समृद्धि की चमचमाती इमारतों की नींव में हिंसा की जाने कितनी काली छायाएं दफन होती हैं और जाने कितने विरोध और न्‍याय मांगती आवाजें गुम हो जाती हैं। अनुराग कश्‍यप की फिल्‍म ' बॉम्‍बे वेलवेट ' इतिहास लेखक ज्ञान प्रकाश की किताब 'मुंबई फैबल्‍स' के पन्‍नों में दर्ज 1960 और 70 के दशक का दृश्‍यांकन है, जिसमें आज़ शंघाई बनाये जा रहे मुंबई के 'बॉम्बे' बनने की कहानी है। यह कहानी ऐसे समय में है जबकि 'मुंबई' 'शंघाई' बन रहा है और उसकी कई कहानियां है, लेकिन एक भी पर्दे पर नहीं है।

दिल्‍ली विवि और जेएनयू से पढ़े और पेनसिल्विया विवि से इतिहास में डॉ की उपाधि प्राप्‍त ज्ञान प्रकाश आधुनिक इतिहास के गंभीर अध्‍येयता हैं। नेट से पता लगा कि वे आधुनिक दक्षिण एशियाई इतिहास, तुलनात्मक उपनिवेशवाद और उत्तर औपनिवेशिक सिद्धांत, शहरी इतिहास, विश्व इतिहास, और विज्ञान के इतिहास पर भी लिखते रहे हैं। उन्‍होंने कई किताबें लिखी हैं और उसी सीरीज में उनकी किताब 'मुंबई फैबल्‍स' भी है, जो बिखरी हुई मुंबई के आधुनिक बन जाने के इतिहास की ऐसी कई गलियों में आपको ले चलती हैं, जहाँ पूंजीपति, बिल्डर और कॉरपोरेट लॉबी एक शहर को अपने कब्जे में लेते हैं।
बहरहाल, किताब पढ़ी नहीं है और ज्ञान प्रकाश से भी बतौर लेखक यह पहला परिचय है। 'बावजूद इसके बॉम्‍बे वैलवेट' देखकर पता लगता है कि आधुनिक महानगरों और बड़े शहरों के निर्माण में 'रोजी और जॉनी' की प्रेम कथाओं के बीच देशपांडे जैसे जाने कितने मजदूर नेता और ट्रेड यूनियनों के आंदालनों को पूंजीपतियों ने अपने सपनों के खातिर कुचल दिया होगा। संभव हो फिल्‍म के अलावा किताब में कुछ और जानने को मिले।
राजनीतिक पृष्‍ठभूमि के भीतर यह जानना बड़ा रोचक है कि ' बॉम्‍बे वैलवेट ' 1960 और 70 के उस दशक की कहानी है, जब मुंबई को आधुनिक बनाने के लिए ट्रेड यूनियन आंदोलन कुचले जा रहे थे और वहीं जॉर्ज फर्नांडीज जैसे समाजवादी नेता ने एसके पाटील जैसे कांग्रेसी नेताओं की नींद हराम कर दी थी और कई उद्योगपतियों की नाक में दम कर दिया था। कमाल की बात है कि उसी काल में शिवसेना जैसी पार्टी बन चुकी थी और बाला साहेब ठाकरे जैसे नेता मराठी मानुस की राजनीति कर वामपंथी और समाजवादी आंदोलनों को अपने कब्जे में करने की सफल कोशिश कर रहे थे। हालांकि यह फिल्‍म में नहीं है। अनुराग संभत: एक बड़ा हिस्‍सा बताने से चूक गए। क्यों? क्योंकि रोजी और जॉनी सिनेमा बेच सकते हैं, ये सब नहीं।
खैर, वैसे महाराष्‍ट्र की ट्रेड यूनियन पॉलिटिक्‍स और बिल्‍डर लॉबी और शिवसेना की सियासत को समझने वाले राजनीति के जानकार शायद इसे विस्‍तार से समझा पाएं। खासकर जॉर्ज फर्नांडीज जैसे दक्षिण भारतीय व्‍यक्ति के उत्तर भारत में बड़े मजदूर नेता के उदय को।
बहरहाल, सात टापुओं में बिखरी मुंबई को हथियाने के लिए बिल्‍डरों ने जिस तरह नेताओं को खरीदकर, प्रशासन को जेब में रखकर, मजदूरों व उनके आंदोलनों खत्‍म कर और जॉनी जैसे अनाथ, बेरोजगार भटकों को बिग शॉट बनाकर मुंबई की जमीन पर कब्‍जा किया होगा, यह सबकुछ आप इस फिल्‍म में अनुराग के निर्देशन के कुछ बेहतरीन तेवरों के साथ देख सकते हैं।
पुरानी मुंबई का बेहतरीन दृश्‍यांकन, शानदार सेट, उम्दा छायांकन और रोशनी के बारीक, महीम और सुन्दर प्रयोगों के साथ कुछ शानदार लैंडस्‍कैप भारतीय दर्शक को सिनेमा में कुछ नया देखने की डाल सकते हैं।
यह फिल्‍म शुरुआत में बेहद थकी हुई है, ऐसा लगता है मानो कोई डॉक्‍यमेंट्री फिल्‍म चल रही है, लेकिन बाद में यह लय पकड़ती हुई आपको मुंबई के अतीत में ले जाती है। अभिनय के लिहाज से आप बहुत देर बाद पात्रों के भीतर उतर पाते हैं, ये फिल्‍म की कमजोर कड़ी है। लेकिन बावजूद इसके, यह इतिहास में डूबी मुंबई को रोशनी और सुन्दर सेट के माध्‍यम से देखना अच्‍छा लगता है। यह अनुराग की खासियत है।
निर्देशन के लिहाज से अनुराग को इस फिल्‍म के लिए बधाई दी जा सकती है, क्‍योंकि जब आपके सामने मुंबई के माफिया डॉन, राजनीतिक गणित और बिल्‍डर लॉबी की खूनी हिंसक महत्‍वाकांक्षाओं की ढेर कहानियां पास हों और उसी में 'वंस अपॉन अ टाइम इन' मुंबई जैसी फिल्‍म हों, तो फिर दोबारा उसी अतीत को फिल्‍मी पर्दे पर लेकर आना निर्देशक के रूप में हिम्‍मत का काम है। गाने, उनकी पृष्‍ठभूमि और संगीत यह कुछ नया है। फिल्‍म में नया देखने वालों को ताजगी देगा, जबकि सिनेमा को केवल मनोरंजन समझने वालों के गले में यह फिल्‍म उतरेगी नहीं और जैसी प्रतिक्रियाएं आईं हैं उतरी भी नहीं है।
खैर, जॉनी और रोजी की प्रेम कहानी के बीच मद्धम और छन छनकर आती हर महानगर के आधुनिक हुए इतिहास की काली रोशनी पर नजर डालने में दिलचस्‍पी रखने वाले इस देख सकते हैं। उस रूप में आप यह भी फील कर सकते हैं सात टापुओं में बंटी मुंबई को एक करने के पीछे की यह छोटी सी झलक भर है, तो कमाल है कि मुंबई को फिलहाल शांघाई बनाया जा रहा है, तो अभी क्‍या हो रहा होगा?
बहरहाल, हमारे आसपास इतना कुछ घट रहा है, किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं, मजदूर आंदोलन लगभग खत्‍म कर दिए गए हैं और पूंजीपति और कॉर्पोरेट सरकारें हमारे आसपास बहुत कुछ कर रही हैं, और हम अभी ही इस सब से दूर हो रहे हों, विषय को जानना ही नहीं चाह रहे हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं तो, तो यह छोटी सी फिल्‍म है, उसमें देशपांडे एक प्रतीक भर, सो क्‍या कहा जाए?
सिनेमा में हंसी, ठिठोली और मजाक ढूंढने वालों को बॉम्‍बे का यह वैलवेट बड़ा कठोर सा फील देगा। पैसे बर्बाद ही जाएंगे। बाकी फिर सबकी अपनी-अपनी समझ है। कई फ़िल्में हमारी सियासत की छाया भी होती है सो देखना चाहिए। मुक्तिबोध की इस बात को याद करते हुए 'कि राजनीति के बाहर कुछ भी नहीं होता', न हम न आप, न समाज और न ये सिनेमा, जिसमें एक शो मैन रूस के समाजवाद को दिखा रहा था जबकि इस दौर में कई निर्देशक अपनी व्यावसायिक मज़बूरी के बीच में उसकी झलक भर दिखा रहे हैं। फिलहाल तो यह उत्पाद है, पैसे आपके भी लगेंगे सो सोच समझकर जाइये, संभव हो मनोरंजन न भी मिले।
सारंग उपाध्‍याय
सारंग उपाध्याय युवा पत्रकार व फिल्म समीक्षक हैं।