अपना अस्तित्व बचाने को मुसलमानों को ब्लैकमेल कर रहीं सपा और बसपा
अपना अस्तित्व बचाने को मुसलमानों को ब्लैकमेल कर रहीं सपा और बसपा
अपना अस्तित्व बचाने को मुसलमानों को ब्लैकमेल कर रहीं सपा और बसपा
अस्तित्व का संकट और ब्लैकमेल की राजनीति
हरे राम मिश्र
ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य में मुस्लिम मतदाताओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होने वाली है। जिस तरह का राजनैतिक माहौल बनाया जा रहा है, उससे यह बात साफ हो गई है कि आगामी विधानसभा चुनाव में सपा और बसपा के चुनावी और पॉलिटिकल ’परफार्मेंस’ का भविष्य मुस्लिम मतदाताओं द्वारा ही तय किया जाएगा।
ऐसा माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में मुसलमान जिस दल तरफ झुक जाएंगे उस दल के लिए सत्ता की राहें आसान हो जाएगीं। हालांकि, मुसलमानों का यह वोट बैंक विधानसभा चुनाव में उन्हें बहुमत दिला पाएगा या नहीं- यह तो साफ नहीं है, लेकिन भाजपा की प्रतिद्वन्दी पार्टियां यह कोशिश कर रही हैं कि मुसलमानों का वोट ’टैक्टिकल’ वोटिंग की जगह भाजपा विरोध के नाम पर ’थोक’ के स्तर पर किसी खास दल बसपा या फिर सपा में शिफ्ट हो जाए।
अगर ऐसा हो सका तो यह उन्नीस प्रतिशत का ठोस वोट भाजपा विरोधी किसी दल को विधानसभा चुनाव में कुछ मजबूती दे पाएगा।
हलांकि, वोट बैंक के रूप में मुसलमानों को लुभाने के लिए सभी राजनैतिक दल अपने अपने स्तर से प्रयास करने में जी जान से भले ही लगे हुए हैं, लेकिन मुसलमानों ने अभी तक अपने पत्ते नहीं खोले हैं। यही वजह है कि मुसलमानों को कभी धोखेबाज कहने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती जहां एक ओर प्रदेश के मुसलमान मतदाताओं से उनकी सुरक्षा और सांप्रदायिक हिंसा से मुक्ति के नाम पर वोट मांग रही हैं तो वहीं दूसरी ओर मुजफ्फरनगर जैसा भीषण दंगा करवाने वाले मुलायम सिंह यादव मुसलमानों को बाबरी मस्जिद विध्वंस के खिलाफ कारसेवकों पर की गई गोलीबारी की याद दिला रहे हैं।
मायावती को जहां यह लग रहा है कि वह दलित-मुस्लिम एकता के आधार पर उत्तर प्रदेश की सत्ता में वापस आ जाएंगी वहीं, समाजवादी पार्टी मुस्लिम मौलानाओं और धर्म गुरुओं से सपा के पक्ष में वोट करने के लिए ’फतवे’ लाने की जी तोड़ कोशिश कर रही है।
कांग्रेस पार्टी भी मुसलमानों को लुभाने के लिए अपने स्तर से प्रयास कर रही है लेकिन एक मृत संगठन और विलुप्त हो चुके ढांचे के दम पर इस बात में बहुत संदेह है कि प्रदेश के मुसलमानों में वह कोई भरोसा जगा पाएगी।
अजीत सिंह अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं और उन पर कोई विचार करना ही समय की बर्बादी होगा। लेकिन, मुसलमानों को लुभाने की क्षेत्रीय दलों की इन कोशिशों के बाद, कुछ सवाल भी पैदा होना लाजिमी है।
क्या इस देश में मुसलमानों के लिए उनकी सुरक्षा और सांप्रदायिक हिंसा से मुक्ति का सवाल ही उनका सबसे बड़ा सवाल है?
आखिर इस समुदाय की गरीबी, बेकारी, भुखमरी, अशिक्षा, पिछड़ापन और सामाजिक सुरक्षा का प्रश्न क्या सुरक्षा के इस सवाल आड़ में एक बार फिर से छिप जाएंगे?
क्या पिछले चुनावों की तरह इस चुनाव में भी मुसलमानों का सुरक्षा संबंधित मुद्दा ही एक प्रमुख सवाल के बतौर हावी रहेगा?
और फिर, क्या चुनाव में केवल सुरक्षा को प्रमुख सवाल बनाकर मुसलमानों को सुरक्षा और सांप्रदायिक हिंसा से महफूज रखने के नाम पर राजनैतिक स्तर पर उन्हें ब्लैकमेल नहीं किया जा रहा है? यह बात इसलिए भी लाजिमी है क्योंकि इस देश के हर नागरिक के लिए सुरक्षा और किसी भी किस्म की धार्मिक और सांप्रदायिक हिंसा से मुक्ति की गारंटी संविधान द्वारा की जाती है।
फिर आखिर यह कैसी मजबूरी है कि मुसलमानों के सारे सवाल उनकी सुरक्षा के इर्द-गिर्द ही घूम रहे हैं और उनके विकास और प्रगति का मुद्दा इन्हीं सवालों की आड़ में गुम किया जा रहा है।
यह सवाल तब और भी लाजिमी हो जाता है जब सपा और बसपा जैसी पार्टियों के शासनकाल में मुसलमानों पर जमकर सांप्रदायिक हिंसा होती है और उन्हें फर्जी तरीके से पुलिस द्वारा आतंकवादी बताकर महीनों अवैध हिरासत में रखा जाता है।
दरअसल मुसलमानों को सुरक्षा के नाम पर ब्लैकमेल करने की इस राजनीति के पीछे की असलियत पर जब विचार किया जाता है तो फिर मंडल के सामाजिक न्याय की राजनीति का फासीवादी चरित्र भी बेनकाब हुए बिना नहीं रह जाता है।
वास्तव में आज भाजपा द्वारा जिस उग्र राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व के आक्रामक प्रचार की राजनीति की जा रही है, उसमें दलित और पिछड़े भी समाहित हो जाते हैं। चाहे वह मायावती हों या फिर मुलायम सिंह यादव- इस सवाल पर उनके पास कोई जवाब नहीं होता कि आखिर दलित और पिछड़े ही मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक हिंसा में मुसलमानों का कत्ले आम करती भीड़ में बहुतायत में मार-काट करते हुए क्यों दिखाई पड़ते हैं।
दरअसल, मुसलमानों को ब्लैकमेल करने की इस राजनैतिक टैक्टिस को समझ लेना वर्तमान में बहुत आसान है।
मोदी के उदय के बाद, सामाजिक न्याय की पूरी राजनीति भी सेक्युलरिज्म के सवाल पर नंगी हो गई है। दरअसल, मंडल की पूरी बहस हिन्दुत्व में समाहित होने और एक वर्ण व्यवस्था में सम्मान की जगह पाने की लड़ाई है।
सामाजिक न्याय के जितने भी राजनैतिक पुरोधा हैं सब ने हिन्दुत्व के साथ खुलेआम या चोरी-छिपे राजनीतिक यारी निभाई है।
यह बात बहुत साफ है कि दलित या फिर पिछड़ों के साथ मुस्लिमों की कोई स्वाभाविक मित्रता नहीं हो सकती और यह केवल ’बेमेल’ बुद्धिविलास से ज्यादा कुछ नहीं है।
इसकी असलियत यह है कि मुसलमान वर्ण व्यवस्था के तंत्र में कहीं फिट नहीं बैठता और मंडल की पूरी बहस ’आईडेंटिटी’ पॉलिटिक्स में फंसकर हिन्दुत्व को मजबूत करने लगती है।
इसीलिए मुसलमानों को सुरक्षा के नाम और आश्वासन पर किसी मायावती और मुलायम सिंह यादव के साथ कतई नहीं जाना चाहिए।
यह केवल सुरक्षा के नाम पर मुसलमानों को ब्लैकमेल कर सकते हैं। कोई सुरक्षा नहीं दे सकते हैं। अतीत के अनुभव इसके गवाह हैं।
इधर, मुलायम सिंह यादव के यहां प्रायोजित घरेलू कलह के बाद महागठबंधन की बात की जा रही है-उसका भी कोई मतलब नहीं है। उत्तर प्रदेश में बिहार जैसे किसी ’महागठबंधन’ का कोई सवाल ही नहीं है। क्योंकि उत्तर प्रदेश में लालू प्रसाद और नीतिश कुमार की खास राजनैतिक पकड़ नहीं है। जहां तक अजीत सिंह की रालोद का सवाल है, अपने मूल चरित्र में यह दल भी भाजपा के साथ सरकार में रह चुका है और अभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कोई कमाल दिखा पाने की हैसियत में नहीं हैं।
चूंकि समाजवादी पार्टी का पूरा चरित्र ही सेक्यूलरिज्म के मसले पर लंबे समय से संदिग्ध रहा है और बिहार में महागठबंधन से मुलायम सिंह यादव द्वारा जिस तरह का न केवल पलायन किया गया, बल्कि महागठबंधन को कमजोर करने की सियासी कोशिशें भी की गईं, उससे साफ हो जाता है कि उत्तर प्रदेश में कोई महागठबंधन नहीं बनने जा रहा है और यह महज एक बुद्धि विलास भर है।
मुसलमानों को इस महागठबंधन से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए।
जहां तक मुसलमानों के अचानक ’महत्वपूर्ण’ हो जाने के पीछे की परिस्थितियों का सवाल है- इसके पीछे की असलियत मोदी सरकार का कई मोर्चों पर ’फेल’ हो जाना है।
नरेन्द्र मोदी की असफलताओं से उपजे आक्रोश के कारण ऐसा माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की आवाम विधानसभा के लिए ’खंडित’ जनादेश दे सकती है। अगर ऐसा हुआ तो फिर भाजपा, सपा और बसपा में सीटों का बंटवारा हो जाएगा और बहुमत कोई नहीं पाएगा।
भाजपा अभी यह मानकर चल रही है कि वह उग्र मुस्लिम विरोधी राष्टवाद या हिन्दुत्व के जरिए उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़ों की हिन्दुत्व के साथ गोलबंदी करके यूपी का विधानसभा चुनाव जीत लेगी।
पाकिस्तान के खिलाफ कथित सर्जिकल स्टाइक का प्रचार और मध्य प्रदेश में सिमी के आठ संदिग्धों की न्यायिक हिरासत में हत्या उसकी इसी इसी रणनीति का हिस्सा है।
अगर ऐसा हो पाया तो फिर यह साफ है कि भाजपा द्वारा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया जाएगा। चाहे वह मायावती हों या फिर मुलायम सिंह यादव-दोनों के ही पास भाजपा के उग्र हिन्दुत्व की काट का कोई ठोस विकल्प मौजूद नहीं है।
पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह से इन दोनों दलों का सफाया हुआ है उसकी एक वजह उग्र हिन्दुत्व का आक्रामक प्रचार भी था।
इससे यह बात साफ हो जाती है कि अपने वजूद को बचाने के लिए मुसलमानों को ब्लैकमेल करने वाले सपा और बसपा से मुसलमानों को बच कर रहना चाहिए।
सपा और बसपा अपने अस्तित्व के लिए मुसलमानों को ब्लैकमेल कर रही हैं।
अतीत के सबक यह बताते हैं कि मुसलमानों के लिए इनकी प्रतिबद्धता केवल एक ’फ्राड’ से ज्यादा कुछ भी नहीं है।


