अपने पड़ोस के 'तालिबान' को कब मारेंगें हम ?
अपने पड़ोस के 'तालिबान' को कब मारेंगें हम ?
पेशावर को मत पैदा होने दें। पेशावर को पसरने से हम रोक सकते हैं।
दिल्ली से पटना और पेशावर की दूरी एक है। मोदी से मांझी तक पहुँचते-पहुँचते हमारे राष्ट्र बदल सा जाते हैं। इसी रास्ते में मथुरा, अलीगढ़, आगरा और अयोध्या पड़ता है जहाँ आपको लव- जिहाद और धर्मान्तरण का शोर सुनायी पड़ेगा। शायद संसद की सियासी होड़ और शोर से ज्यादा ? शांति और सद्भाव को सूली पर चढ़ा कर सभी अपना अपना राष्ट्र लिए घूम रहे हैं। इस्लामी राष्ट्र भी इसी अभियान का हिस्सा है।
हम तालिबानियों के पड़ोसी हैं। हमारे परिजन भी तालिबानी बन रहे हैं। विल्कुल कट्टर और असहिष्णु ! किसी योगीनाथ और शाह या ओबैसी के भाषण पर बज रही तालियाँ तालिबान को ही तो जन्म देती हैंं ! ये ताली बजाने वाले हर जगह मिलेंगें चौक और चौपाल सभी जगह। तालिबानी एक प्रक्रिया है निष्पत्ति नहीं ।
जो समूह अपने इस भीतर के तालिबान को नहीं मार पायेगा वह भला बाहर के तालिबान से कैसे लड़ पायेगा ?
स्यात घाटी में भी सैकड़ों बच्चे सैनिक कारवाई में मारे गए । मुझे उसका भी गम है। मैं गमगीन और गुस्से में हूँ #पेशावर की चीख - पुकार पर भी।
पेशावर की दर्दनाक मौत पर उत्सवधर्मी मीडिया और हमारा समाज लगातार दुखोत्सव में डूबा है। यह दुःख निर्गुण और निराकार है। इस उत्सव का निदान से कोई नाता नहीं है। ये आगजनी भी करते हैं अग्निशामक यंत्र भी बेचते हैं।
हम नहीं चाहते कि हमारा बच्चा धर्म के दबाव से मुक्त हो और वह किसी कुत्सित और कालबाह्य संस्कारों के बोझ के तले घुटता - पिसता रहे। हम उसे हिन्दू और मुसलमान बनाने पर तुले हैंं। पूरी जिन्दगी इन नवजातों को धार्मिक कुंठा में जीने को अभिशप्त कर देते हैं। इनके सुन्नत और संस्कार से आज तक कोई सुन्दर समाज नहीं बन पाया है।
ये तालिबानी उसी रोपे बबूल के पेड़ हैं। हम इन हिन्दुओं और मुसलमानों से मानवीय मिठास की उम्मीद करते हैं जो एक विडम्बना ही है ?
कुरान पढ़े या कोकशास्त्र और गायत्री-परिवार में रहे या गे-परिवार में , हम इनके स्वतंत्रता के नियंत्रक होते कौन हैं?
सत्ता , संसाधन और संपत्ति के खेल में शामिल कौन है ? कौन है इस खूनी खेल के पीछे ? मकसद उनका स्पष्ट है। केवल धर्मराजों का यह खेल नहीं है। इसके पीछे बाजार और व्यवस्था की भी ताकत है। इसे केवल धार्मिक उन्माद कहकर इस घटना को रफा-दफा नहीं किया जा सकता है।
आतंकवाद और अराजकता के बहाने बहेलिया फिर हमारे अमन चैन ख़त्म करने आ धमकेंगें।
अफगान की अपार खनिज सम्पदा पर ताकतवरों की निगाहें हैं। हथियार के भी अपने बाजार हैं। बाजार का यह खेल जारी रहेगा जबतक हम इनके नापाक इरादे को समझ नहीं लेते और इसके खिलाफ हम जेहाद नहीं करते।
हम जेहादी के बजाय फसादी हो रहे हैं। फसाद से नए समाज का सृजन कैसे होगा?
अगर वास्तव में हम हिंसा के सापेक्ष में किसी ममता-आन्दोलन में शामिल हो रहे हैं , मोमबत्तियाँ खरीद, बाँट और जला रहे हैं तो एक बार अपने भीतर की धर्मान्धता को टटोल लीजियेगा ? अपने भीतर के तालिबान को थाह लीजियेगा ?
चौबीस घंटे मीडिया जहर दिखायेगा और आप उससे चिपके रहेंगे। किसी ओबैसी और आदित्यनाथ से सरोकार बनाये रखेंगें तो यह साबित करेगा कि आप पेशावर के बच्चों के साथ नहीं हैं।
आपकी करुणा और ममता झूठी होगी। आपकी मोमवत्तियाँ उनकी मज़ार पर एक जश्न जैसी ही होगी। इस घटना की पुनरावृति की आशंका कम नहीं होगी। फिर आपको एक जलसा मिलेगा। मंच माईक और मीडिया मिलेगा। दुनियां यूं ही सिसकती रहेगी।
समस्या को टुकड़ों में बाँट कर न देखें। संभावना शेष है वह है भारतीय समाज। इस घटना से हिन्दू रोये या न रोये पर भारत अवश्य रोया है। यही तासीर हमारी थाती है। हम इस धरोहर को बचाना चाहते हैं। सेकुलरिस्टों से समाज नहीं बचेगा। इनकी चेतना के केंद्र में केवल ओबीसी-पॉलिटिक्स है या फिर ओबैसी-पोलिटिक्स ?
आओ ! अपने घर से समाज - विरोधी प्रतीकों और प्रणेताओं को निकाल बाहर करें। असली गन्दगी यही है। तन और वतन की सफाई से ज्यादा जरूरी विचार और विश्वास की सफाई की है।
नयी पीढी का ज्ञान - तंत्र खुला रहने दें। ताजा हवा लगने दें इनके जीवन को। हिन्दू बनेगा या मुसलमान बनेगा या कुछ नहीं बनेगा या फिर इंसान बनेगा, इन्हें मुक्त कर दें। पेशावर को मत पैदा होने दें। पेशावर को पसरने से हम रोक सकते हैं। शायद यह उन मासूमों के प्रति गहरी श्रद्धांजलि होगी।
#Peshawar #Taliban
O- बाबा विजयेंद्र


