मीडिया के क्षेत्र में पहला राउंड अरविन्द केजरीवाल ने जीत लिया है।
नई दिल्ली। दिल्ली विधान सभा का चुनाव बहुत ही दिलचस्प हो गया है। लोक सभा चुनाव २०१४ के बाद कई विधान सभाओं के चुनाव हुए लेकिन भाजपा ने किसी भी चुनाव में मुख्यमंत्री पद का दावेदार नहीं घोषित किया। पार्टी की तरफ से हर जगह तर्क दिया गया कि भाजपा कभी भी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार नतीजे आने के पहले नहीं घोषित करती। ऐसा करने से राज्य में सक्रिय सभी गुटों को साथ रखना आसान हो जाता था। दूसरी बात यह थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लोक सभा चुनाव के पहले बना हुआ करिश्मा काम कर रहा था। उनके नाम पर ही हर विधान सभा का चुनाव लड़ा गया और पार्टी को अच्छी सफलता मिली। जहां भाजपा की कोई हैसियत नहीं थी, वहां आज उनकी सरकार है। महाराष्ट्र में भाजपा शिवसेना की सहायक पार्टी होती थी आज रोल पलट गया है। अब भाजपा मुख्य पार्टी है, उसकी सरकार है और शिवसेना की भूमिका केवल सरकार में शामिल होने भर की है। भाजपा को अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए शिवसेना की ज़रुरत नहीं है। जम्मू-कश्मीर में भाजपा आज सरकार बनाने की कोशिश कर रही है जहां उसकी चुनावी राजनीति हमेशा से ही बहुत कमज़ोर रही है। राज्य में भाजपा को आज़ादी के पहले की पार्टी प्रजा परिषद की वारिस के रूप में देखा जाता है। प्रजा परिषद के बारे में कहते हैं कि वह एक ऐसी पार्टी थी जिसे जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा ने शुरू करवाया था और उस दौर के जम्मू-कश्मीर के सबसे लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला के खिलाफ उसका इस्तेमाल किया जाता था। इसलिए प्रजा परिषद् की कोई ख़ास इज्ज़त नहीं थी। भारतीय जनसंघ और भाजपा को उसी विरासत की वजह से बहुत नुक्सान होता रहा था। इस बार विधान सभा चुनाव में जम्मू और लद्दाख में भाजपा ने चुनावी सफलता पाई है और उसका क्रेडिट प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता को दिया जाता है। इस तरह से साफ़ नज़र आ रहा है है कि मई २०१४ में जो नरेंद्र मोदी की लहर बनी थी वह जारी थी।
दिल्ली विधान सभा चुनाव के अभियान के शुरुआती दौर में भी भाजपा नेतृत्व का यही आकलन था लेकिन अब बात बदल गयी है। अब उनको साफ़ लगने लगा है कि अरविन्द केजरीवाल अन्य राज्यों की विपक्षी पार्टियों के नेताओं की तरह थका हारा नेता नहीं है। वह दिल्ली के एक लोकप्रिय नेता हैं और विधान सभा चुनाव जीत भी सकते हैं। ऐसी हालत में भाजपा में ज़बरदस्त मंथन चला। भाजपा वाले दिल्ली विधान सभा का चुनाव हर हाल में जीतना चाहते हैं लेकिन अगर कहीं हार की नौबत आयी तो उसका ठीकरा नरेंद्र मोदी के सर नहीं फूटने देना चाहते। पार्टी अध्यक्ष के आकलन में दिल्ली भाजपा में इतने गुट हैं कि उनमें से किसी के सहारे जीत की उम्मीद नहीं की जा सकती। अमित शाह को हर हाल में जीत चाहिए इसलिए उन्होंने अरविन्द केजरीवाल की काट के रूप में किरण बेदी को आगे कर दिया। बहुत सारे लोग यह कहते पाए जा रहे हैं कि किरण बेदी बलि का बकरा के रूप में नेता बनाई गयी हैं। अब अगर पार्टी जीत गयी तो नरेंद्र मोदी की जीत के सिलसिले में दिल्ली विधान सभा की जीत भी दर्ज कर दी जायेगी और अगर हार गयी तो यह माना जाएगा कि टीम अन्ना के दो सदस्यों के बीच मुकाबला हुआ और एक के हाथ पराजय लगी।
किरण बेदी की मीडिया प्रोफाइल इतनी अच्छी है कि उनका नाम आते ही आमतौर पर विजेता की छवि सामने आ जाती है। मुझे याद है कि दिल्ली में सक्रिय पत्रकारों के एक वर्ग ने इमरजेंसी के टाइम से ही उनकी मीडिया प्रोफाइल बनाना शुरू कर दिया था। तरह-तरह की कहानियां उनके बारे में छापी गयीं। यहाँ तक कि कई कहानियां बिलकुल झूठी हैं लेकिन मनोरंजक हैं। एक उदाहरण काफी होगा। एक प्रचार यह किया गया कि ट्रैफिक पुलिस के इंचार्ज के रूप में उन्होंने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की कार का चालान कर दिया था क्योंकि वह नो पार्किंग ज़ोन में पार्क की गयी थी। अब कोई पूछे कि प्रधानमंत्री की कार किसी चपरासी की साइकिल नहीं है कि कहीं भी लगा दी जाए। और जब किरण बेदी ट्रैफिक पुलिस में थीं तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बहुत बड़ी नेता थीं। किरण बेदी को उनकी कृपा प्राप्त थी। उन दिनों किसी पुलिस अधिकारी की औकात नहीं थी कि वह उनकी कार के पास फटक भी जाए लेकिन अखबारों में चल गया तो चल गया।
बहरहाल एक बहुत ही बड़े मीडिया प्रोफाइल के साथ किरण बेदी ने इंट्री मारी है और अब यह देखना बहुत ही मनोरंजक होगा कि अरविन्द केजरीवाल उनको मीडिया के मैदान में क्या जवाब दे पाते हैं।
मीडिया के क्षेत्र में पहला राउंड अरविन्द केजरीवाल ने जीत लिया है। अरविन्द केजरीवाल बाल्मीकि मंदिर से पर्चा दाखिल करने चले और २-३ किलोमीटर की दूरी में दिन भर लगा दिया। हर टी वी चैनल पर उनके साथ चल रही भीड़ की तस्वीरें दिखती रहीं और ख़बरें चलती रहीं। अपनी इस यात्रा से केजरीवाल ने यह साबित कर दिया कि उनको मीडिया प्रबंधन की टेक्नीक आती है और इस अप्रत्याशित कार्य से उन्होंने साबित कर दिया कि उनको नरेंद्र मोदी के मीडिया प्रबंधकों से बेहतर समझ मीडिया की है। लोक सभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने मीडिया का जैसा इस्तेमाल किया था ,अरविन्द केजरीवाल ने उस योग्यता से बेहतर प्रदर्शन करके यह उम्मीद जगा दी है कि दिल्ली विधान सभा का चुनाव बहुत ही दिलचस्प रहने वाला है।
चुनाव में क्या नतीजे होंगें उसकी भविष्यवाणी करना पत्रकारिता के मानदंडों की अनदेखी होगी और वह ठीक नहीं होगा लेकिन मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में अरविन्द केजरीवाल को कमज़ोर मानना राजनीतिक समझदारी नहीं होगी। किरण बेदी की आगे करके भाजपा ने संभावित हार की ज़िम्मेदारी से नरेंद्र मोदी को तो मुक्त कर लिया है लेकिन भाजपा की जीत को पक्का मानने का कोई आधार नहीं है। कांग्रेस ने भी प्रचार शुरू कर दिया है और इस बात की पूरी संभावना है कि वह इस बार भाजपा के ही वोट काटेगी। पिछली बार कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के वोट लगभग एक इलाकों से आये थे, उनका क्लास भी वही था। आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के मतदाताओं को लगभग पूरी तरह से अपनी और कर लिया था। भ्रष्टाचार विरोधी अवाम का वोट भाजपा और आम आदमी पार्टी में बंट गया था। लेकिन इस बार तस्वीर बदल चुकी है। इस बार कांग्रेस और भाजपा ने अरविन्द केजरीवाल को लगातार भगोड़ा के रूप में प्रस्तुत किया है। उनको भगोड़ा मानने वाले, धरना प्रदर्शन से नाराज़ रहने वाले ज़्यादातर लोग अरविन्द केजरीवाल के खिलाफ वोट करेंगे और इस तरह से उनको मिडिल क्लास के अपने इन समर्थकों से होने वाले नुक्सान की भरपाई दलित और गरीब इलाकों में अपने को और मज़बूत करके पूरा करना होगा।
हालांकि यह चुनाव भी नरेंद्र मोदी की उपलब्धियों और वायदों पर केन्द्रित होगा लेकिन मुख्यमंत्री पद के दोनों दावेदारों की अच्छाइयां बुराइयां १० फरवरी को आने वाले नतीजों पर मुख्य असर डालने वाली हैं।
अरविन्द केजरीवाल के पक्ष में सबसे ज़्यादा जो बात जा रही है वह भाजपा के अन्दर चारों तरफ फ़ैल चुकी कलह है। टिकट के बंटवारे को लेकर भी अन्दर ही अन्दर बहुत नाराज़गी है। सीनियर नेताओं में भी निराशा है। उनको लगता है कि जिस किरण बेदी को वे लोग जीवन भर कांग्रेस की वफादार मानते रहे और दिल्ली में कांग्रेस सरकारों की मनमानी को झेलते रहे उसी किरण बेदी को भाजपा का दिल्ली का सर्वोच्च नेता मानना पड़ रहा है। उनको यह भी मालूम है कि अगर किरण बेदी एक बार स्थापित हो गयीं तो पंद्रह साल पहले वे छोड़ने वाली नहीं हैं। कांग्रेस में इन्हीं सीनियर नेताओं के भाई बन्दों और रिश्तेदारों ने पंद्रह साल तक शीला दीक्षित को देखा है। उनके अपने कार्यकर्ताओं और प्रापर्टी डीलरों को शीला दीक्षित ने कोई मौक़ा ही नहीं दिया था।
इस बात की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा के सीनियर लीडर किरण बेदी को किनारे करने के लिए काम करेगें। किरण बेदी के खिलाफ तो शायद खुली बगावत न हो लेकिन कांग्रेस और आम आदमी पार्टी से आये उन लोगों की हार केलिए भाजपा के कार्यकर्ता ज़रूर काम करेंगे जिनके खिलाफ कल तक हर गली मोहल्ले में लडाइयां होती रही हैं। इसके अलावा आर्विंद केजरीवाल की राजनीतिक पकड़ दलितों मुसलमानों और गरीब आदमियों में जैसी थी वैसी ही बनी हुयी है। २०१३ के विधान सभा चुनावों में दलितों के लिए रिज़र्व बारह सीटों में आम आदमी पार्टी ने नौ सीटों पर जीत दर्ज कराई थी। वैसे भी दिल्ली की में दलित मतदाता अगर मुसलमानों से मिल जाएँ तो सबसे बड़ा वोट बैंक बनता है। अरविन्द केजरीवाल ने जो घर घर जाकर चुनाव प्रचार की शैली अपनाई है वह इस बार भी चल रही है और इस बार भी उसका फायदा उनके अभियान को होगा, ऐसा उनके समर्थक मानते हैं।अरविन्द केजरीवाल ने अपनी छवि एक ऐसे आदमी की बना रखी है जो बहुत ही ईमानदारी से काम करता है और भ्रष्टाचार को बर्दाश्त नहीं कर सकता। वह उनके काम आने वाला है।
भाजपा के अभियान में सबसे बड़ी अड़चन भाजपा के पुराने कार्यकर्ता ही रहने वाले हैं। नेताओं को तो अमित शाह समझा बुझा देगें। गायक सांसद मनोज तिवारी ने पहले दिन किरण बेदी के खिलाफ कुछ बोल दिया था लेकिन बाद में उनका राग पार्टी लाइन पर आ गया। डॉ हर्षवर्धन को तो अमित शाह ने बिलकुल किरण बेदी की अपनने सीट से उनको जितवाने का ज़िम्मा ही सौंप दिया है। सतीश उपाध्याय को अरविन्द केजरीवाल के बिजली मीटर पुराण में खलनायक बनाकर टाल दिया गया है। ज़ाहिर है भाजपा के बड़े नेता इन दिक्क़तों से पार्टी को निजात दिला देगें लेकिन अगर अरविन्द केजरीवाल और उनके समर्थकों ने किरण बेदी के बारे में वे खबरें सार्वजनिक कर दीं तो किरण बड़ी के लिए खासी मुश्किल पैदा हो सकती है। क्योंकि समय-समय पर दुनिया भर के अखबारों में उनके खिलाफ छपता रहा है और उन्होंने उसका खंडन नहीं किया है। किरण बेदी की छवि एक ऐसे अधिकारी की रही है जो बहुत ही सख्त मानी जाती हैं। पुलिस अफसर के रूप में उनके ऊपर किसी तरह के आर्थिक भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे हैं। इसलिए उनको निश्चित रूप से एक मज़बूत दावेदार माना जा सकता है लेकिन परेशानी केवल उनकी यही हो सकती है कि उनके सामने अरविन्द केजरीवाल खड़े हैं जो अपनी बेदाग़ और जनपक्षधर इमेज के सहारे ज़बरदस्त चुनौती दे रहे हैं।
शेष नारायण सिंह