाल के बाबत जाँच चल रही है।
अन्तर्राष्ट्रीय पेटेंट कानून के अनुसार अगर आवश्यक हो तो कोई भी देश किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी के पेटेंट को ताक पर रख कर अन्य उत्पादकों को पेटेंटशुदा उत्पाद को बनाने की इजाजत दे सकती है। इस व्यवस्था को ‘अनिवार्य लाइसेंसिंग’ का नाम दिया गया है। भारत के अपने पेटेंट कानून हैं। अब तक भारत तमाम अन्तर्राष्ट्रीय दवाओं को नकारते हुये अपने पेटेंट कानूनों को स्वीकार करता आया था। नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद यह समीकरण बदल गये हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के बाद जारी संयुक्त बयान में उच्च स्तरीय आईपी वर्किंग ग्रुप बनाने की बात कही गयी। इसके बारे में अन्दर के पन्नों में विस्तार से जानकारी देते हुये कहा गया है, “भारत ने अब तक कॉपीराईट के संरक्षण के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाये हैं। भारत अपने पेटेंट कानून को खासतौर पर इनोवेटिव अमेरिकी फार्मा कम्पनियों के खिलाफ पक्षपाती ढँग से लागू करता है, जिससे घरेलू फार्मा उद्योग को मदद पहुँचाई जा सके।” इस करार के जरिए भारत के रॉकस्टार प्रधानमंत्री ने अमेरिकी एजेंसियों को भारतीय पेटेंट कानून में सीधे तौर पर नाक घुसाने की छूट दे दी। मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले इन 108 दवाओं की कीमत में हुये 100 गुना तक के उछाल को इसी सन्दर्भ में देखे जाने की जरूरत है।
आपको बता दें अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां पेटेंट कानून को अपनी मोनोपोली बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। ब्रिटिश सरकार द्वारा बौद्धिक संपदा कानून पर एक आयोग गठित किया गया था। आयोग ने अपनी 2002 की रिपोर्ट में कहा है कि लम्बी अवधि तक पेटेंट संरक्षण देने की तुलना में कम समय तक संरक्षण देना लाभप्रद रहा है। 2008 में संयुक्त राष्ट्र के एक संस्थान ने भारत तथा चीन के पेटेंट कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन किया था। चीन में डब्ल्यूटीओ के अनुरूप पेटेंट व्यवस्था 1993 में कर दी गयी थी, जबकि भारत में यह 2005 में लागू हुई। चीन में दवा की उपलब्धता भारत की तुलना में कम थी। निष्कर्ष निकाला गया कि पेटेंट संरक्षण का चीनी दवा उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
भारत में बड़ी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं के दायरे से दूर है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश की दो-तिहाई आबादी स्वास्थ्य सेवाओं की जद से बाहर है। पचास फीसदी गाँवों में किसी किस्म की स्वास्थ्य सुविधा हम अब तक उपलब्ध नहीं करवा पाएँ हैं। 10 फीसदी बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते। बच्चों में कुपोषण की दर पचास फीसदी है। जबकि भारत दवा उत्पादन में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है। भारत में स्वास्थ्य सेवाओं के हालत इस तथ्य से स्पष्ट हो जाते हैं कि यहाँ 1700 की आबादी पर एक डॉक्टर ऊपलब्ध है। अधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक देश में मधुमेह के 4।1 करोड़, दिल सम्बंधी बीमारियों के 4।7 करोड़, टीबी के 22 लाख, 11 लाख कैंसर और 25 लाख एड्स के मरीज हैं। इन 108 दवाओं में इन रोगों सम्बंधित दवाएँ भी शामिल हैं। इसके अलावा संक्रमण रोधी उच्च क्षमता वाली एँटी बायोटिक भी शामिल हैं। सरकार के इस फैसले से ये रोगी सीधे तौर पर प्रभावित होने जा रहे हैं। दवा कम्पनियों को फायदा देने के लिए सरकार जिस तरह से लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है उससे जन स्वास्थ्य के ‘अच्छे दिनों’ के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं।
नरेंद्र मोदी अपने ‘मेक इन इंडिया’ प्रोग्राम को सफल बनाने के तलब में जिस तरीके से देश की सम्प्रभुता को अंकल सैम के सामने गिरवी रख के आये, उसके नतीजे सामने आ रहे हैं। अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (USTR) ने भारतीय IPR के सम्बन्ध में नए सिरे से जाँच शुरू कर दी है। इसकी रिपोर्ट इस साल में अंत में आने की सम्भावना है। इस प्रसंग को मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति का लिटमस टेस्ट के रूप में देखा जा सकता है।
विनय सुल्तान, लेखक स्वतंत्र पत्रकार व टिप्पणीकार हैं।