अब 200 सीट के भी लाले पड़ जाएंगे भाजपा को!
Will Kanshiramists disappointed with Mayawati join Rahul Gandhi?

क्या राहुल गांधी से जुड़ेंगे मायावती से निराश कांशीरामवादी
14 जनवरी से मणिपुर से शुरू हुई राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा (Rahul Gandhi's Bharat Jodo Nyay Yatra) उत्तर प्रदेश से आगे बढ़ चुकी है। 16 जनवरी से 25 जनवरी तक उत्तर प्रदेश में चली इस यात्रा के प्रति लोगों में अन्य राज्य राज्यों के मुकाबले ज्यादे क्रेज देखा गया। उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी की यात्रा काफी घटना बहुल रही। उन्होनें यहाँ जिस तेवर से पहले 73% और बाद 90% में वालों की भागीदारी का सवाल उठाया, उससे लोगों को उनमें अंबेडकर और कांशीराम की याद आ गई। यही नहीं उत्तर प्रदेश में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी से समझौता होने के बाद जिस तरह आम आदमी पार्टी से बात बनी, उससे बिखरते इंडिया गठबंधन में नई जान आ गई। इसके साथ ममता बनर्जी की ओर से इंडिया के पक्ष में सकारात्मक संकेत आए।
उत्तर प्रदेश में भारत जोड़ो सामाजिक न्याय यात्रा के दौरान इंडिया गठबंधन में जो नई जान आई है, उसका प्रमाण 25 जनवरी की शाम आगरा में मिला, जहां भारत जोड़ो यात्रा में अखिलेश यादव के शामिल होने के बाद ऐतिहासिक भीड़ उमड़ी। यूपी में भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कांग्रेस के साथ सपा और आम आदमी पार्टी के निकट आने के बाद ममता बनर्जी की टीएमसी की ओर से जो सकारात्मक संकेत मिला, उससे अब ढेरों राजनीतिक विश्लेषक यह दावा करने लगे हैं कि 2024 में भाजपा के लिए 400 पार जाना तो दूर, 200 सीटों के भी लाले पड़ जाएंगे। बहरहाल उत्तर प्रदेश से राजस्थान पहुंच चुके राहुल गांधी ने यूपी की घटना बहुल यात्रा के दौरान जिस तरह अंबेडकरवादियों को स्पर्श किया, उससे ढेरों राजनीतिक विश्लेषकों में यह सवाल बड़ा आकार लेते जा रहा है क्या राहुल गांधी की यात्रा कांशीराम की प्रयोग भूमि उत्तर प्रदेश को उद्वेलित कर पाएगी?’
ध्यान रहे कि जिस उत्तर प्रदेश ने देश को 9 प्रधानमंत्री दिए एवं जो देश की राजनीति की दिशा तय करता है, उसकी पहचान हिन्दुत्व की राजनीति के साथ कांशीराम के बहुजनवाद की प्रयोगस्थली (Kanshiram's Bahujanism's experiment ground) के रूप में भी है। जब यहाँ हिन्दुत्व की राजनीति का प्रयोग (experiment of Hindutva politics) जोरों पर था, उसी दौरान कांशीराम ने यहां बहुजन राजनीति का प्रयोग किया था, जिसके तहत बहुजनों के जाति – चेतना का ऐसा राजनीतिकरण किया कि हजारों साल का शासक वर्ग राजनीतिक रूप से एक लाचार समूह में तब्दील होने के लिए विवश हुआ।ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके प्रयासों से दलित, आदिवासी,पिछड़े और इनसे धर्मांतरित समुदाय हिन्दू धर्म द्वारा खड़ी की गई घृणा और शत्रुता की दीवार लांघकर भ्रातृभाव लिए एक दूसरे के निकट आने लगे थे।
भ्रातृत्व के प्रसार और जाति चेतना के राजनीतिकरण के फलस्वरूप कांशीराम की बसपा ने 2007 में पूर्ण बहुमत से यूपी की सत्ता पर काबिज हो कर राजनीति की दुनिया में तहलका मचा दिया था। उन्होंने वंचितों में शासक बनने की महत्वाकांक्षा उभारने के साथ जिस तरह लोगों को ‘पे बैक टू द सोसाइटी’ (Pay back to the society) के मंत्र से दीक्षित किया, उससे यहाँ सामाजिक परिवर्तनकामी लोगों की विशाल फौज भी खड़ी हो गई।
यही नहीं देश की राजनीति को दिशा देने वाले यूपी में बहुजनवाद के प्रसार के फलस्वरूप जिस तरह बसपा और सपा का प्रभुत्व विस्तार हुआ, उससे दिल्ली की सत्ता पर बहुजनों के काबिज होने के आसार दिखने लगे।यही नहीं उन्होंने अपने नारे ‘जिसकी-जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी’ के जरिए वंचितों में हर क्षेत्र में संख्यानुपात में हिस्सेदारी की जो महत्वाकांक्षा भरी, उससे देश में बड़े बदलाव की जमीन तैयार होने लगी। ऐसा लगा दलित – पिछड़े और इनसे धर्मांतरित तबके संख्यानुपात में अपनी हिस्सेदारी हासिल करने के लिए सत्ता की बागडोर अपने हाथ में लेने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। किन्तु उनके असमय निधन के बाद उनके उत्तराधिकारी अपनी निजी कमजोरियों के कारण उन के प्रयोग को आगे बढ़ाने में बुरी तरह विफल रहे, जिसके फलस्वरूप बड़ी तेजी से भाजपा यूपी से लेकर केंद्र तक अप्रतिरोध्य बन गई।
सबसे दुखद तो यह रहा कि कांशीराम के महा-क्रांतिकारी दर्शन – जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी – को पलटकर ‘जिसकी जितनी तैयारी- उतनी उसकी हिस्सेदारी’ कर दिया गया।
भाजपा से त्रस्त वंचितों की क्या है ख्वाहिश?
खैर! आज जबकि 2024 में स्वाधीन भारत के इतिहास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण चुनाव अनुष्ठित होने जा रहा है, भाजपा से त्रस्त दलित ही नहीं, तमाम वंचित वर्ग ही चाहता है कि कांशीराम की उत्तराधिकारी मायावती जी इस चुनाव में बड़ी भूमिका अदा करें। उनके आने से भाजपा की सत्ता से विदाई काफी हद तक आसान हो जाएगी। इसके लिए इंडिया ब्लॉक से जुड़े ढेरों नेता उनसे अनुनय- विनय भी कर चुके हैं पर, वह अकेले चुनाव लड़ने की लगातार घोषणा किए जा रही हैं। इंडिया गठबंधन की नए सिरे से मजबूती भी उन्हें नहीं खींचती दिख रही है। इससे जिस उत्तर प्रदेश से सत्ता का रास्ता दिल्ली की ओर जाता है, वहां इंडिया की मजबूती के बावजूद भाजपा से पार पाना विपक्ष के लिए आसान नहीं होगा।
बहरहाल एक क्षीण सी उम्मीद है कि वह चुनाव घोषणा के बाद, जब जांच एजेंसियां निष्क्रिय हो जाएंगी शायद वह इंडिया से जुड़ जाएंगी। अगर वह अपने दावे के मुताबिक अकेले चुनाव लड़ती हैं तो भाजपा को तो लाभ मिलेगा, किन्तु 2014 की भांति बसपा फिर एक बार लोकसभा में शून्य पर पहुंच जाएगी, ऐसा तमाम राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है। यह देखते हुए 2019 में सपा के साथ मिलकर लोकसभा चुनाव जीते बसपाई सांसदों में भगदड़ मच गई है और उनमें से कई पार्टी छोड़कर दूसरे दलों में चले गए हैं तथा बाकी भी भागने की तैयारी में हैं। इस स्थिति में वे लाखों लोग भी भारी निराश है, जिन्हें साहब कांशीराम ने सामाजिक बदलाव के लिए तैयार किया था।
बहरहाल कांशीराम ने जो लाखों समाज परिवर्तनकामी योद्धा तैयार किए, वे बसपा नेत्री की भूमिका से भले ही निराश हों, पर वे सामाजिक बदलाव के विचार को अपने मन से नहीं निकाले हैं। इसलिए वे ऐसे किसी ऐसे नेतृत्व की चाह में टकटकी लगाए है, जो मनुवादी भाजपा को सत्ता से दूर धकेलने के साथ साहेब कांशीराम के भागीदारी दर्शन- जिसकी जितनी संख्या भारी- उसकी उतनी भागीदारी - को जमीन पर उतार सके। आज की तारीख में सिर्फ राहुल गांधी ही बखूबी ऐसा करते दिख रहे हैं। भारत जोड़ो न्याय यात्रा में राहुल गांधी जो कुछ कह रहे हैं, उस पर कोई भी व्यक्ति गौर फरमाये तो उसे वे कांशीराम की भूमिका में अवतरित होते नजर आएंगे !
ढेरों राजनीतिक विश्लेषक मान रहे हैं कि जो राहुल गांधी 2022 में सड़कों पर उतर कर ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में नफरत के बाजार में मोहब्बत की दुकान खोलने का संदेश दे रहे थे, 2024 में वह सड़कों पर उतर कर पांच न्याय- भागीदारी न्याय, श्रमिक न्याय, नारी न्याय, किसान न्याय और युवा न्याय – दिलाने की घोषणा किए जा रहे हैं। वह हर जगह कह रहे हैं हम न्याय के लिए यह यात्रा निकाल रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने एलान कर दिया है कि 2024 में कांग्रेस की सरकार आई तो किसानों को उनके उत्पाद की कीमत एमएस स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिशों के आधार पर दी जाएगी। ऐसे में एमएसपी की कानूनी गारंटी लागू करने की बात का आश्वासन देकर उन्होंने किसान न्याय की घोषणा कर दिया है। बाकी चार न्याय की भी टुकड़ों-टुकड़ों में घोषणा जारी है। किन्तु अब तक उन्होंने भारत जोड़ो न्याय यात्रा में दलित बहुजनों के अन्याय की खाई से निकालने जो उपाय बताया है, उससे पूरे देश के अंबेडकरवादियों में एक नई उम्मीद का संचार होता दिख रहा है।
जहां तक दलित, आदिवासी और पिछड़ों के न्याय का सवाल है, सदियों से वर्ण- व्यवस्था के प्रावधानों द्वारा शक्ति के समस्त स्रोतों – आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक और धार्मिक – से दूर धकेल कर ही इन्हे अन्याय की खाई में धकेला गया। यही सामाजिक अन्याय है, जिससे निजात दिलाने के लिए सामाजिक न्याय का अभियान शुरू किया गया। लेकिन सामाजिक न्याय के तहत वंचित समूहों को सिर्फ नौकरी, शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में हिस्सेदारी सुनिश्चित किया गया। अवश्य ही दलितों को राजनीति की संस्थाओं में भी हिस्सेदारी मिली। आज जो राजनीतिक दल व बुद्धिजीवी सामाजिक न्याय का अभियान चल रहे हैं, उनके एजेंडे में मुख्यतः आरक्षण बचाना और निजी क्षेत्र में आरक्षण दिलाना है। अवश्य ही प्रमोशन और न्यायपालिका में आरक्षण की मांग भी उसमें शामिल है। लेकिन दलित बहुजनों को मुकम्मल न्याय तभी मिल सकता है, जब शक्ति के समस्त स्रोतों में संख्यानुपात में हिस्सेदारी सुनिश्चित हो। आजाद भारत में मुकम्मल सामाजिक न्याय का अजेंडा सिर्फ और सिर्फ राहुल गांधी जारी कर रहे हैं।
बहुत पहले से कांशीराम के भागीदारी दर्शन को- जितनी आबादी – उतना हक- के रूप में दृढ़ता से घोषणा करने वाले राहुल गांधी अब सड़कों पर उतर कर लाखों- हजारों की भीड़ में घोषणा कर रहे हैं कि आर्थिक और सामाजिक अन्याय सबसे बड़ी समस्या है और भारत के भविष्य को बेहतर बनाना है तो आर्थिक और सामाजिक न्याय लागू करना ही होगा। आर्थिक और सामाजिक न्याय दिलाने का एजेंडा घोषित करने वाले राहुल सवाल उठा रहे हैं कि दलित, आदिवासी और ओबीसी की कुल आबादी 73 प्रतिशत है और ये 73 प्रतिशत वाले कितनी कंपनियों, अखबारों, मीडिया, अस्पतालों, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज इत्यादि के मालिक व मैनेजर हैं? वह कह रहे हैं कि जिन सरकारी कंपनियों को निजी हाथों में दिया गया है, उन्हें कैसे वापस लाया जाय, यह भी देखेंगे।वह खुलकर कह रहे है कि सारी कंपनियां, मीडिया, अखबार, प्राइवेट यूनिवर्सिटीज, अस्पताल इत्यादि 10 प्रतिशत वालों के हाथ में है: 90 प्रतिशत वाले वंचित हैं। वह घोषणा कर रहे है कि सारी समस्या का हल जाति जनगणना है। कांग्रेस सत्ता में आने पर जाति जनगणना कराने के बाद एक व्यापक वित्तीय सर्वेक्षण कराएगी ताकि संसाधनों के स्वामित्व में असमानता को प्रकाश में लाया जा सके और उनका उचित बंटवारा हो सके।प्रयागराज में उन्होंने खुल कर कहा है,’ऐ 73 प्रतिशत वाले ये देश तुम्हारा है। उठो,जागों और आगे बढ़कर अपना हक ले लो!’
ऐसे में सवाल पैदा होता है कि यदि चुनाव की घोषणा के बाद भी मायावती इंडिया ब्लॉक से न जुड़कर : अकेले चुनाव लड़तीं हैं, तब क्या उनसे से बुरी तरह हताश-निराश कांशीरामवादी उस राहुल गांधी से जुड़ने का मन बनाएंगे जो बाबा साहब प्रदत संविधान और आरक्षण के खत्म होते दौर में नौकरियों के साथ कंपनियों, मीडिया, अखबारों, हास्पिटलों इत्यादि सहित हर क्षेत्र में कांशीराम के भागीदारी दर्शन को जमीन पर उतारने का उच्च उद्घोष किए जा रहे हैं!
एच. एल. दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं।)
Will Kanshiramists disappointed with Mayawati join Rahul Gandhi?


