अब मौका है कि हम कारपोरेट मीडिया के मुकाबले जनता का मीडिया बना सकते हैं
अब मौका है कि हम कारपोरेट मीडिया के मुकाबले जनता का मीडिया बना सकते हैं
हस्तक्षेप के साइट पर पेमनी बटन लगा है, कृपया तुरंत उसका इस्तेमाल करते हुए अगर आप हमारे साथ हैं, तो तुरंत अपने सामर्थ्य के मुताबिक न्यूनतम रकम तुरंत भेज दें ताकि हम सभी भारतीय भाषाओं में हस्तक्षेप के विस्तार के कार्यक्रम को अमलेंदु के स्वस्थ होकर डेस्क पर लौटते ही अंजाम तक पहुंचा सकें।
हम आभारी है शुभकामनाओं के लिए। समर्थन और सहानुभूति के लिए।
"हस्तक्षेप" पाठकों-मित्रों के सहयोग से संचालित होता है। छोटी सी राशि से हस्तक्षेप के संचालन में योगदान दें।
पलाश विश्वास
अमलेंदु के सड़क दुर्घटना में जख्मी होने के बाद हमें “हस्तक्षेप” टीम में शामिल जाने अनजाने तमाम लोगों के मुखातिब होने का मौका मिला है।
इस संकट की घड़ी में देशभर से मेल, फोन और फेसबुक के जरिये निरंतर जो संदेश आ रहे हैं, उसे यह लगता है कि हम अकेले नहीं हैं, लेकिन शुभकामनाओं के दम पर हम वैकल्पिक मीडिया आंदोलन को जिंदा नहीं रख सकते।
समकालीन तीसरी दुनिया के साथ 1978- 79 से लेकर अब तक लगातार जुड़े सरहदों के आर-पार बहुत बड़े पाठक वर्ग के बावजूद हम अभी उसकी अबाध निरंतरता सुनिश्चित नहीं कर सके हैं और समयांतर तो पंकज बिष्ट के निहायत निजी प्रयास की फसल है। हस्तक्षेप फिलहाल बाधित है और अमलेंदु जल्द ही अपने डेस्क पर होंगे, फिर भी हमारी समस्या फिर वही तीसरी दुनिया की समस्या है।
सिर्फ हस्तक्षेप की प्रशंसा काफी नहीं है और सिर्फ लिंक लाइक या शेयर करना काफी नहीं है, हमें आपका सक्रिय सहयोग भी चाहिए।
हम आभारी है शुभकामनाओं के लिए। समर्थन और सहानुभूति के लिए।
विनम्र निवेदन यह है कि कृपया सुनिश्चित यह करें कि साधनों की कमी से हस्तक्षेप का सिलसिला कभी बंद न हो। हम हस्तक्षेप को भारत की पूरी आबादी समेत इस महादेश की जनता का मुखपत्र बनाना चाहते हैं। आप न्यूनतम सहयोग करें तो हम ऐसा यकीनन कर दिखायेंगे।
हस्तक्षेप की साइट पर पेमनी बटन लगा है, कृपया तुरंत उसका इस्तेमाल करते हुए अगर आप हमारे साथ हैं, तो तुरंत अपने सामर्थ्य के मुताबिक न्यूनतम रकम तुरंत भेज दें ताकि हम सभी भारतीय भाषाओं में हस्तक्षेप के विस्तार के कार्यक्रम को अमलेंदु के स्वस्थ होकर डेस्क पर लौटते ही अंजाम तक पहुंचा सकें।
पेमनी पर भुगतान करने पर आपको रसीद तुरंत मिल जायेगा।
तकनीकी तौर पर या अन्य कारण से जो इस बटन का इस्तेमाल नहीं कर
सकते, उनके लिए हस्तक्षेप का एकाउंट का ब्यौरा Amalendu.upadhyay(at)gmail.com पर मेल करके मंगा सकते हैं।
जो भी मित्र, समर्थक और पाठक हस्तक्षेप के साथ हैं और हस्तक्षेप की निरंतरता के पक्ष में हैं, वे अपनी रकम इस एकाउंट में तुरंत डाल सकते हैं। बेहतर हो कि न्यूनतम एक हजार रुपये डालें।
जो समर्थ लोग हैं वे अधिकतम जितना डाले वह हस्तक्षेप के विस्तार कार्यक्रम को लागू करने में निर्णायक होगा।
भारी संख्या में ऐसे लोग भी हो सकते हैं, जो हमारे साथ हैं और सौ रुपये भी निकालना जिनके लिए असंभव हो, वे लोग सामूहिक तौर पर कोई रकम किसी के जरिये जमा कर सकते हैं और इस मुहिम को आंदोलन की तर्ज पर चला सकते हैं।
क्रयशक्ति के मुक्तबाजार में हमें समता और न्याय के लक्ष्य को हाससिल करने के लिए जनता की मीडिया की दरकार है और हमारे पास वह क्रयशक्ति नहीं है, इसे लेकर शर्मिंदा होने की जरुरत नहीं है।
आप चाहें तो हस्तक्षेप की मदद के लिए अपने गांव, गली, मोहल्ले और खेत खलिहान से भी आंदोलन शुरु कर सकते हैं।
यह अटपटा लग सकता है क्योंकि सत्तर के दशक से लगातार वैकल्पिक मीडिया आंदोलन चलाने के बावजूद हम जरूरी संसाधन जुटाने का कोई आंदोलन अब तक शुरु नहीं कर पाये हैं।
हालत यह है कि मीडिया को बाजार के हवाले करके उनसे जनमत और जन आंदोलन बनाने की उम्मीद करते रहे हैं और सूचनातंत्र से लगातार बेदखल होते रहने की वजह से अविराम बेदखली और मेहनतकशों के हक हकूक और नागरिक मानवाधिकार हनन के मामलों में कारपोरेट मीडिया की खबरों पर ही दांव लगाते रहे हैं।
आप भले ही हमारे साथ न हों और भले ही हमारी कोई मदद न करें लेकिन हकीकत का सामना जरुर करें और तय करें कि अनंतकाल तक क्या हम बेबस हाथों पर हाथ धरे कारपोरेट मीडिया को ही कोसते रहेंगे और अपना मीडिया बनाने की कोशिश न करें।
हस्तक्षेप और हमारे मित्रों की सोशल मीडिया पर निरंतर सक्रियता की वजह से पहले के मुकाबले हम बढ़त पर है और कारपोरेट मीडिया का मुकाबला किसी न किसी रूप में कर रहे हैं और संवाद भी चरम असहिष्णु जनसंहारी अश्वमेधी माहौल की वजह से चल रहा है। इसके अलावा आज की नई पीढ़ी ने मनुस्मृति के खिलाफ जो महाविद्रोह का शंखनाद किया है और रंगभेदी वर्च्स्ववाद के खिलाफ उनकी जो तेज होती लड़ाई है, और बाबासाहेब के जाति उन्मूलन का उनका जो एजंडा है-उसके मद्देनजर वैकल्पिक मीडिया के राष्ट्रव्यापी तंत्र बनाने का इसे बेहतरीन मौका हमारे पास कभी न था।
कृपया इस बढ़त को बेकार न जाने दें।
सत्तर के दशक में हम नैनीताल से नैनीताल समाचार और पहाड़ टीम के लिए काम करते रहे हैं और फिर लघु पत्रिका आंदोलन होकर हमारा लेखन समकालीन तीसरी दुनिया और समयांतर तक पहुंचा।
दिनमान से लेकर जनसत्ता जैसे मंचों की वजह से हमें तब जनसरोकार और जनसुनवाई का कोई संकट नहीं दिखा तो कारपोरेट मीडिया में भी प्रतिबद्ध जनसरोकारी पत्रकारों की एक विशाल सेना थी, जो अब नहीं हैं।
केसरिया सुनामी की वजह से वे तमाम जनसरोकारी प्रतिबद्ध लोग आर्थिक सुधारों के अस्वमेध और विदेशी पूंजी के वर्चस्व के तहत संपादन और संपादक के अवसान के बाद मैनेजर सीईओ तंत्र में मीडिया से बेदखल हो गये हैं या हो रहे हैं।
उन्हें नये सिरे से गोलबंद करने की जरुरत है। यह करना अनिवार्य है क्योंकि कारपोरेट मीडिया में लंबे अरसे से काम करने वाले हमारे तमाम साथियों को बखूब मालूम है कि हम कारपोरेट मीडिया के मुकाबले जनता का मीडिया कैसे गढ़ सकते हैं।
आप समझ लें कि हस्तक्षेप से बड़ी संख्या में ऐसे पेशेवर, अनुभवी और प्रतिबद्ध पत्रकारों का जुड़ाव शुरु से रहा है और हम इसे व्यापक बना रहे हैं। इसके अलावा जो बचे खुचे मंच हैं, उन्हें हम एक सूत्र में जोड़ भी रहे हैं।
हमारे सिपाहसालार आनंद स्वरुप वर्मा और पंकज बिष्ट अभी सक्रिय है और हम थोड़ा सा अतिरिक्त प्रयत्न करे तो हम यकीनन वैकल्पिक मीडिया का राष्ट्रीय नेटवर्क बना सकते हैं। इसमें फिर आपकी निर्णायक भूमिका है और आपके सहयोग के बिना हमारी कोई जमीन नहीं है, जिसपर हम पांव जमाकर चीख सकें पुरजोर।
हस्तक्षेप ने पिछले पास साल के दौरान रीयल टाइम जन सुनवाई और ब्रेकिंग न्यूज की दो तरफा चुनौती का मुकाबला करने की भरसक कोशिश की है, जिसके नतीजतन वैकल्पिक मीडिया के मोर्चे पर समकालीन तीसरी दुनिया, समयांतर, काउंटर करंट की मौजूदगी में हम निरंतर देश भर में कारपोरेट मीडिया के मुकाबले में व्यापक पैमाने पर तमाम ज्वलंत मुद्दों पर संवाद की स्थिति बनाने में कमोबेश कामयाब होते रहे।
तीस तीस हजार फेस बुक लाइक तो अब तक हस्तक्षेप पर किसी भी न्यूज ब्रेक या किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर विश्लेषण को मिल ही जाते हैं।
पिछले ही साल गूगल के मार्फत हम पचास लाख से ज्यादा पाठकों तक पहुंच रहे थे तो अब करीब दो करोड़ पाठकों तक हस्तक्षेप पर दर्ज हर चीख की गूंज पहुंच ही जाती है। इसके अलावा मीडिया कर्मियों की दुःख दर्द की खबरें अब दबती नहीं है।
फिर भी हम इस बढ़त को वैकल्पिक मीडिया आंदोलन को कारपोरेट मीडिया के मुकाबले खड़ा करने का कोई देशव्यापी आंदोलन उसी तरह खड़ा नहीं कर सके जैसे साठ से लेकर अस्सी दशक तक चरमोत्कर्ष पर रहे लघु पत्रिका आंदोलन को हमने कभी मुक्तबाजार की चुनौतियों के मुकाबले वैकल्पिक सूचनातंत्र में बदलने का कोई उद्यम नहीं कर सकें।
इस यथास्थिति को तोड़ने के लिए आप पहल करें तो हम यकीनन कामयाब होंगे।


