अच्छे दिनों की धमक सुनाई दे रही- कान खोल कर सुन लो
अच्छे दिनों की धमक सुनाई दे रही- कान खोल कर सुन लो
जब जब सरकार मज़बूत हुई है जनतन्त्र कमजोर पड़ा है
सुन्दर लोहिया
कानून मन्त्री का बयान आया है कि वे न्यायालय की गरिमा का तो सम्मान करते हैं। न्यायालय की भावनाओं को शायद उसकी गरिमा से अलग मानते हैं? गौर तलब है कि कानून मन्त्री का यह बयान माननीय मुख्याधीश आरएम लोढ़ा के उस बयान के बाद आया है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के कॉलेजियम ने गोपाल सुब्रमण्यम को जज नियुक्त करने की सिफारिश विधिविधान के अंतर्गत की थी। इसे सरकार ने आई बी की रिपोर्ट का हवाला दे कर नकार दिया।
इस घटनाक्रम से आहत होकर माननीय चीफ जस्टिस आरएम लोढ़ा ने कहा कि यह कारवाई न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में अनपेक्षित सरकारी हस्तक्षेप है और यदि उन्हें लगे कि न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को नुकसान पंहुचाया जा रहा है तो वे अपने पद से त्यागपत्र दे देंगे। इस बीच जनपथ पर चर्चा शुरु हो गई तो खुलासा हुआ कि सुब्रमण्यम का अपराध मात्र यह था कि उन्होंने अतिमशाह के खिलाफ माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमित्र की हैसियत से शहाबुद्दीन एनकाउंटर के बारे जांच के आधार पर रिपोर्ट पेश की थी। जिसके आधार पर अमितशाह को दोषी करार दिया गया है और उन पर अपराधिक मामला दर्ज है। क्योंकि अमित शाह प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के दाहिना हाथ रहे हैं। गुजरात में राजधर्म के निर्वहन में और उत्तरप्रदेश में 80 में से 70 सीटें भाजपा की झोली में डालने का राजनीतिक करिश्मा करने के बाद अब उन्हें आर एस एस की सहमति या सिफारिश से भाजपा का अध्यक्ष बनाया जा रहा है। इस राजनीतिक हस्ती के सामने सर्वोच्च न्यायालय की स्वतन्त्रता को न्योच्छावर करते हुए मोदी सरकार ने विधि विधान के अंतर्गत गठित कॉलेजियम की संस्तुति को माननीय मुख्य न्यायाधीश को सूचित किये बिना दरकिनार कर दिया।
कानून मन्त्री ने यह नहीं बताया कि माननीय मुख्यन्यायाधीश की बात कहां तक सही है जिसमें उन्होंने सरकार की इस कारवाई को न्यायालय के अधिकारक्षेत्र में अवांछनीय हस्तक्षेप के रूप में देखा हैं। क्या मोदी सरकार का यह कारनामा न्यायालय की गरिमा के अनुकूल है या नहीं? इस पर कुछ भी कहने से इन्कार कर दिया है। अब एक और बयान में कानून मन्त्री ने कहा है कि न्यायालय के मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन मामला अब जनता के बीच आ चुका है इसलिए इससे मुंह चुराना आसान नहीं है। भाजपा को जवाब देना ही होगा कि गोपाल सुब्रामण्यम के साथ जो सलूक किया क्या वह राजनीति नहीं है? मोदी सरकार के गृहमन्त्री का बयान भी इसी तर्ज पर दिया गया है। उन्होंने कुछ लोगों की सुरक्षा हटाई और कुछ लागों की सुरक्षा बढ़ाई है। वैसे यह काम गृहमन्त्री के अधिकार क्षेत्र में आता है लेकिन हमारी आपत्ति इस बात को लेकर है कि अमितशाह को जे़डप्लस सुरक्षा जो दी गई है उसके पीछे कोई न कोई कारण तो होगा ही उसे जानने का हक मतदाताओं को है क्योंकि इस सुरक्षा पर जनता का पैसा इस्तेमाल होगा। हमें गृहमन्त्री के उस बयान पर ऐतराज़ है जिसमें उन्होंने कहा है कि सुरक्षा के मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए। अब कल को यदि पर्यावरण मन्त्री का बयान आ जाये कि विकास के मामले में राजनीति नहीं होनी चाहिए तो विदेश मन्त्री को यह कहने से कौन रोक सकेगा कि इराक में भारतीय नर्सों का आतंकवादियों द्वारा अपहरण किये जाने जैसे संवदेशनशील मामलों में राजनीति नहीं होनी चाहिए तो संसद मात्र काफी हाऊस बन कर रह जायेगा जहां सांसद गपशप करने के लिए एकत्रित होंगे? अपनी गलतियों को छिपाने का यह तरीका लोकतान्त्रिक नहीं है सरकार का हर एक कदम राजनीतिक होता है और जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों का तो यह संवैधानिक कर्तव्य होता है कि वे सरकार की हर एक गतिविधि पर राजनीतिक दृष्टि से समीक्षा करे।
मज़बूत लोकतन्त्र की पहचान यह है कि इसमें सरकार जनता के प्रति अपने आपको जवाबदेह मानते हुए उसकी हर शंका का समाधान करने के लिए हमेशा प्रस्तुत रहती हैं। लेकिन मोदी सरकार के इन मन्त्रियों के इरादे कुछ अलग दिख रहे हैं। इनके नज़रिये में मज़बूत लोकतन्त्र का मतलब है मज़बूत सरकार। जब जब सरकार मज़बूत हुई है जनतन्त्र कमजोर पड़ा है। इन्दिरा गान्धी को दुर्गा का अवतार मानने वाले जनसंघ को उसकी मज़बूत सरकार के खिलाफ जयप्रकाशनारायण के नेत्तृत्व में जनता पार्टी के झण्डे के नीचे लड़ना पड़ा था। मज़बूत सरकार जब जनता को कमज़ोर करने की कारवाई करती है तो जनता उसे बदलने में देर नहीं लगाती।
वैसे मोदी सरकार के कदम पीछे हटने वाले नहीं दिखते। उनके अब तक के हावभव से स्पष्ट हो जाता है कि वे मैकियावली के प्रिंस की तरह अपनी गलती पर कभी सॉरी नहीं कहते। उन्हें सिखाया जाता है कि प्रिंस को सॉरी कहना शोभा नहीं देता। इससे जनता पर उनकी ग़लत छाप पड़ती है। इसी तरह जल्द निर्णय लेने वाले नरेन्द्र भाई मोदी भी अपनी गलतियों के लिए कभी क्षमा मांगने की बात सुनने के लिए भी तैयार नहीं है। देखना यह है कि भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणतन्त्र की चौखट में मोदी का प्रधानमन्त्री के रूप वाला फोटो कहां तक फिट हो पाता है ?


