सर्वस्वहारा तबके के वर्गहितों के मुताबिक कोई राजकरण का कहीं कोई वजूद ही नहीं है। जाहिर है कि अंबेडकरी झंडेवरदार अपने वर्ग हितों के खिलाफ स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों के कारिंदे और लठैत ही बन सकते हैं, नेता नहीं।... सच लेकिन यही है।
पलाश विश्वास
सर्वस्वहारा तबके के वर्गहितों के मुताबिक कोई राजकरण का कहीं कोई वजूद ही नहीं है। जाहिर है कि अंबेडकरी झंडेवरदार अपने वर्गहितों के खिलाफ स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों के कारिंदे और लठैत ही बन सकते हैं, नेता नहीं।
अभी-अभी हमारे डीएसबी के छात्रनेता काशीसिंह ऐरी का फोन आया था।अरसे बाद काशी की आवाज को छू सका। मुलाकात तो नैनीताल छोड़ने के बाद कभी हुई नहीं। फोन पर ही काशी और पीसी वगैरह से बातें होती रही हैं। चंद्रशेखर करगेती की ओर से सूचना मिली थी कि काशी नैनीताल संसदीय सीट से चुनाव लड़ने वाला है। मैंने छूटते ही कहा कि नैनीताल से लड़ने पर इज्जत नहीं बचेगी और कोई जरूरी नहीं है कि संसदीय चुनाव लड़ा जाये। हमारे मित्र मोहन कपिलेश भोज छात्रजीवन में सूत्र में कहा करता था कि राजनेता वही अच्छा होता है जो दार्शनिक मित्रों की बात मानता है। जाहिर है, हम दार्शनिक नहीं है। लेकिन उम्मीद है कि काशी हमारी सलाह पर गौर करेंगे। इसे सार्वजनिक करने का मकसद यह है कि बाकी मित्रों को भी मालूम रहे।
हमने भाई पद्दोलोचन और परिवार के लोगों से वादा किया था कि मार्च में घर आयेंगे। दरअसल दिल्ली में एक कार्यक्रम करना है। तिथि तय नहीं हो पा रही है। घर जाने का खर्च बहुत है तो एलटीए का भरोसा है। उसके लिए महीने भर पहले आवेदन करना होता है। फिर घर जाने का मतलब हुआ कि कम से कम एक पखवाड़ा। दफ्तर से छुट्टी भी चाहिए। जाहिर है कि इस मार्च में भी घर जाना न होगा।
2006 में मां के निधन के बाद सविता की मां को उनकी मृत्युशय्या पर देखने एक बार यूपी उत्तराखंड गया था। वह भी छह सात साल हो गये। तब भी पहाड़ नहीं गया। पिता के निधन के बाद आखिरीबार 2001 में पहाड़ गया था।
तबसे उत्तराखंड में चीजें तेजी से बदल रही है।
चुनावी मौसम में इसलिए भी जाना नहीं चाहता क्योंकि बसंतीपुर की नई पीढ़ी अब केसरिया है। फिर नैनीताल से हमारे प्रियकवि बल्ली लड़ रहे हैं। जाहिर है कि नैनीताल में होता तो उसे वोट भी देता। यह लिखा भी है मैंने लेकिन इस पर उमेश तिवारी ने जो लिखा है, छुट्टी लेकर चले आओ, वह संभव नहीं है। क्योंकि इस राजनीति में हमारी भूमिका नहीं है। मित्रों को समर्थन जताना अलग बात है और राजनीतिक दल के हक में मैदान में उतरना एकदम अलग।
मेरे पिता पुलिनबाबू की आखिरी ख्वाहिश थी कि दिनेशपुर में बड़ा कोई अस्पताल बने। नारायणदत्त तिवारी से मरने से पहले उन्होंने कहा था। तिवारी जी बाद में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री भी बने। लेकिन उन्हें वह वादा याद नहीं रहा जो उन्होंने अपने मित्र से किया था।
हमारा सपना था कि बसंतीपुर में एक अस्पताल बने।
आज भाई पद्दो ने फोन पर बताया कि चार बेड वाला अस्पताल हमारे घर के पीछे बन गया है। वहां डाक्टर भी आने लगा है। सरकारी अस्पताल है।
बोला, अब तो घर चले आओ।
उत्तराखंड सरकार का आभारी हूं। मेरे गांव के लोगों को मामूली बीमारियों के लिए शायद अब इधर उधर भागना न पड़े।
आज पंतनगर रेडियो स्टेशन का लाइव कार्यक्रम चल रहा था बसंतीपुर से। रेडियोवालों का फोन भी आया, तब मैं सियालदह स्टेशन के मध्य था और कुछ सुनायी नहीं पड़ा।
बसंतीपुर मेरा वजूद है। उस गांव की माटी में रचा बसा हूं। वहां के आंदोलनकारी वाशिंदों, जो मतुआ थे, तेभागा में जो लहूलुहान हुए, ढिमरी ब्लाक आंदोलन में जो शरीक हुए, जो रुद्रपुर के 1956 के पुनर्वास आंदोलन में ही नहीं, बंगाल और ओड़ीशा के शरणार्थी आंदोलनों में भी साथ साथ थे, के अभिभावकत्व की छांव में बीता मेरा बचपन, कैशोर्य। उनमें से अब कोई नहीं है। और उनकी नई पीढ़ी अब केसरिया है।
वसंतीपुर की केसरिया बयार बाकी देश की सुनामी है। गांव तो न जाऊं तो चलेगा लेकिन देश में तो रहना ही है।
पद्दो ने बताया कि बसंतीपुर में एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है। सात-आठ लोगों पर मां काली आयी हुई है। स्कूल, अस्पताल,चारों दिशाओ में पक्की सड़कें, रोजगार, इंटरनेट, फोर व्हीलर और उच्चशिक्षा की आधुनिकता के मध्य हमारे लोग अब भी अपनी आंदोलनकारी विरासत भूलकर सत्रहवीं अठारहवीं सदी के अंध विश्वास में जी रहे हैं।
उन्हें पुरखों की विरासत का तनिक ख्याल भी नहीं है।
यह संवेदना नहीं वेदना का समय है।
वक्त ताश के पत्तों पर खड़े महल की तरह बिखर रहा है।
आज निनानब्वे साल की उम्र में लेखक पत्रकार खुशवंत सिंह चले गये, जिन्हें बचपन से पढ़ता रहा हूं। जिन्होंने विभाजन की त्रासदी देखी और 1984 में जिन्हें फिर शरणार्थी बनकर अपने ही पिता के हाथों बनायी दिल्ली में दंगाइयों से बचने के लिए अपनी जान माल बचाने के लिए दूसरे के यहां शरण लेनी पड़ी। मेरठ में हमने शायर बशीर बद्र का घर जलते देखा है। जलते हुए दिल्ली में झुलसते हुए खुशवंत को अंत तक देखते रहे।
शोक नहीं।
विषाद नहीं।
गुस्सा नहीं।
अजीब थेथरपन का अहसास हो रहा है।
कितना आत्मध्वंस का समय है यह।
कितने आत्मघात के साक्षी हैं हम।
You must destroy the religion of the Shrutis and the Smritis. Nothing else will avail.
-B.R. Ambedkar
बाबासाहेब जो कह गये, वे हम सिरे से भूल चुके हैं। जबकि लगाता हम बाबा साहेब को रट्टा लगा रहे हैं। दिमाग और दिल के दरवाजे खोले बिना।
हम बहुजनों की बात तो करते हैं। एक सांस में अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति,पिछड़े और अल्पसंख्यक का समीकरण को बताकर बोल पचासी का नारा भी बखूब भीम उद्घोष के साथ बुलंद करते हैं, लेकिन गोल बंदी अपनी अपनी जात की करते हैं। आदिवासियों की कोई जाति पहचान नहीं है। इसलिए आदिवासी हमारे जाति बीज गणित के हिसाब से बाहर हैं।
हकीकत तो यह है कि इस देश में सर्वस्वहारा लोगों का कोई राजकरण है, तो अविराम सामंतवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध अपने महासंग्राम के जरिये सिर्फ आदिवासी और सिर्फ आदिवासी ही उसका प्रतिनिधित्व करते हैं, हमने सत्ता का साथ देते हुए उन्हें अलगाव में रखा हुआ है। जिस दिन उनका अलगाव खत्म होगा और जिस दिन वे हमारे हीरावल दस्ते बन जायेंगे, उसी दिन शुरु होगी हमारी राजनीति। वरना हम तो सत्ता की वर्णवर्चस्वी नस्ली राजनीति में ही निष्णात हैं।
चुआड़ विद्रोह के इतिहास पर चर्चा न होने की वजह से हम इस तथ्य को नजरअंदाज कर जाते हैं कि पेशवा राज को छोड़ जादव साम्राज्य से लेकर शिवशाही और साहूजी महाराज तक के समय के महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात से लेकर मैसूर, आंध्र, समूचे मध्य भारत, गोंडवाना, दंडकारण्य, ओड़ीशा, बंगाल, बिहार, सुंदरवन, झारखंड, असम से लेकर पूर्वी बंगाल और पूर्वोत्तर तक में ईस्ट इंडिया राज के शुरुआती दौर में आदिवासियों, शूद्रों, दलितों, मुसलमानों और पिछड़ों का राज्य था।
गौर तलब है कि चुआड़ विद्रोह के दमन के बाद स्थाई बंदोबस्त के तहत इस देश में सवर्ण वर्णव्यवस्था की नींव डाली गयी। जिसकी प्रतिक्रिया में संथाल, मुंडा, गोंड, भील जैसे असंख्य विद्रोह होते रहे। सन्यासी और नील विद्रोह से लेकर तेभागा और खाद्य आंदोलन का सिलसिला चला।
वर्णवर्चस्वी साम्राज्यवाद और सामान्तवाद के खिलाफ आदिवासियों की अविराम बलिदानी संघर्ष दरअसल भारतीय कृषि समाज की गौरवसाली विरासत है, जिसकी अभिव्यक्ति नक्सलबाड़ी जनविद्रोह में हुई और जो अब जंगल के जनयुद्ध में तब्दील है।
इस इतिहास को समझे बिना हम इस देश में राजनीतिक आर्थिक सामाजिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन कर नहीं सकते।
राजनीतिक मसीहों, दूल्हों और चूहों की मौकापरस्त जमात से भावात्मक तौर पर जुड़े हमारे पढ़े अधपढ़े लोगों को इस इतिहास के बारे में कितना मालूम है, यह हमें नहीं मालूम है।
लेकिन राजनीति तो दरअसल वर्गीय हितों के मुताबिक है।
सवर्ण राजनीति इसी वर्गीय हितों के तहत अलग अलग नजर आने के बावजूद चट्टानी एकता में देश के बहुसंख्य जनता, आदिवासी, शूद्र, दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों और अल्पसंख्यकों के विरुद्ध दरअसल स्थाई बंदोबस्त की एकाधिकारी व्यवस्था है।
विचारधारा की राजनीति भी वहीं सवर्ण जमींदारी है।
चाहे वह अंबेडकरी विचारधारा हो या वाम,या गांधीवादी या समाजवादी या अंबेडकरी।
राजनीति,अर्थव्यवस्था और समाज में स्थाई बंदोबस्त की निरंतरता के खात्मे लिए भूमि सुधार अनिवार्य है।
इसके लिए राज्यतंत्र के बारे में समझ साफ होनी चाहिए, वह दृष्टि हमें बाबा साहेब अंबेडकर से ही मिल सकती है क्योंकि उनकी प्रतिबद्धता सर्वस्वहारा वर्ग के प्रति है।
सर्वहारा की बात जो करते हैं वे भी दरअसल इस स्थाई बंदोबस्त को जारी रखने की रणनीति के तहत ही सर्वदलीय संसदीय सहमति के तहत नरसंहार अभियान में शामिल है।
सर्वस्वहारा तबके के वर्गहितों के मुताबिक कोई राजकरण का कहीं कोई वजूद ही नहीं है।
जाहिर है कि अंबेडकरी झंडेवरदार अपने वर्गहितों के खिलाफ स्थाई बंदोबस्त के तहत जमीदारों के कारिंदे और लठैत ही बन सकते हैं, नेता नहीं।
मुक्त बाजार में सत्तावर्ग के हितों के मुताबिक उनकी राजनीति में शामिल होने वाले सर्वस्वहाराओं के नरसंहार आयोजन में मौसम बेमौसम शामिल होने वालों को सुपारी किलर कहने पर अगर आप मुझे फांसी पर चढ़ाना चाहते हैं तो चढ़ा दें।सच वही है।
चुआड़ विद्रोह शामिल लोग सभी जातियों और धर्मों के भारतीयराजे रजवाड़े महाराष्ट्र से लेकर पूर्वी बंगाल,असम, मध्यभारत, आंध्र बिहार, झारखंड और ओड़ीशा तक ईस्टइंडिया कंपनी के खिलाफ लड़ रहे थे।
खासकर बंगाल, ओड़ीशा, झारखंड और बिहार में तो चुआड़ विद्रोह ने ईस्टइंडिया कंपनी की नाक में दम कर दिया था।
इन बागियों को चोर चूहाड़ अपराधी बताकर और उनके विद्रोह को चुआड़ यानी चूहाड़ विद्रोह बताकर बेररहमी से दबाया गया। बागियों के थोक दरों पर सूली पर चढ़ा दिया गया। फांसी पर लटकाया गया। लेकिन भारतीय इतिहास में इस विद्रोह की कोई चर्चा ही नहीं है।
आदिवासी विद्रोहों को आदरणीया महाश्वेता देवी ने कथा साहित्य का विषय बना दिया।उनका अरण्येर अधिकार उपन्यास कम दस्तावेज ज्यादा है। वरना हिंदी और बांग्ला और दूसरी भारतीय भाषाओं के लोग वीरसा मुंडा के बारे में वैसे ही अनजान होते जितने सिधो कान्हों, टांट्या भील,तीतूमीर के बारे में।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।