अंकल सैम के सामने भारत के जन स्वास्थ्य को गिरवी रख आए नमो
अंकल सैम के सामने भारत के जन स्वास्थ्य को गिरवी रख आए नमो
विनय सुल्तान
सितम्बर के अन्तिम सप्ताह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से कोई एक सप्ताह पहले राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने रात को जारी किए गये एक आदेश के जरिए उन 108 दवाओं पर से अपना नियंत्रण हटा लिया जिसे उसने दो महीने पहले ही नियंत्रित दवाओं की श्रेणी में रखा था। एनपीपीए ने इस बारे इसके इतर कोई जानकारी नहीं दी कि वो इन 108 दवाओं से नियंत्रण हटा रहा है। इस बाबत छपे समाचारों में सूत्रों के हवाले से कहा गया था कि कोई ‘अमेरिकी लॉबी’ जीवन रक्षक दवाओं की कीमत में बढ़ोत्तरी के लिए जिम्मेदार है।
इससे पहले रसायन और उर्वरक मंत्री निहाल चंद मेघवाल ने 18 जुलाई को राज्यसभा में दवाओं की कीमत तय करने के बाबत दिये गये लिखित जवाब में कहा था कि ‘मधुमेह और हृदय रोग के उपचार से सम्बंधित गैर-अधिसूचित 108 दवाओं के सन्दर्भ में अधिकतम खुदरा कीमत की सीमा तय करने के लिए राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) की दखल के परिणामस्वरूप इन दवाओं की कीमतों में लगभग 01 प्रतिशत से लेकर 79 प्रतिशत तक कमी आयी है। ये 108 दवाएँ आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिल नहीं हैं और औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अधीन इनकी कीमतों में कमी की गयी है।’ तो आखिर दो महीने में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को इन दवाओं की कीमत तय करने के मामले में यू-टर्न लेना पड़ा। इन 108 दवाओं में एड्स, मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर जैसे रोगों की दवाएँ हैं।
इस मामले को समझने के लिए हमें फ़ोर्ब्स पत्रिका के 16 सितम्बर को छपे लेख ‘India's War On Intellectual Property Rights May Bring With It A Body Count’ के तर्कों को समझना जरूरी है। इस लेख में तरह-तरह तर्कों के जरिए जिरह की गयी थी कि किस प्रकार भारत के बौद्धिक सम्पदा कानून अमेरिकी दवा कम्पनियों को नुकसान पहुँचा रहे हैं। लेख के अनुसार भारत Global Intellectual Property Center की सूची में सबसे आखिरी पायदान पर है।
पत्रिका के अनुसार भारत का बौद्धिक सम्पदा कानून पर हमला पिछले दो साल में तेजी से बढ़ा है। भारत ऐसा अपने जेनरिक दवा उद्योग को बढ़ावा के लिए कर रहा है। लेख में अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी से मुलाकात के दौरान इस मुद्दे को अहम तौर पर उठाने की हिदायत दी गयी थी। आपको बता दें भारत दुनिया का सबसे बड़ा जेनरिक दवा निर्यातक देश है। भारत सहित तीसरी दुनिया की बड़ी गरीब आबादी अपनी जान बचाने के लिए इन्ही जेनरिक दवाओं पर निर्भर है। फ़ोर्ब्स द्वारा यह हास्यास्पद तर्क तब दिये जा रहे हैं जब अमेरिकी कांग्रेस में जेनरिक दवाओं की कीमतों में हो उछाल के बाबत जाँच चल रही है।
आपको बता दें अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां पेटेंट कानून को अपनी मोनोपोली बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं। ब्रिटिश सरकार द्वारा बौद्धिक संपदा कानून पर एक आयोग गठित किया गया था। आयोग ने अपनी 2002 की रिपोर्ट में कहा है कि लम्बी अवधि तक पेटेंट संरक्षण देने की तुलना में कम समय तक संरक्षण देना लाभप्रद रहा है। 2008 में संयुक्त राष्ट्र के एक संस्थान ने भारत तथा चीन के पेटेंट कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन किया था। चीन में डब्ल्यूटीओ के अनुरूप पेटेंट व्यवस्था 1993 में कर दी गयी थी, जबकि भारत में यह 2005 में लागू हुई। चीन में दवा की उपलब्धता भारत की तुलना में कम थी। निष्कर्ष निकाला गया कि पेटेंट संरक्षण का चीनी दवा उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
नरेंद्र मोदी अपने ‘मेक इन इंडिया’ प्रोग्राम को सफल बनाने के तलब में जिस तरीके से देश की सम्प्रभुता को अंकल सैम के सामने गिरवी रख के आये, उसके नतीजे सामने आ रहे हैं। अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (USTR) ने भारतीय IPR के सम्बन्ध में नए सिरे से जाँच शुरू कर दी है। इसकी रिपोर्ट इस साल में अंत में आने की सम्भावना है। इस प्रसंग को मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति का लिटमस टेस्ट के रूप में देखा जा सकता है।


