अपनी कलम कलंकित कर डाली मीर डभाल ने !
अपनी कलम कलंकित कर डाली मीर डभाल ने !

भंवर मेघवंशी
" खूब काढ़ता खालड़ा, मुआ गिटकता मांस
भाम्भी अब नेता भये, चूकल मांगे चांस"
राजस्थान में अनुसूचित जाति की सूची में 17 वें नम्बर पर दर्ज भाम्भी जाति पर राजस्थानी भाषा के एक कवि मीर डभाल ने यह अपमानजनक रचना पूर्व संसदीय सचिव गोविन्द राम मेघवाल के लिए लिखी है, जिसमें साफ तौर पर उन्हें मरे जानवरों का मांस खाने वाले, चमड़ा उतारने वाले भाम्भी के रूप में देखते हुए पूरी कम्युनिटी पर उक्त जातिसूचक अपमानजनक तोहमत लगाई गई है।
इतना ही नहीं बल्कि गोविन्द राम को नीच बताते हुए नेम मर्यादा भूल जाने वाला ओछा आदमी तक कह दिया गया है -
पारख झट पड़ जाये है, ओछापण री ऐम।
गोविन्द बोले गालियां, नीच भूल्यो नेम ।।।
गोविन्द राम को नीच, मूर्ख तथा ओछी जात तक का भी बताया गया है।
राजस्थानी भाषा के एक साहित्यकार का अपने रचनाकर्म के ज़रिये इस हद तक नीचे गिरने का ऐसा उदाहरण शायद ही दूसरा मिलेगा। एक पूरी दलित जाति के प्रति ऐसी नफरत का प्रकटीकरण किया गया है कि पढ़ने वाले तक को शर्म आने लगती है।
मीर डभाल ने यह रचना इसलिए रची ताकि वे गोविन्द राम द्वारा किये गए अपने देवी देवताओं के अपमान का बदला ले सके।
डभाल की रचना से राजस्थानी भाषा जगत में व्याप्त जातिवाद की बहुत गहरे पैठी घृणित मानसिकता बखूबी उजागर होती है।
गौरतलब है कि गोविन्दराम मेघवाल ने 14 अप्रैल के समारोह के दौरान अपने भाषण में काल्पनिक देवता भैरू माताजी आदि की जमकर खबर ली थी। इससे ब्राह्मणवादी एवम मनुवादी लोग भयंकर नाराज हो गए।
उनके खिलाफ अलग-अलग थानों में मुकदमे दर्ज हो चुके हैं, उनको चारों तरफ से घेर कर उनके राजनितिक कैरियर का समापन किया जा रहा है।
ताज़ा खबर यह है कि अब गोविन्द राम जी काफी नरम पड़ गए हैं। माता के भक्तों से माफ़ी मांगते हुए वे स्वयं को माता का सबसे बड़ा भक्त भी बताने में जुट गए हैं।
एक डरा हुआ राजनेता सबसे बड़ा कायर प्राणी होता है। वह पहले जोश में कुछ कहता है, फिर उस पर बवाल होता है, लोग उसका समर्थन या विरोध करने लगते हैं। खेमे बन जाते हैं और शस्त्र तन जाते हैं। लोग साथ आने लगते हैं संघर्ष के लिए और नेता जी माफ़ी मांगने लग जाते हैं, जैसे गोविन्द राम अब मांग रहे हैं, लगभग मिमियाते हुए या रिरियाते हुए।
गोविन्द जी अव्वल तो बोलते ही नहीं, जब सही बात बोल ही गए तो अब माफ़ी क्यों ? आप जब माफ़ी मांगने लगते हैं तो आपके साथ खड़े होने की तैयारी कर रहे लोग क्या करेंगे ?
ऐसे मामले विचारधारा के संघर्ष के होते हैं। इसमें दो व्यक्ति नहीं बल्कि दो विचारधाराएं लड़ती हैं।
गोविन्द राम मेघवाल राजनीतिक व्यक्ति हैं, अब वे कह रहे हैं कि हम तो वोट लेने के लिए हर धर्मस्थल जाते हैं, यहाँ तक कि भोमिया और पितर जैसे एकदम लोकल तथा निजी देवताओं के भी धोख लगाते हैं। इतना ही नहीं बल्कि उन्होंने स्वयं को करणी माताजी का बड़ा भक्त भी घोषित करके रही सही कसर भी पूरी कर दी है, अब मिशनरी लोग किसके लिए लड़ेंगे ?
गोविन्द जी परिवर्तनशील विचारधारा के धनी व्यक्ति रहे हैं, कभी दलित सेना में हुआ करते थे। फिर जनता दल, भाजपा होते हुए कांग्रेस के मंडप तक में बैठ चुके हैं। सुविधा के मुताबिक विचारधारा को अपना सकते हैं और त्याग भी सकते हैं।
खैर, गोविन्द राम ठहरे राजनेता, जहाँ कह कर पलट जाना एक राजनीतिक दक्षता मानी जाती है, मगर ये मीर डभाल नामक साहित्यक जीव को क्या हो गया ? उसने राजनीति की छोड़ी हुई जूतियां क्यों अपने सर पर उठा लीं ? कैसे एक रचनाकार इतना नीचे गिर गया कि उसने एक पूरी जाति को ही अपमानित करने वाली रचना लिख कर अपनी कलम कलंकित कर डाली ?
भारतीय भाषाओं में राजस्थानी संभवतः एक ऐसी दरिद्र भाषा है जिसमें वंचित वर्ग की पीड़ा की सबसे कम मौजूदगी है। शायद जिस तरह की संवेदशीलता दलित, पीड़ित, दमित वर्ग पर कलम चलाने के लिए जरुरी है,उसका यहाँ सदैव अभाव रहा है। राजस्थानी के साहित्य में सामंती दुर्गणों का ही गौरवगान दरबारी कवियों ने ज्यादा किया है। यह स्तुति साहित्य छोटे छोटे प्रलोभनों और ख़ौफ़ के चलते रचा गया, जिसमें जातिवाद और सामंतशाही की सड़ांध बहुतायत में मौजूद है। मदिरापान, अय्याशियां और अतिरंजित रक्तपात के बेसिर पैर के हवा हवाई किस्से तथा सामंती कुचक्रों और विजय के झूठे दावों को ही राजस्थानी का साहित्य क्यों होना चाहिए ?
भाषा के नाम पर जाति विशेष का प्रभुत्व और उनकी रचनाओं से निकलने वाला जातिवाद का मवाद राजस्थानी को समृद्ध नहीं करता है। जिस प्रकार की घृणित भाषा शैली में कविवर मीर डभाल ने राजस्थान की एक सम्मानित दलित जाति के प्रति अपनी जातीय घृणा प्रदर्शित की है, वह आलोचना नहीं बल्कि लानत भेजने के योग्य है। उनका कवि कर्म निंदनीय है, जो उन्होंने गोविन्द राम के बहाने अपनी निकृष्ट जातिवादी सोच प्रकट की है वह कानूनन दंडनीय है। जरूर उनके विरुद्ध भी उसी तरह जगह-जगह मुकदमे दर्ज होने चाहिएं, जैसे गोविन्द राम के खिलाफ हुए हैं।
अंत में गोविन्द राम जी आपसे बस यही कहना चाहता हूँ कि यह हाथ की अँगुलियों में भांत भांत के पत्थरों की अंगूठियां फंसा कर, स्वयं को माताजी का सबसे बड़ा भक्त साबित करके आप मनुवाद के खिलाफ नहीं लड़ रहे हैं बल्कि उसी को प्रबल कर रहे हैं। हिम्मत कीजिये, ठोकर मारिये इस घृणित मनुवाद को और हिंदूवाद के नाम पर अधिरोपित किये जा रहे ब्राह्मणवाद से दो-दो हाथ कीजिये। ये माता जी के भगत का चोला उतार फेंकिये। इस गुलामी से मुक्त हो जाना ही सच्चा अम्बेडकरवादी होना है, वरना तो मीर डभाल जैसे जातिवादी रचनाकारों का नीच हिन्दू ही बने रहना श्रेयस्कर है।
चुनाव आपका है, गाली या गरिमा में से एक को चुन लीजिये, इतिहास याद रखेगा, नहीं तो इतिहास बन जाओगे।
( भंवर मेघवंशी, स्वतंत्र पत्रकार एवम् सामाजिक कार्यकर्ता )


