अप्रासंगिक हो गये हैं लोकगणराज्य, संसदीय लोकतंत्र और संविधान
अप्रासंगिक हो गये हैं लोकगणराज्य, संसदीय लोकतंत्र और संविधान
नागरिकों की नागरिकता, सम्प्रभुता और निजता के अधिकारों के हनन की नींव पर ही खुले बाजार की अंतरिक्ष छूती बहुमंजिली इमारत की यह विकास गाथा!
पलाश विश्वास
पूरे देश दुनिया को मालूम है कि ममता बनर्जी अराजक राजनेता हैं और इसलिये वह जब-तब सत्ता वर्ग के हितों के खिलाफ भी बयान जारी कर देती हैं। नागरिकों की खुफिया निगरानी और निजता के अधिकार की चर्चा वह सिर्फ इसलिये कर रही हैं कि केन्द्र सरकार में सत्तारूढ़ य़ूपीए सरकार से उनकी पार्टी अलग हो गयी है।
जाहिर है कि यह मसला कोई नया मामला नहीं है। नागरिकों की नागरिकता, सम्प्रभुता और निजता के अधिकारों के हनन की नींव पर ही खुले बाजार की अंतरिक्ष छूती बहुमंजिली इमारत की यह विकास गाथा है, जिसका दीदी ने पहले विरोध नहीं किया और अब जब विरोध कर ही रही हैं तो सोशल नेटवर्किंग पर अपने फैन और आगंतुकों तक सीमित है उनका यह अभिनव विरोध।
अभी हिमालयी सुनामी से पहले और आईपीएल प्रकरण के अवसान से पहले अमेरिकी सरकार की ओर से इंटरनेट पर खुफिया निगरानी की प्रिज्म योजना का खुलासा हो गया तो पूरे विश्व में हंगामा हो गया। चूँकि उसके ग्राफिक्स और तमाम सबूतों को रखना था, जिनके अमेरिकी स्रोत अमेरिका था, इसलिये इस पर मैंने अँग्रेजी में लिखा था। फिर हिमालय में सुनामी आ गयी तो इस प्रकरण पर हिंदी में भी लिखने की फुरसत नहीं है। हर भारतीय की तरह हमारे लिये भी सर्वोच्च प्राथमिकता अपना घर है, जो निःसंदेह हिमालय है। लेकिन इस मामले ने जागरूक नागरिकों का ध्यान जरूर खींचा।
देश के सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर हो गयी। जिसे सुप्रीम कोर्ट ने इस युक्ति से खारिज कर दिया कि इसमें भारत सरकार की कोई भूमिका नहीं है। राजनीति और अरजनीति दोनों ने रहस्यमय चुप्पी साध ली। जैसे अमेरिकी प्रिज्म से उनका कद बढ़ रहा हो।
नागरिकता, नागरिक सम्प्रभुता और निजता के अधिकार के लिये इस देश के तमाम जनसंगठन लगातार आन्दोलन कर रहे हैं। हम भी सिर्फ लेखन तक विरोध नहीं कर रहे हैं। इसके खिलाफ हम सड़कों पर हैं। क्योंकि इसका असर सबसे ज्यादा हमारे स्वजन यानि आदिवासी समाज, शरणार्थी, बंजारा, अछूत और शहरों के बस्तीवासी होंगे।
जल जंगल जमीन और नागरिकता से बेदखली का सबसे कारगर हथियार है गैरकानूनी कॉरपोरेट बायोमेट्रिक नाटो आविष्कृत आधार योजना, जिसे खुद अमेरिका, ब्रिटेन, जर्मनी समेत विकसित विश्व ने नागरिकों की निजता और सम्प्रभुता के सवाल पर रद्द कर दिया है। ब्रिटेन में आधा काम हो जाने के बावजूद इस योजना को रद्द करना पड़ा क्योंकि इसके विरोध में सरकार ही उलट दी गयी।
भारत में न सिर्फ नागरिकता, निजता और सम्प्रभुता का अपहरण हो रहा है बल्कि इसके तहत देश के हर हिस्से में अबाध पूँजी प्रवाह की तरह अबाध बेदखली अभियान जारी है, देश ऩिकाला जारी है और नरसंहार जारी है। फिर भी हमारी बड़बोली राजनीति और अराजनीति पूरे एक दशक खामोश है।
नागरिक और मानव अधिकार किसी भी हाल में निलम्बित नहीं किये जा सकते। यह सभ्यता और लोकतन्त्र की बुनियादी शर्त है। पर लोकगणराज्य भारत में जहाँ 1958 से सशस्त्र सैन्य विशेषाधिकार कानून जैसा नरसंहार संस्कृतिसहायक विरासत बनी है, देश के तमाम आदिवासियों के किलाफ राष्ट्र ने बाकायदा युद्धघोषणा कर दी है, आधा से ज्यादा भूगोल नस्ली भेदभाव के तहत अस्पृश्य है, प्रकृति से हर कहीं बलात्कार की परम्परा है और प्राकृतिक संसाधनों की लूटखसोट के लिये रोजाना रंग-बिरंगे अभियान के तहत संसदीय सहमति से आम जनता का खुला आखेट चला रहा है, तो नागरिक अधिकार और मानव अधिकार अप्रासंगिक हो गये हैं। अप्रासंगिक हो गये हैं लोकगणराज्य, संसदीय लोकतंत्र और संविधान। सर्वत्र कॉरपोरेट राज। लेकिन कारपोरेट के व्याकरण का भी खुला उल्लंघन हो रहा है। देश अगर खुला बाजार है और नागरिक अगर उपभोक्ता और क्रयशक्ति धारक क्रेता, तो कॉरपोरेट व्याकरण के हिसाब से उसके अधिकारों की रक्षा होनी चाहिये। ऐसा भी नहीं हो रहा है।
नागरिकों को अनिवार्य सेवायें शिक्षा, कानून व्यवस्था के तहत सुरक्षा, चिकित्सा, बैंकिंग, यातायात और देश में कहीं भी अबाध आवागमन का अधिकार होना चाहिये। यूरोप जैसे परस्परविरोधी शत्रुता के महादेश में राजनीतिक सीमायें लोगों के आवागमन को अवरुद्द नहीं करतीं। पर इस देश में बायोमेट्रिक नागरिकता अपनाने के बाद बैंक खाता हो या गैस सिलिंडर, बिजली पानी हो या बच्चों का दाखिला हर कहीं अपनी सम्प्रभुता और निजता के अपहरण के बाद दागी अपराधियों की तरह आपके हथेलियों और आँखों की पुतलियों की छाप अनिवार्य है। नागरिक रोजगार और व्यवसाय के लिये अन्यत्र आ जा नहीं सकते, बकवास नहीं कर सकते।
नकद सब्सिडी के साथ आधार कार्ड नत्थी करके जरूरी और अनिवार्य सेवाओं के निलम्बन से क्या नागरिकता नागरिक व मानव अधिकारों का हनन नहीं हो रहा है?
यहीं नहीं, मजदूरी, वेतन और भविष्यनिधि का भुगतान आधार योजना से अवैध तौर पर जोड़कर विलम्बित या स्थगित करने का नागरिक विरोधी, संविधान विरोधी मानवता विरोधी कारोबारविरोधी अपराध सर्वदलीय सहमति से आंतरिक सुरक्षा और राष्ट्रहित के नाम पर किये जा रहे हैं।
मालूम हो कि इस पूरी प्रक्रिया की शुरुआत तत्कालीन गहमत्री लालकृष्ण आडवानी ने नागरिकता संशोधन विधेयक पेश करके किया, जिसका संसद में किसी दल ने विरोध नहीं किया। जनसुनवाई की औपचारिकता हुयी लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुयी। तब संसदीय समिति के अध्यक्ष बतौर मौजूदा राष्ट्रपति व तत्कालीन विपक्ष के नेता प्रणव मुखर्जी ने कानून बनाने की प्रक्रिया को अंजाम दिया। इसमें वामपंथियों, समाजवादियों और अंबेडकरवादियों की जितनी सहमति थी, उतनी ही आम राय थी अनुसूचित जनजातियों, अनुसूचित जातियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदायों के नेताओं की।
गौरतलब है कि तब माननीया ममता बनर्जी केन्द्र सरकार में केबिनेट मन्त्री थीं। उन्होंने तब कोई विरोध किया हो तो हमें जानकारी अवश्य दें।
जैसे सूचना के अधिकार के दायरे से राजनीतिक दलों को बाहर करने का मामला है, जैसे कॉरपोरेट चंदे, बेहिसाब सम्पत्ति और कालाधन से राजनीति चलाने का मामला है, निजता और नागरिक सम्प्रभुता का मामला भी ठीक वैसा ही है, जिस पर हम जैसे कुछ बदतमीज लोग भौंकते रहते हैं, राजनीति और अराजनीति इस मुद्दे पर खामोश है। वे सिर्फ अपने, अपने दल और अपने स्वजनों, कॉरपोरेट आकाओं के खिलाफ स्टिंग ऑपरेशन, सरकारी तौर पर फोन टेपिंग और खुफिया निगरानी के खिलाफ आवाज बुलन्द करने के अभ्यस्त हैं।
आम नागिरक जिये या मरे, उनके गुलशन का कारोबार जारी रहना चाहिये।
दीदी इस मुद्दे पर लीक तोड़कर बोलीं, उन्हें धन्यवाद।
बाकी लोग जुबान खोलेंगे?


