नरेंद्र मोदी बराबर ‘चुनाव प्रचार मोड’ में

नरेंद्र मोदी पर पिछले दो साल में बराबर ‘चुनाव प्रचार मोड’ में रहने के आरोप लगाने वाले शायद गलत नहीं हैं। कम से कम उत्तर प्रदेश के अगले साल की पहली तिमाही में होने वाले विधानसभाई चुनाव के लिए तो मोदी की भाजपा ही नहीं सरकार भी, पूरी तरह से चुनावी मोड में चली गयी लगती है। बेशक, अगले साल के शुरू में ही यूपी के साथ ही गुजरात, पंजाब, गोवा और उत्तराखंड के भी चुनाव होने हैं और मोदी सरकार ने वहां के चुनाव की भी तैयारियां शुरू कर दी हैं।

मोदी मंत्रिमंडल में दो साल में हुए करीब पहले ही बड़े फेर-बदल के महत्वपूर्ण फैसलों में, पूरे आठ-नौ महीने बाद होने वाले इन तैयारियों को साफ तौर पर देखा जा सकता है। लेकिन, यह भी किसी से छुपने वाला नहीं है कि जहां चुनाव के तकाजों को हिसाब में लेने के बाद भी मंत्रिमंडल में उत्तराखंड के प्रतिनिधित्व में सांकेतिक बढ़ोतरी ही हुई है, उत्तर प्रदेश के हिस्से में सबसे ज्यादा बढ़ोतरी हुई है, जबकि गुजरात के हिस्से में बढ़ोतरी कम हुई है, फेरबदल ज्यादा।

मोदी की भाजपा के लिए गुजरात चुनाव का विशेष महत्व

गुजरात के मामले यह बढ़ोतरी बेशक मोदी की भाजपा के लिए गुजरात के चुनाव के विशेष महत्व को दिखाती है, जहां ताकतवर पटेल समुदाय के असंतोष के रूप में भाजपा के लिए एक बड़ा सिर दर्द पैदा हो गया है। इसी प्रकार, उत्तर प्रदेश के मामले में यह बढ़ोतरी, उसके आकार के हिसाब में लिए जाने का ही मामला नहीं है। जाहिर है कि दो साल में उत्तर प्रदेश का आकार तो नहीं बदला है, पर मोदी-भागवत की भाजपा के लिए, उत्तर प्रदेश के चुनाव का महत्व जरूर बहुत बढ़ गया है। वास्तव में इस जोड़ी के लिए विधानसभाई चुनाव के आने वाले चक्र में उत्तर प्रदेश की जीत, गुजरात के बाद सबसे महत्वपूर्ण है। गुजरात के बाद भी सिर्फ इसलिए कि मोदी के गुजरात के मुख्यमंत्री की जगह देश के प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए गुजरात के पहले चुनाव में हार तो हार जोरदार धक्का भी, मोदी की ‘विजेता’ की पहले ही यहां-वहां से टूट चुकी छवि को, पूरी तरह से ही ध्वस्त कर सकता है।

बिहार की हार के धक्के से सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश में जीत ही निकाल सकती है

बहरहाल, जिस तरह उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व बढ़ाया गया है, मंत्रिपदों को चुनावी मोहरा बनाए जाने को तो दिखाता ही है, इसकी ओर भी इशारा करता है कि भाजपा तथा मोदी सरकार के आगे के मंसूबों के लिए उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव का महत्व, कुछ-कुछ पिछले साल के मध्य में हुए बिहार के चुनाव जैसा है। याद रहे कि बिहार के चुनाव ने, दिल्ली से शुरू हुए नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार की हार के सिलसिले को जिस मजबूती से आगे बढ़ाया था, उसे भाजपा करीब साल भर बाद, इस अप्रैल के असम के चुनाव में ही तोड़ पायी है और वह भी गठबंधन-चातुरी में कांग्रेस को पूरी तरह से पछाड़ने के बल पर। असम की जीत का सारा ढोल पीटने के बावजूद, भाजपा बखूबी जानती है कि उसे बिहार की हार के धक्के से सिर्फ और सिर्फ उत्तर प्रदेश में जीत ही निकाल सकती है।

इसलिए, अचरज नहीं कि राज्य मंत्रियों की फौज के रूप में उत्तर प्रदेश तथा अन्य राज्यों के चुनाव युद्घ के लिए अतिरिक्त सिपहसालार जुटाए गए हैं। इसमें जाति-समीकरण का विशेष ध्यान रखा गया है और सरकार की सवर्ण छवि को बदलने की कोशिश की गयी है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभावशाली पिछड़े समुदाय कुर्मी (पटेल) के नेतृत्व की दावेदार, अनुप्रिया पटेल के मंत्रिमंडल में लिए जाने का भाजपा के लिए रणनीतिक महत्व है। खबरों के अनुसार मंत्रिपद के बदले में, अनुप्रिया जल्द ही अपना दल के ‘अपने गुट’ का भाजपा के साथ विलय करने जा रही हैं।

हालांकि, इसका अर्थ अनुप्रिया की मां के नेतृत्व वाले इस पार्टी के दूसरे गुट का, जिसमें इस पार्टी के दो सांसदों में से एक शामिल है, भाजपा से दूर जाना भी होगा। उत्तर प्रदेश से मंत्रिमंडल में पिछड़ों के हिस्से में बढ़ोतरी को महेंद्र पांडे को लेकर संतुलित किया गया है। दूसरी ओर, रामशंकर कठेरिया की जगह पर, एक दलित कृष्णाराज को ही लाया गया है।

विकास और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता | development and majoritarian communalism,

लेकिन, इसका अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए मोदी सरकार की कार्यनीति मंत्रिमंडलीय फेर-बदल तक ही सीमित है। वास्तव में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की जून के पहले पखवाड़े में हुई बैठक में ही एक तरह से इसका एलान किया जा चुका था कि विधानसभाई चुनाव के अगले चक्र के लिए और खासतौर पर उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए मोदी-भागवत की भाजपा, अपने पुराने और बार-बार आजमाए गए कार्य विभाजन के सहारे, एक साथ विकास और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता, दोनों के नारों को दुहने की कोशिश करेगी। केंद्र सरकार के मुखिया और पार्टी के मुख के तौर पर नरेंद्र मोदी सबसे बढ़क़र विकास का जाप करेंगे और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से लेकर, मोदी के मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से लगाकर आरएसएस से जुड़े अन्य सभी संगठनों तक, सांप्रदायिक विभाजन/ ध्रुवीकरण के खेल को आगे बढ़ाएंगे। भाजपा कार्यकारिणी की इलाहाबाद बैठक ने ही इस सांप्रदायिक खेल के बहानों की सूची में एक और बहाना जोड़े जाने का एलान किया था-पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली जिले में कैराना-कांधला में मुसलमानों के उत्पीडऩ के चलते ‘हिंदू पलायन’ का मसला! इस बहाने के सांप्रदायिक अर्थ में किसी भ्रम की गुंजाइश न छोड़ते हुए, इस कथित पलायन को हाथ के हाथ ‘कश्मीर से पंडितों के पलायन’ का सहोदर बना दिया गया।

इससे पहले, दादरी में बिसाहड़ा में ‘गोमांस’ खाने के विरोध के नाम पर, भीड़ जुटाकर अखलाक की पीट-पीटकर हत्या कर दिए जाने के मामले को पलटते हुए, इस जघन्यता के पीडि़तों को ही अपराधी तथा हत्यारों को पीडि़त बनाने के जरिए, उत्तर प्रदेश के ही राष्टï्रीय राजधानी के गिर्द के इलाके में सांप्रदायिक बहुसंख्यक गोलबंदी की कोशिशें फिर से तेज की जाने लगी थीं।

कहने की जरूरत नहीं है कि इस सब को ‘घर वापसी’ से लेकर ‘लव जेहाद’ के विरोध तक और दूसरे भी अनेक सांप्रदायिक बहानों से, उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक कड़ाह को खौलता रखने की पिछले दो साल से लगातार चली आ रही कोशिशों की अंतहीन शृंखला की, महत्वपूर्ण कडिय़ों के रूप में ही देखा जा रहा था। याद रहे कि इस सिलसिले की बाकायदा शुरूआत तो आम चुनाव से कोई नौ महीने पहले, 2013 के मध्य में मुजफ्फरनगर में हुए, उसके तब तक के इतिहास के सबसे भयावह दंगे से ही हो चुकी थी, जिसने 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सभी सीटों पर और पूरे राज्य की 80 में से 72 सीटों पर, अभूतपूर्व जीत दिलायी थी।

अमोघ अस्त्र है ‘‘समान नागरिक संहिता’’

अब ऐसा लगता है कि मोदी सरकार ने उत्तर प्रदेश के आने वाले चुनाव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए, अपने हिसाब से ‘अमोघ अस्त्र’ निकाल लिया है, जिसके सामने कैराना से लेकर दादरी तक, सब मामूली तीर-तमंचे नजर आएंगे। यह अमोघ अस्त्र है ‘‘समान नागरिक संहिता’’ का, जिसे संघ-भाजपा जोड़ी संविधान की धारा-370 को निरस्त करने जैसी अपनी गिनी-चुनी मूल आस्थाओं में से एक मानती आयी है।

अचरज की बात नहीं है कि मोदी सरकार बनने के चंद महीने बाद ही, इस सरकार के विधिमंत्री सदानंद गौड़ा ‘‘राष्ट्रीय एकता के लिए जरूरी’’ बताकर, कथित समान नागरिक संहिता की पैरवी शुरू कर चुके थे। लेकिन, यह भी सच है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा ऐसी संहिता की दिशा में बढ़ऩे पर सरकार से अपना रुख स्पष्ट करने का आग्रह किए जाने पर भी, पिछले साल के मध्य तक कानून मंत्री यही कह रहे थे कि यह कोई रातों-रात होने वाला काम नहीं है और इस रास्ते पर बढ़ने से पहले बहुत व्यापक पैमाने पर विचार-विमर्ष करना होगा ताकि आम राय बनायी जा सके। लेकिन, उसके बाद गुजरे अर्से में इस मामले में किसी तरह की चर्चा या विचार-विमर्श की किसी कोशिश के बिना ही, 2016 के जून के आखिर में अचानक मोदी सरकार ने विधि अयोग को ‘‘समान नागरिक संहिता’’ पर विचार करने का आदेश दे दिया है।

हिंदू कोड बिल के आंबेडकर के प्रयास का संघ ने जबर्दस्त विरोध किया था

बेशक, सवाल यह नहीं है कि मोदी सरकार अपने मनमाफिक नागरिक संहिता वाकई तैयार करा सकती है और उसे देश पर थोप सकती है या नहीं? वास्तव में सवाल अपने आप में निजी कानूनों के नाम पर चल रहीं विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, भरण-पोषण संबंधी व्यवस्थाओं के (निजी कानूनों का क्षेत्र यहीं तक सीमित है) समतापूर्ण सार्वभौम मूल्यों पर आधारित व्यवस्था से बदले जाने के, अपने आप में काम्य होने न होने का भी नहीं है। जिस संघ परिवार ने विवाह, उत्तराधिकार आदि के मामले में स्त्री-पुरुष के अधिकारों में सीमित सुधार लाने के हिंदू कोड बिल के आंबेडकर के प्रयास का इतना जबर्दस्त विरोध किया था कि उन्हें स्वतंत्र भारत के विधिमंत्री का अपना पद छोडऩा पड़ा था और जो संघ परिवार आज भी ‘इज्जत के नाम पर’ हत्याओं व अन्य जघन्यताओं के खिलाफ अलग से कानून बनाने के विरोध की सबसे बड़ी संगठित ताकत बना हुआ है, उससे सबके लिए सार्वभौम मूल्यों पर आधारित व्यवस्था के पक्ष में खड़ा होने की उम्मीद ही कैसे की जा सकती है?
मुद्दा सिर्फ इतना है कि संघ परिवार हमेशा से समान नागरिक कानून की मांग का एक मुस्लिमविरोधी नारे की तरह इस्तेमाल करता आया है और मोदी सरकार ने आने वाले चुनाव के लिए अपनी मुहिम में उसके ऐसे ही इस्तेमाल का रास्ता खोल दिया है।

त्तर प्रदेश के चुनाव के लिए सांप्रदायिक गोलबंदी

इस पर इस तथ्य से कोई असर नहीं पड़ने वाला है कि विधि आयोग, उत्तर प्रदेश के चुनाव से पहले अपनी रिपोर्ट पेश करता भी है नहीं या आयोग की रिपोर्ट आ भी जाती है तो मोदी सरकार, उसके हिसाब से कानून बनाने के रास्ते पर आगे बढ़ती भी है या नहीं। खासतौर पर उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए सांप्रदायिक गोलबंदी के लिए संघ-भाजपा के लिए इतना ही काफी है कि उनकी सरकार एक ऐसे कदम की ओर बढ़ रही है, जिसका खासतौर पर मुस्लिम संगठन इसलिए भी विरोध कर रहे होंगे और धर्मनिरपेक्ष ताकतें ठीक इसीलिए विरोध करती आयी हैं कि संघ-भाजपा की यह मुहिम, किसी भी तरह से नागरिकों की हर मामले में बराबरी सुनिश्चित करने के लक्ष्य से संचालित नहीं है।

बहरहाल, इस मुद्दे के उछाले जाने से होने वाला सांप्रदायिक विभाजन और उस पर आधारित हिंदुत्ववादी गोलबंदी, उत्तर प्रदेश के चुनाव के लिए संघ-भाजपा की रणनीति के लिए इसलिए और भी उपयोगी हैं कि इसके जरिए होने वाली सांप्रदायिक गोलबंदी को आसानी से, खासतौर पर मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की धर्मनिरपेक्ष चिंता के आवरण में पेश किया जा सकता है। यह वह नारा जिस पर आकर, मोदी का विकास का जाप और उनके मंत्रिमंडलीय साथियों समेत शेष संघ परिवार का हिंदुत्ववादी राग, आसानी से आपस में मिल सकते हैं।

अचरज नहीं कि संघ-भाजपा इस नारे से, राम मंदिर के बार-बार के इस्तेमाल से काफी घिस गए नारे की तरह कारआमद होने की उम्मीद कर रहे हैं। यह दूसरी बात है कि इसके बावजूद, उत्तर प्रदेश के चुनाव की पूर्व-संध्या में राम मंदिर को पूरी तरह से भुला ही नहीं दिया गया है। केंद्र सरकार के पर्यटन व संस्कृति मंत्रालय द्वारा अयोध्या पर केंद्रित ढाई सौ करोड़ की राम सर्किट पर्यटन विकास योजना का आगे बढ़ाया जाना, चुनाव में राम मंदिर के मुद्दे को भी जिलाए रखने के नीयत का ही इशारा है।

राजेंद्र शर्मा

Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा। लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।
Rajendra Sharma राजेंद्र शर्मा। लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तंभकार हैं।