अंधेरे और अवचेतना के कुहासे को तोड़ने के लिये भरपूर मसाला है, "तर्क के योद्धा"
अंधेरे और अवचेतना के कुहासे को तोड़ने के लिये भरपूर मसाला है, "तर्क के योद्धा"
पुस्तक समीक्षा: तर्क के योद्धा, संपादक- विद्याभूषण रावत
-शमशाद इलाही "शम्स"
किताब लिखने की क्या वजुहात हो सकती हैं? १. आत्मकेन्द्रित दिमागी खाज मिटाने हेतु, २. सामाजिक हितों के परिमार्जन हेतु ३. मनोरंजन, सूचना अथवा धन प्राप्ति हेतु ४. एक सबसे अलग कारण यह हो सकता है कि कोई विषय लेखक को बाध्य कर दे कि वह एक ऐसी किताब को जन्म दे..और उस विषय की प्रसव पीडा उसे रात दिन बचैन रखे.
विद्याभूषण रावत द्वारा संपादित पुस्तक "तर्क के योद्धा" इसी अद्भुत चौथी श्रेणी में आने वाली पुस्तक है. एक तरफ़ जहां प्रचार माध्यमों में सदी के महानायक अमिताभ गज-गज भर लंबा तिलक लगाये मंदिर-मठों में याचना करते दिखाई दें, भारत पुरुष क्रिकेट भगवान सचिन तेंदुलकर साईं बाबा की मृत्यु के बाद अनाथ हुए जैसे बिलखते दिखें, सैक्सी कैटरीना कैफ़ और करीना कपूर अजमेर की दरगाह पर एक लंबी सी चादर चढाते प्रचार माध्यमों में ऐसे दिखें कि जैसे इस दीन दुखी आत्माओं के तमाम पाप धुल गये हों और सारी कामनायें पूरी हो गयी हों? जब देश के कथित बाबाओं, मठों और मंदिरों-दरगाहों में अकूत संपत्ति डेरा जमाये बैठी हो तब स्वभाविक रुप से तर्कपूर्ण, वैज्ञानिक, भौतिकवादी चिंतन रखने वाले समुदाय को यकीनन दुख का अहसास होता है कि भारत में तार्किक मत रखने वालों के साथ न्याय नहीं हो रहा. ये प्रश्न सहजता से मस्तिष्क में उभरते हैं कि क्या भारत इसी तरह के तथाकथित धर्म भीरुओं का देश है? क्या ये दृश्य सच में संपूर्ण भारतीय समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं? इन्हीं प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास, "तर्क के योद्धा" में किया गया है, १७५ पेज की इस पुस्तक में १५२वें पेज तक डा. आंबेडकर, पेरियार, भगत सिंह, एम. एन. राय, राहुल सांकृत्यायन ज्योतिबा फ़ूले और लेनिन के १७ चुनिंदा बेहतरीन लेखों को सम्मलित किया गया है. भारतीय लेखकों में खासकर डा. आंबेडकर, ज्योतिबा फ़ूले और पेरियार के आलेख आज भी भारतीय समाज के ज्वलंत जातिभेद की समस्या पर पूरी तरह आग उगलते हैं और एक बेहद वैज्ञानिक सोच और तर्क पद्धति के चलते आज भी दिशा देने में समर्थ हैं, ज्योतिबा फ़ूले का प्रसिद्ध लेख "गुलामगीरी" बेहद प्रमाणिक दस्तावेज है और जिसमें अंग्रेज सरकार के प्रति उनका विनम्र निवेदन इस बात का सबूत है कि भारत में अंग्रेज़ों से पूर्व १००० साल तक मुस्लिम शासन भी भारतीय समाज में व्याप्त जाति प्रथा के प्रपंच और उसके प्रतिगामी प्रभाव को तोड़ पाने में न केवल असमर्थ रहा बल्कि उसने इस व्यवस्था को और बल प्रदान किया. ज्योतिबाफ़ूले का अंग्रेज़ों के प्रति मोह को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिये. परशुराम द्वारा किये गये नर संहारों और उसके फ़लस्वरुप ब्राह्मणों द्वारा उसका इस्तेमाल आने वाली नस्लों के शोषण के रुप कें करने की व्याख्या आज भी बहुत सार्गभित है और तर्कपूर्ण भी, जाहिर है सर्वव्याप मनुवादी संस्कारों से बिलखते और त्रस्त समाज में विद्रोह के बीज बोने में यह आलेख आज भी मील का पत्थर है.
भगत सिंह का आलेख, मैं नास्तिक क्यों हूँ, आज भी वाम विचार के अनुयाईयों में एक नया रक्त प्रवाह करने में सक्षम है, एम. एन. राय के लेख में (सिद्ध पुरुषों का मनोविज्ञान) बहुत तार्किक ढंग से उन मानसिक अवस्थाओं का मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विश्लेषण किया गया है जिसे साधु संत कुंडली, कैवल्य अथवा मुक्त होने जैसी मूढ़ताओं को महिमामंडित करते हैं, उनका यह लेख कोई और नही वरन रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद को मद्देनज़र रखते हुए लिखा गया है, जो लोग इस शब्दजाल (ज्ञान प्राप्ति, उप्लब्ध, निजात, मुक्ति आदि) से जरा भी प्रभावित हैं, एक बार यह लेख जरुर पढें.
लेनिन महान की भले ही उनकी जन्म भूमि पर दुर्गति हुई हो लेकिन जिन लेखों का चयन उनकी संकलित रचनाओं से किया गया है वह निहायत ही श्रेष्ठ है, लेनिन द्वारा गोर्की की खिचाई और उन्हें प्रतिक्रियावादी जैसी संज्ञाओं से नवाज़ना, लेनिन ही कह सकते थे, यह द्वंद आज भी दुनियाभर की प्रगतिशील ताकतों को एक बल देता है.
घुमक्कड राहुल सांकृत्यायन के शब्द, "अज्ञान का दूसरा नाम ही इश्वर है" तुम्हारे धर्म की क्षय, तुम्हारे भगवान की क्षय जैसे कालजयी लेखों का आज भी महत्व है, उल्लू नगर के नवाब नामाकूक खाँ, और गदहा गांव के महाराज बेवकूफ़ बख्श सिंह के किस्सों के माध्यम से इश्वरीय सत्ता और ब्राह्मणवाद पर बेजोड हमला करने की कला अगर आप सीखना चाहते हैं तो ये लेख जरुर पढें. पुस्तक के अंत में कबीर, संत रविदास के क्रांतिकारी दोहे है तो भरत व्यास, हरिवंश राय बच्चन, पाश, शैलेन्द्र और साहिर की वो रचनायें शामिल हैं जिन्होंने इंसान और इंसान के बीच प्यार और मौहब्बत के सेतु बांधे और समाज को एक नयी राह दिखाई कि तथाकथित धर्मों के अतिरिक्त एक मानवधर्म भी है जो इंसान को इंसान होना सीखाता है.
यह विषय इतना बडा है कि इसे समेटना एक बडा काम है, मात्र इन लेखकों के जरिये ही इस विषय को विश्राम दे देना शायद इंसाफ़ नहीं होगा, भारत में वैज्ञानिक और तर्क पूर्ण चिंतन के सम्राट चार्वाक के चिंतन पर आधारित कोई लेख न होना इस किताब का सबसे बडा दोष है इसके अलावा, आधुनिक भारत के कई वैज्ञानिक रमानुजम, भटनागर जैसे चिंतकों को भी किताब में माकूल जगह दी जानी चाहिये थी. बारहाल, अंधेरे और अवचेतना के कुहासे को तोड़ने के लिये, तर्क और विज्ञान पर आधारित चिंतन विकसित करने के लिये इस किताब में भरपूर मसाला है, दानिश बुक्स- दिल्ली ने इस किताब को छाप कर हम जैसी सोच के लोगों पर उपकार किया है, संपादक को भी धन्यवाद, इस उम्मीद के साथ कि यह सिलसिला आगे भी चलेगा.


