अंबेडकरी वामपंथी अनिल सरकार को लाल सलाम-नीला सलाम
अंबेडकरी वामपंथी अनिल सरकार को लाल सलाम-नीला सलाम
कवि अंबेडकरी वामपंथी अनिल सरकार का अवसान, उन्हें लाल सलाम। नीला सलाम।
इसी बीच नौ फरवरी को दिल्ली आयुर्वेदिक महासंस्थान में हमारे मित्र, नेता और प्रियकवि अनिल सरकार का अवसान हो गया।
वे करीब एक दशक से बीमार चल रहे हैं। जब हमने उनके साथ असम और त्रिपुरा के दूर दूराज इलाकों में 2002 और 2003 में भटक रहे थे , तब भी वे मधुमेह के प्रलंयकर मरीज थे।
अनिल सरकार छोटे से अछूत राज्य त्रिपुरा के वरिष्ठतम मंत्री थे। माणिक सरकार से भी सीनियर। नृपेन चक्रवर्ती उनके गुरु थे। वे वामपंथी थे और उससे कट्टर बहुजन समाज के नेता वे रहे हैं। उससे बड़े वे अंबेडकर के अनुयायी रहे हैं।
2002 में जब मैं आगरतला में त्रिपुरा के लोकोत्सव में मुख्य अतिथि बनाकर कोलकाता से ले जाया गया तो उनने बाकायदा मुझे भविष्य में अंबेडकरी आंदोलन की बागडोर इस नये अंबेडकर के हाथों में है, ऐसा डंके की चोट पर कहा।
आज भी मैं उनके इस बयान की शर्मिंदगी से उबर नहीं पाया हूँ।
एक मेरे पिता मुझपर यह बोझ लाद गये कि अपने लोगो के हक में हर हाल में खड़ा होना है कि क्षमता प्रतिभा नहीं कि प्रतिबद्धता जरूरी बा कि अपने लोगो की लड़ाई अकेले तुम्हीं को लड़ना है। उसी बोझ ने बौरा दिया है। गालियाँ खाकर भी आखिरी साँस तक रीढ़ में कैंसर ढोने वाले पिता की विरासत की लड़ाई लड़ रहा हूँ।
किसी गांधी या अंबेडकर का कार्यभार के लायक हम हरगिज नहीं हैं।
अंबेडकर एकच मसीहा आहे। एकल मसीहा आहे।
हम उनकी चरण धूल समान नहीं हैं और न हमें किसी नये अंबेडकर, नये गांधी या नये लेनिन की जरूरत है।
मूलतः राजनेता अनिलदा कवि बहुत बड़े थे और इमोशन पैशन के कारोबाार के बड़े कारीगर थे। वे हमारी नींव पर कोई बड़ी इमारत तामीर करना चाहते थे, जिस लायक हूँ नहीं मैं।
असम में तमाम मुख्यमंत्रियों राज्यपालों के बीच ब्रह्मपुत्र बिच फेस्टिवेल में मुझे अतिथियों के आसन पर उनने बिठाया और मेरे पिता और डाक्टर चाचा असम के जिन हिस्सों में साठ के दशक में दंगापीड़ितों के बीच काम करते रहे हैं, उनके बीच मुझे वे ही ले गये। पूर्वोत्तर और पूर्वोत्तर के लोगों से मुझे उनने जोड़ा।
वे अनाज नहीं लेते थे। आलू का चोखा उनका भोजन रहा है। वे कहते थे कि चावल से आलस आता है। मुझे तब भी मधुमेह था और अनिलदा ने कहा था कि चावल छोड़ दो, आलू खाओ। हमरे डाक्टर शांतनु घोष भी हाल में ऐसा बोल चुके हैं।
असम दौरे के दौरान वे दिल का आपरेशन करा चुके थे। पिछले पूरे दशक वे कोलकाता और नई दिल्ली के अस्पतालों में पेंडुलम की तरह झूलते रहे हैं लेकिन वे निष्क्रिय नहीं रहे हैं। वे हमेशा सक्रिय रहे हैं। बेपरवाह भी रहे हैं।
हमें ताज्जुब है कि पार्टी के अंदर वे तजिंदगी बने कैसे रहे हैं। क्योंकि अपने रिश्ते वे खूब निभाते थे एकदम हमारे कामरेड सुभाष चक्रवर्ती की तरह, जिनसे उनकी खास दोस्ती रही है। वे पोलित ब्यूरो की परवाह करते नहीं थे।
मसलन नंदीग्राम और सिंगुर प्रकरण के दौरान हम जब वामपंथी, पूँजीवाद और वाम जनसंहार संस्कृति पर तेज से तेज प्रहार कर रहे थे, बारंबार मरीचझांपी प्रसंग में कामरेड ज्योति बसु को घेर रहे थे और नागरिकता कानून संशोधन विधेयक पास कराने में पूर्वीबंगाल के शरणार्थियों के साथ वाम विश्वास घात और वाम हेजेमनी की खुलकर निंदा कर रहे थे, तब आगरतला में मेरे साथ प्रेस कांफ्रेंस करने से वे हिचकते न थे।
लोककवि विजय सरकार के बहाने पूरे पूर्वोत्तर को वे लोककवि विजय सरकार के गांव और महानगर कोलकाता ले आये थे। उन्हें बार बार चेतावनी दी गयी कि हमसे ताल्लुकात न रखें जबकि हम वामपक्ष से एकदम अलग होकर अंबेडकरी आंदोलन में देश भर में भटकने लगे थे। हर चेतावनी के बाद कभी भी देर रात या अलस्सुबह उनका फोन आता था, जिसे सविता बाबू उठाया करती थी और पहले उन्हें अपनी ताजा लंबी कविता सुनाने के बाद वे मेरे मुखातिब होकर बेफिक्र कहते थे, फिर चेतावनी मिली है और हमने कहा है कि वे मेरे पत्रकार मित्र हैं। कुछ भी लिख सकते हैं।
दलित कवि अनिल सरकार ने मुझे ही नहीं, वैकल्पिक मीडिया के सिपाहसालार हमारे बड़े भाई समयाँतर के संपादक, बेमिसाल हिंदी उपन्यासकार पंकज बिष्ट को भी त्रिपुरा बुलाकर सम्मानित किया था।
उनने मायावती की प्रशंसा में कविताएं लिखीं तो फूलन देवी उनके लिए महानायिका रही हैं।
उनने बंगाल की नरसंहार संस्कृति पर भी कविताएं लिखी है।
उनकी लिखी हर पंक्ति में अंबेडकर की आवाज गूंजती रही है। वे अंबेडकरी वामपंथी रहे हैं।
यकीनन वे हमारे वजूद में शामिल हैं। हम उन्हें भूल नहीं रहे हैं।
इसके साथ ही प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी और विमान बोस के साथ मिलकर वाम दलित एजेंडा को भी वर्षों से आकार देते रहे हैं लेकिन अमल में नहीं ला सके, पर इस कारण पार्टी उनने छोड़ी नहीं है। मतभेद और विचारधारा के नाम पर पार्टी से किनारा करने वाले कामरेडों से सख्त नफरत रही है दलित कवि अनिल सरकार को। हालांकि उनका हर बयान अंबेडकरी रहा है।
लाल सलाम अनिल दा।
नीला सलाम अनिल दा।
वे लगातार मंत्री रहे हैं। वे मरते दम तक राज्ययोजना आयोग के सर्वेसर्वा थे और पिछली विधानसभा चुनावों के दौरान उनने फोन पर कहा कि वे वामपंथ पर अपनी चुनाव सभाओं में कुछ भी नहीं बोल रहे थे बल्कि सर्वत्र चैतन्य महाप्रभु के प्रेम लोक माध्यमों से वितरित कर थे। वह चुनाव भी उनने जीत लिया।
वे वैष्णव आंदोलन को प्रेमदर्शन कहा करते थे।
वे कहा करते थे बंगाल में कोई वैष्णव नहीं है। बाकी भारत में कोई वैष्णव नहीं है। शाकाहार से वैष्णव कोई होता वोता नहीं है। वैष्णव तो मणिपुर है।
इतने वर्षों में देश के जिस भी कोने में गया हूँ, अनिवार्य तौर पर उनका फोन कहीं भी, किसी भी वक्त पर आता रहा है।
अब रात बिरात जहां तहां उनके फोन का इंतजार न होगा।
कोलकाता के जिस उदयन छात्रावास में उनकी छात्र राजनीति का आगाज हुआ, वहीं आज उनकी याद में स्मृति सभा है। टाइमिंग शाम की है और तब मुझे दफ्तर में पहुंच जाना है। मेरा दिलोदिमाग मगर वहीं रहेगा।
उन्हें हमारी श्रद्धांजलि। अंग्रेजी में पूर्वोत्तर के लिए उनके व्यक्तित्व कृतित्व पर फुरसत में फिर लिखूंगा। अब फिलहाल उनके बारे में इतना ही।
लाल सलाम अनिल दा।
नीला सलाम अनिल दा।
पलाश विश्वास


