अफवाह फैलाने वाले पत्रकारों से विनती है कि वह यहां न आएं
अफवाह फैलाने वाले पत्रकारों से विनती है कि वह यहां न आएं
अफवाह फैलाने वाले पत्रकारों से विनती है कि वह यहां न आएं
मसीहुद्दीन संजरी
बटला हाउस के बाद संजरपुर में एक तरफ पुलिस और एजेंसियों का दबाव था। तो दूसरी तरफ मीडिया का हमला।
कितना विचित्र संयोग है कि योगी आदित्यनाथ ने आज़मगढ़ को 2006 में ही आतंकगढ़ कहा था, उसे मीडिया ने भी आतंकगढ़ कहना शुरू कर दिया।
आतंकगढ़ और आतंक की नर्सरी।
आज़मगढ़ के होटल मीडिया कर्मियों से भरे थे, लेकिन उनके पास अपने दर्शकों और पाठकों को बताने के लिए धमाकेदार मसाला नहीं था। यहां उन्हें कोई असामान्य चीज़ मिल नहीं रही थी। समय बहुत था खबरें कम थीं।
रात को शराब–कबाब की महफिल सजी, कई चैनलों और प्रिन्ट मीडिया ने सनसनी फैलाने के लिए साज़िश की। सुबह होते होते एक खबर फ्लैश हुई कि आतिफ और सैफ के सरायमीर बैंक खाते से बहुत ही अल्प समय में तीन करोड़ रूपये का लेन–देन हुआ है। कुछ समाचार पत्रों ने इसे पहले पृष्ठ की खबर बनाया। दोनों का खाता सरायमीर यूनियन बैंक सरायमीर में था।
खुफिया विभाग ने पड़ताल शुरू कर दी।
तथ्य यह था कि उन खातों में कुल मिला कर करीब ढाई हज़ार रूपया था।
खाते छात्रवृत्ति के लिए खोले गए थे, और विगत सात सालों से उनसे कोई लेन–देन नहीं हुआ था।
खबर के निराधार होने के अकाट्य प्रमाण के बावजूद मीडिया से इतनी नैतिकता की आशा नहीं की जा सकती थी कि वह उसका खण्डन करे।
दिन भर मीडिया कर्मी गांव की चौपाल पर मौजूद होते थे। घंटों लोगों से बातें करते लेकिन अगले दिन के समाचार में कोई नया शिगूफा होता। शायद वह जो कुछ तलाश कर रहे थे वह मिल नहीं रहा था और जो मिल रहा था वह उसे दिखाना या छापना नहीं चाहते थे।
गांव की हिंदू जनता से बात करने में उनकी रुचि बहुत होती थी।
कई पत्रकारों ने उनसे अकेले में बात करने की इच्छा की। उनकी ख्वाहिश पूरी भी की गई लेकिन उनके चेहरे बताते थे कि वह अपने मकसद में सफल नहीं हो पा रहे हैं।
मीडिया कर्मी के भेस में खुफिया एजेंटों का भी गांव में आना जाना लगा रहा।
कई बार तो पत्रकार उनके सहयोगी की तरह दिखे। जब गांव के लोग मीडिया की अफवाहबाज़ी से तंग हो गए तो चौपाल पर एक बैनर लगाया जिस पर लिखा हुआ था “अफवाह फैलाने वाले पत्रकारों से विनती है कि वह यहां न आएं”।


