गृहयुद्ध है तो, गृहयुद्ध ही सही!
महेंद्र मिश्र
अगर यह गृहयुद्ध है तो गृहयुद्ध ही सही। मामला अब संविधान, सरकार और व्यवस्था के पार चला गया है। दलित बस्तियों में होने वाला कांड अगर राजधानी की सड़कों पर दोहराया जा रहा है। तो नतीजा यही निकलता है। और यह खाकीधारियों की निगहबानी और संसद की नांक के नीचे हो। तो फिर कहने और समझने के लिए कुछ बचता नहीं।
गुजरात के समधियाला गांव के दलित युवकों को पीटने के लिए 30 किमी दूर उना कस्बे में ले जाया जाता है। यह घटना बताती है कि भारतीय समाज के पहिए का चक्र अब उल्टा चल पड़ा है। वह पूंजीवाद और सामंतवाद से भी पीछे गुलामी और दासता के दौर में पहुंच गया है।

मध्य प्रदेश में 50 दलित परिवारों के खुदकुशी की मांग व्यवस्था के मुंह पर कालिख है।
दरअसल देश के साझे दुश्मन अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के क्रम में समाज के भीतर की जातीय उत्पीड़न सरीखी गंदगियां भुला दी गई थीं। आजादी मिली तो वह भी समझौते से। ऊपर से नये शासकों ने इस बीमारी को दूर करने की जगह देश के सामंतों और राजे-रजवाड़ों से गलबहियां कर ली।
नतीजतन पुरानी जातीय व्यवस्था जड़ जमाये रही। ऊपर भले सरकार रही लेकिन नीचे व्यवस्था जाति की ही चलती रही। लंगड़ा पूंजीवाद सामंती व्यवस्था की बैसाखी पर खड़ा होकर पूरे समाज को अपाहिज बना दिया। जातीय उत्पीड़न के इस जुआठे को उतार फेंकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई संगठित प्रयास नहीं हुआ। कुछ कोशिशें हुईं भी तो वो पुरानी ताकतों की साजिश का शिकार हो गईं।

दरअसल यह देश एक नवजागरण की मांग कर रहा है।
पश्चिम बंगाल में इसकी शुरुआत जरूर हुई थी। लेकिन आगे चलकर यह गतिरोध का शिकार हो गया। पूरा उत्तर भारत धुर जातीय कबीलाई बाड़ेबंदी का शिकार है।
अगर आजादी के 60 साल बाद एक दलित आईपीएस अफसर को अपने गांव की सामान्य बस्ती में मकान बनाने की इजाजत नहीं मिलती, और शहर में भी उसे दलित बस्ती में ही स्थान मिलता है। देश में एक पशु की अहमियत अगर इंसानी जिंदगी से ज्यादा है। तो यह कुछ भी हो लेकिन कोई आधुनिक इंसानी समाज नहीं हो सकता है। जिसमें पूरी व्यवस्था एक नागरिक और उसके अधिकारों की गारंटी करती है।
ऐसे में इंसानी मान-सम्मान, अधिकार और सुरक्षा के लिए अगर युद्ध भी हो तो उसे कबूल किया जाना चाहिए। क्योंकि समाज में न्याय और सत्य की स्थापना के लिए किया गया संघर्ष युद्ध नहीं बल्कि कर्तव्य होता है। पुरानी सड़ी गली और उत्पीड़नकारी व्यवस्था की कोख से नये समाज की पैदाइश के दर्द को समझा जा सकता है।
लेकिन नया समाज और नए इंसान के बनने की अगर यह शर्त है तो इसको पूरा किया जाना चाहिए। और चूंकि इसके सबसे ज्यादा शिकार दलित हैं लिहाजा इसकी अगुवाई की चुनौती भी उन्हें स्वीकार करनी चाहिए।

इतिहास में हमारे सामने अमेरिका और उसके राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का उदाहरण है।
राष्ट्रपति रहते जब दास प्रथा को बनाए रखने या उसके खात्मे के सवाल पर काले और गोरों के बीच युद्ध छिड़ा तो लिंकन ने कालों का पक्ष लिया। आखिरकार युद्ध में गोरों की हार हुई। और समाज और देश में उत्पीड़नकारी दास प्रथा का खात्मा हुआ। भारतीय समाज में संख्या बल में कम होने के बावजूद सवर्ण सामंती और ब्राह्मणवादी शक्तियों का पलड़ा भारी है। ऐसे में जब भी

कोई मौका आता है तो राजनीतिक ताकतें उनके साथ ही गोलबंद हो जाती हैं। ऐसे में संतुलन को अपने पक्ष में करने के लिए दलित, आदिवासी, मुस्लिम, महिलाओं समेत समाज के तमाम उत्पीड़ित तबकों को एकजुट होने की जरूरत है। भले ही अभी इसका कोई मंच न हो और न ही कोई सर्वमान्य चेहरा। लेकिन कोई भी आंदोलन अपना नेता खुद पैदा कर लेता है। और आंदोलन अगर सफल रहा तो देश को अपना लिंकन, मार्टिन लूथर किंग और एक नया अंबेडकर भी मिल जाएगा।

फिर मुसलमानों के लिए आए तो मैं नहीं खड़ा हुआ क्योंकि मुसलमान नहीं था। फिर दलितों के लिए आए तो भी नहीं खड़ा हुआ क्योंकि मैं दलित नहीं था। और आखिर में जब वो मेरे लिए आए तो मेरे साथ खड़ा होने वाला कोई नहीं बचा था। हालात इस हद तक पहुंचे उससे पहले ही खड़े हो जाने की जरूरत है।