अंबेडकर ने आज़ादी की लड़ाई को समृद्ध कर दिया
अंबेडकर ने आज़ादी की लड़ाई को समृद्ध कर दिया
दिलो दिमाग़ पर जिसका असर हो उसके क़दमों के निशान छू लेना किसी सपने से कम नहीं। कोलंबिया यूनिवर्सिटी जाने के लिए हाँ शायद इसी वजह से किया था। न्यूयार्क घूमते वक्त हर वक्त दिमाग़ में यह बात नाचती रही कि कब डाक्टर भीमराव अंबेडकर के विश्वविद्यालय में उनके नाम की पट्टी देखूँगा। 1913-16 के बीच डाक्टर अंबेडकर यहाँ पढ़े थे। उनके यहाँ से जाने के ठीक सौ साल बाद मुझे आने का मौका मिला है। कोलंबिया लॉ स्कूल के दरवाज़े पर पहुँचते ही ठिठक गया। बहुत कम ऐसा होता है जब मैं अपनी तस्वीर के लिए उत्सुक रहता हूँ। प्रवेश करते ही फोटो खिंचाने लगा। लगा कि शायद इसके आगे देखने का मौका ही न मिले।
अंदर जाते ही सबसे पहले यही पूछा कि डाक्टर अंबेडकर का नाम कहाँ लिखा है। जिस सम्मेलन के लिए आया था वहाँ जाने का ख़्याल ही न रहा। दीवार पर बहुत से नाम देखकर पढ़ने में वक्त चला गया, पता चला कि ये उनके नाम हैं जिन्होंने सेंटर की इमारत बनाने में योगदान किया। काफी देर हो गई। सम्मेलन कक्ष में जाना ही पड़ गया। लंच ब्रेक होते ही प्रोफेसर सुदीप्ता कविराज और वत्सल से यही सवाल किया कि मुझे खाना नहीं खाना है। पहले वहाँ जाना है जहाँ डाक्टर अंबेडकर का नाम लिखा है।
प्रोफेसर कविराज ने कहा कि मैं लेकर चलूँगा। प्रोफेसर कविराज आगे आगे चलने लगे और मैं पीछे पीछे। हर्बर्ट लेमन लाइब्रेरी के दरवाज़े पर हमें रोक लिया गया। यहाँ आने के लिए पास कहीं से बनना था। प्रोफेसर ने अपना कार्ड निकाला और कहा कि हमें बस उस मूर्ति तक जाना है। रिसेप्शन पर महिला ने ताक़ीद किया कि पहली बार है तो जाने दे रही हूँ। प्रोफेसर कविराज ने शराफ़त से उनका दिल जीत लिया था।
रिसेप्शन पर एक नोटबुक दिया गया जिसमें मैंने आने का मक़सद लिख दिया। मुझसे पहले प्रोफेसर कविराज ने लिखा। उनसे पहले बहुतों ने लिखा था। उसके बाद हमें बताया गया कि आप उस तरफ जा सकते हैं। सोच रहा था कि कोलंबिया पढ़ने के लिए भारत से कितने छात्र आते होंगे। क्या उनमें ये जानने की दिलचस्पी नहीं जगी होगी कि एक छात्र के रूप में यहाँ अंबेडकर का जीवन कैसा रहा होगा उसके बारे में पता करे, लिखे। जवाब जानता हूँ पर अभी सवाल महत्वपूर्ण है।
अब मैं यहाँ पहुँच गया था। मेरा आना सफल हो चुका था। उनकी मूर्ति के पास माला रखी हुई थी। यूनिवर्सिटी ने अपनी लाइब्रेरी में इतनी छूट दी है ये कम बड़ी बात नहीं। शायद उसे अपने इस छात्र पर विशेष नाज़ होगा। हमने भी माला चढ़ा दी। बस माला चढ़ाने की तस्वीर यहाँ नहीं लगा रहा। एक बेहतरीन छात्र के प्रति छोटा सा सम्मान था जिसने धर्म की सत्ता से लोहा लिया था। जो भारत के इतिहास में संपूर्ण रूप से पहले मानवाधिकार कार्यकर्ता और विचारक थे।
उसके बाद वहाँ रखे कुछ दस्तावेज़ पढ़ने लगा। जिसे पढ़ कर लगा कि एक छात्र के रूप में अंबेडकर के बारे में चर्चा ही नहीं हुई। एक छात्र के रूप में अंबेडकर की भूख और लगन की कहानियाँ लाखों छात्रों की प्रेरित कर सकती थी। एक नोट में लिखा है कि अंबेडकर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में तरह-तरह के कोर्स लिये। अमरीका के इतिहास से लेकर रेलवे तक के बारे में पढ़ा। उस समय के कई महान प्रोफ़ेसरों से संगत किया और विषयों को जानने का प्रयास किया। सिर्फ तीन साल के प्रवास में अंबेडकर ने कितना पढ़ा होगा। उन महान प्रोफ़ेसरों के संगत में आना क्या मामूली बात रही होगी ? क्या उन प्रोफ़ेसरों ने यूँ ही किसी छात्र को इतना वक्त दिया होगा ?
उसी नोट में लिखा है कि 1930 में डाक्टर अंबेडकर ने अलुमनी पत्रिका में लिखा है कि मेरी जिंदगी के सबसे बेहतरीन दोस्त कोलंबिया में मेरे क्लासमेट और प्रोफेसर जॉन डीवे, प्रोफेसर जेम्स शॉटवेल, एडविन सेलिगमन, प्रोफेसर जेम्स हर्वे रोबिनसन रहे हैं।
अंबेडकर 1923 में भारत वापस आ गए। आप सब जानते हैं कि उनका आगमन नहीं होता तो भारत की आज़ादी की लड़ाई का वैचारिक सामाजिक पक्ष कमज़ोर हो जाता। अंबेडकर एक दूसरे छोर पर खड़े होकर उसी दौर में सामाजिक इंसाफ़ की बात कर रहे थे। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को कमज़ोर किये बिना इन सवालों को आगे किया। वे अंग्रेज़ों के हाथ का खिलौना नहीं बने। अंबेडकर ने आज़ादी की लड़ाई को समृद्ध कर दिया।
अंबेडकर बीसवीं सदी के बड़े विचारकों में एक थे। उन्होंने अपनी तार्किकता के लिए धर्म के प्रतीकों का सहारा नहीं लिया। दुख की बात है कि हमारी राजनीति ने उन्हें सिर्फ एक मूर्ति बनाकर छोड़ दिया है। उनके लिए अंबेडकर का मतलब इतना ही है। जयंती पुण्यतिथि याद रखो फिर भूल जाओ। आधुनिक भारतीय राजनीतिक परंपरा में नायक पूजा का विरोध करना अगर कोई सीखाता है तो वो अंबेडकर हैं। जिस दौर में लोग लंदन जाते थे अंबेडकर अमरीका आए। आज देश में अंबेडकर की अनगिनत मूर्तियाँ हैं पर एक भी क़द्दावर दलित नेता नहीं है। इसलिए इनमें से कोई भी अंबेडकर जैसा छात्र नहीं बन सका। कांशीराम आख़िरी व्यक्ति थे जिन्होंने जाति की सत्ता को चुनौती दी। उनके बाद दलित नेता अपने अपने दल में एडजस्ट होने की राजनीति करने लगे। डाक्टर अंबेडकर एडजस्ट होने नहीं आए थे। वो तोड़ने आए थे।
उस विश्वविद्यालय की दरो दीवार को सलाम जिसने एक छात्र को भावी विचारक और राजनेता के रूप में ढलने का हर मौका उपलब्ध कराया। भारत की जनता को कोलंबिया यूनिवर्सिटी का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। दलितों को विशेष रूप से। कोलंबिया यूनिवर्सिटी को आधुनिकता और तार्किकता के केंद्र के रूप में ही याद रखा जाना चाहिए। सीखना चाहिए उस जगह से जहाँ अंबेडकर ने कितना कुछ सीखा। हमारे मुल्क में विश्विद्यालय बंद करने के नारे लग रहे हैं। भारतीय विश्वविद्यालयों का जो हाल है वहाँ मूर्ति पूजने वाला तो पैदा हो सकता है अंबेडकर नहीं। आप कभी कोलंबिया आएं तो हर्बर्ट लेमन लाइब्रेरी आइयेगा। अपने संविधान निर्माता के बारे में नहीं जानना चाहेंगे !
रवीश कुमार के फेसबुक पेज से साभार


