शैलेन्द्र चौहान
भारत के पिकासो के नाम से मशहूर एम. एफ. हुसैन का जन्म 17 सितंबर, 1915 को महाराष्ट्र राज्य के पंढरपुर कस्बे में हुआ था। जब वे 2 साल के थे, तभी उनकी मां का निधन हो गया। मां की मृत्यु होने के बाद भी हुसैन के जीवन में संघर्षों का दौर जारी रहा। महाराष्ट्र छोड़कर इंदौर में शिफ्ट होने के बाद मकबूल फिदा हुसैन ने यहां अपनी पढ़ाई पूरी की और फिर आगे की पढ़ाई के लिए दुबारा मुंबई वापस आ गए। 1935 में उन्होंने जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में दाखिला लिया। फिल्मों के बैनर, पोस्टर और होर्डिंग बनाकर हुसैन ने चित्रकारी की दुनियां में कदम रखा। 1940 के बाद से उनके काम को मान्यता और प्रसिद्धि मिलनी शुरू हो गई। 1971 में उन्हें विश्व प्रसिद्ध चित्रकार पाबलो पिकासो की तरफ से एक प्रदर्शनी में मिलने का निमंत्रण भी मिला। पाबलो पिकासो दुनिया के महानतम चित्रकारों में से एक माने जाते हैं और कहा जाता है कि एम.एफ.हुसैन और पाबलो पिकासो की शैली में काफी समानता है। 1947 में उन्होंने प्रोगेसिव आर्ट ग्रुप में सदस्यता ले ली जिससे उनके कॅरियर को नई दिशा मिली। धीरे धीरे ही सही हुसैन कामयाबी की सीढ़िया चढ़ते रहे। 1952 में पहली बार उनके चित्रों की एकल प्रदर्शनी ज्युरिक में लगी और इसके कुछ ही सालों बाद विदेशों में उनकी मांग बढ़ती चली गई। अलग शैली और लीक से हटकर अलग-अलग विषयों पर चित्र बनाने वाले एम.एफ.हुसैन ने जीवन में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1955 में उन्हें कला के क्षेत्र में अविश्वसनीय सहयोग देने के लिए पद्म श्री पुरस्कार दिया गया। 1967 में उन्होंने पहली फिल्म बनाई थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर। इसे बर्लिन के फिल्म महोत्सव में गोल्डन बीयर अवॉर्ड मिला। 1973 में उन्हें पद्मभूषण और 1991 में पद्म विभूषण पुरस्कार से नवाजा गया। 1986 में कला के क्षेत्र में अतिविशिष्ट कार्य करने के लिए उन्हें राज्य सभा में भी नामांकित किया गया। हुसैन एक बेहतरीन चित्रकार थे लेकिन वह हमेशा विवादों से घिरे रहे हिंदू देवी देवताओं के अश्लील चित्र बनाने की वजह से हिंदू धार्मिक संगठनों द्वारा देश भर में उनकी तीव्र निंदा की गई। जिसकी वजह से उन्हें भारत की नागरिकता छोड़नी पड़ी। उनके संघर्षशील और विरोधाभाषी जीवन और कार्यशैली पर एक कविता।

नहीं है मक़बूल

1.

तारों से झरता

करूण रस

हल्का-हल्का प्रकाश

कानों में घुलने लगते

मृदु और दुःख भरे गीत

शीर्षहीन स्त्री

नहीं देख पाया वह शिशु

अपनी माँ का चेहरा

अनवरत तलाश चेहरे की

माँ के चित्रों में

हाथ, पाँव, धड़, स्तन

पर नहीं कोई चेहरा....

मदर टेरेसा ..........ना .........

माधुरी का ................ना ..........

माँ.......

रिसती है शीत

चांदनी बनकर उभरते

शीर्षहीन स्त्री चेहरे

केनवास पर लगातार ....लगातार .....

कौतुक ............. कुतूहल.......

एक पुरानी सायकिल

दो पहिये, हैंडिल और सीट

एक अन-अनुपाती देह

किशोर केरिअर पर बैठा

गोद में लिए सायकल-शरीर

और

सायकल की गोद में

किशोर देह

ओह कितनी मजेदार कल्पना

ठठा कर हंस पड़ता हूँ मैं

बूंदी से जब भी गुज़रता हूँ

जैसे जैसे शुरू होती

पहाड़ की चढ़ाई

मेरे कानों में बुदबुदाने लगते हैं मक़बूल

देखो

हर मकान में

जीने के ऊपर की चैकोर कोठरी

पुती है गहरे नीले चूने से

विरल है बूंदी का यह सौन्दर्य

देखो-देखो, राजप्रासाद को

मात दे रही लोक रूचि

है न मजेदार !

2.

कितनी गम्मत

पंढरपुर से शुरू होती है जात्रा

छोटी-छोटी पहाडियां, जंगल

मंदिर, घंट ध्वनियाँ

केनवास पर उभरती रही

जात्रा की खुशियाँ, दुःख

इंदौर से मुंबई तक

दौड़ती रहीं पटरियां

सामानांतर

तूलिका, रंग और

नित नए रहस्यों की तलाश

सघन अभिव्यक्ति

पेंटिंग दर पेंटिंग

नंगे पांवों की

कठोर धरती से निरंतर कुश्ती

मात खाती रही कठोरता

मैं यहीं पैदा हुआ

इसी धरती पर

ये मुल्क मेरा है

फिर कहाँ हूँ मैं निर्वासित

मिथ, आत्माएं, शरीर, भूगोल

इतिहास

यह मेरा ही है

ये संगीत मेरा है

ये संस्कृति और

अहमन्यता भी मेरी है

मेरी चित्र यात्रा

पहुंची है लाख से करोड़ तक

करोड़ से करोड़ों तक.

मैं इसी मिट्टी में पैदा हुआ हूँ।

मरना भी चाहता हूँ

इसी सर ज़मी पर

ओ मक़बूल !

इतना सब पाने और देने के बाद

वो क्या है जो तुम नहीं पा सके

प्रसिद्धि के रोबिनहुड घोड़े पर सवार

ओ अघाये मदमस्त घुडसवार

तुम्हे किस चीज़ की है दरकार ?

ये यक्ष प्रश्न है

हर किसी अघाये

बोराये मनुष्य से

चाहे किसी मज़हब, जात, देश का हो

क्यों ठीक से नहीं पड़ते

पाँव ज़मीन पर

वो क्या है हवा में

जो तुम्हे नचा रहा है

वो कौनसे रंग है

जो छण-छण बदल रहे हैं

छवि

कौन सा राग है जो

इतनी उत्तेजना भर रहा है

इन रंगों में

दीर्घ अनुभव, परम्परा, इतिहास, दर्शन

मिथ और प्रकृति,

ठहर जा

बस ठहर जा

अब और ऊपर जा नहीं पायेगा

सारंगी तू सुन

मद्धम सी धुन

नहीं रहा मक़बूल

अब नहीं है मक़बूल

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शैलेन्द्र चौहान, लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।