अबकी बार NDA और INDIA आमने-सामने हैं। लेकिन जनता के सामने एक ही सवाल है कि मोदी राज को जारी रखना है या इसे सत्ता से निकाल बाहर करना है?

मोदी जी, अपने या सहयोगी दल के उम्मीदवार के ज़रिये जनता से सीधे उन्हें ही वोट देने की बात करते हैं। मानों वही हर मर्ज़ की दवा हों। जबकि लोकतंत्र में तो ये सम्भव ही नहीं हैं। बीजेपी और एनडीए का मत-प्रतिशत बताता है कि देश के 60 प्रतिशत लोगों का मोदी जी के वादों और दावों पर कोई यक़ीन नहीं रहा है। ये लोग तो उन्हें ही देश के तमाम मर्ज़ों की इकलौती वजह मानते रहे हैं।

वोट के बेकार होने का फ़रेब

हमें भक्तों से क्या लेना-देना। उनके जो जी में आये करें। जिन्हें पत्थर में सिर मारना है वो मारें। उनकी मर्ज़ी। हम तो उनसे मुख़ातिब हैं जो ख़ुद को अन्ध भक्त या ग़ुलाम नहीं मानते। हालाँकि, ऐसे लोगों को चुनाव के वक़्त किसी की लहर या हवा या जादू वग़ैरह के नाम पर बहकाया जाता है। बहकाने और फुसलाने का सबसे आम पैंतरा है, ये अफ़वाह फ़ैलाना कि जीत रहे उम्मीदवार को वोट नहीं दिया तो पोलिंग बूथ तक जाने और वहाँ लाइन में खड़े रहने से क्या फ़ायदा!

सबसे घातक नैरेटिव

ये धारणा ही बेहद भ्रष्ट है कि यदि जिसे वोट दिया वो जीत गया तो वोट काम आया, वर्ना बेकार चला गया। ये धारणा ही अपने आप में बेहद अलोकतांत्रिक है। यही लोकतंत्र का सबसे घातक नैरेटिव है। स्वतंत्र, निष्पक्ष और गोपनीय चुनाव के नियमों के ख़िलाफ़ है। आदर्श चुनाव संहिता की भावना का मखौल है। ये ऐसा फ़्रॉड है जो चुनाव आयोग की नज़रों के सामने खुल्लम-खुल्ला होता है। लेकिन वोटर को ख़ुद इस फ़्रॉड का शिकार होने से बचना होगा, वर्ना उसके पसन्द वाले कैंडिडेट की जीत पक्की नहीं हो सकती। इससे वास्तव में जीतने लायक़ उम्मीदवार की जीत पर ग्रहण लग सकता है।

वोटिंग का उद्देश्य क्या है –

दरअसल, वोटिंग का उद्देश्य है – अपनी राय को स्वतंत्र और गुप्त रूप से बताना। गोपनीयता तो मतपत्र या EVM से सुनिश्चित हो जाती है। पारदर्शिता सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी VVPAT की है। स्वतंत्र राय का मतलब है कि मतदाता अपने विवेक से तय करे कि उसे किसे वोट देना है? उसके लिए इस बात का कोई महत्व नहीं होना चाहिए कि उसकी पसन्द की पार्टी या उम्मीदवार को जीत मिलेगी या नहीं। दरअसल, मतदाता का काम है अपना मत देना। यदि उसकी तरह सोचने वाले लोगों का बहुमत होगा तो उसकी सोच जीतेगी और यदि उसकी सोच अल्पमत में रही तो जीत नहीं होगी। यहाँ किसी वोट के काम आने या बेकार जाने का कोई तुक़ नहीं है।

ख़तरनाक सियासी दलदल

चुनाव में भोले-भाले लोगों को बहलाने-फुसलाने की साज़िश ख़ूब होती है। इसीलिए मतदाताओं को गाँठ बाँधकर रखना चाहिए कि उनका वोट कभी बेकार जाता। जा ही नहीं सकता। क्योंकि वोट ही वो अचूक अस्त्र है जिसके एक प्रहार से ही मतदाता उन सभी उम्मीदवारों, पार्टियों और नेताओं को ध्वस्त करता है जो उसका समर्थन पाने के लायक़ नहीं हैं। इसीलिए वोट की अहमियत जितना अपने पसन्दीदा उम्मीदवार को जिताने के लिए है, उससे कहीं ज़्यादा नापसन्द लोगों को हराने के लिए है। अपने वोट से हम भले ही अपनी पसन्द के उम्मीदवार को जिता नहीं सकें, लेकिन नापसन्द नेताओं को तो पूरी ताक़त से नकार ही देते हैं। इसीलिए लोकतांत्रिक फ़र्ज़ है कि हम वोट ज़रूर दें और उसे ही दें जिसे हम देना चाहते हैं। किसी की जीत-हार के ढिंढोरे में क़तई नहीं फँसें। ये बेहद ख़तरनाक सियासी दलदल है। जीत-हार के लिए किसी की भविष्यवाणी पर यक़ीन नहीं करें। नतीज़ा जानने के लिए वोटों की असली गिनती का इन्तज़ार करें।

‘दोस्ताना मुक़ाबला’ में कोई ख़राबी नहीं

अगली अहम बात ये है कि जब टक्कर गठबन्धनों के बीच हो, जब अनेक राज्यों में आमने-सामने जैसा मुक़ाबला नहीं दिख रहा हो, जब सीटों का तालमेल नहीं हो पाने की वजह से एक ही गठबन्धन के अनेक उम्मीदवार मैदान में हों तो जनता को सिर्फ़ ये देखना चाहिए कि उसके पसन्दीदा गठबन्धन का कौन सा उम्मीदवार बेहतर है? ये ऐसा सवाल है जो देश में 30-40 सीटों के नतीज़े को प्रभावित कर सकता है। लेकिन ऐसी चुनौती से निपटने वाले फ़ॉर्मूले को ‘दोस्ताना मुक़ाबला’ या friendly fight कहते हैं।

‘दोस्ताना मुक़ाबला’ कोई ख़राब चीज़ नहीं है। बहुदलीय चुनाव प्रणाली में ये crisis management कहलाता है। इसमें वोटिंग से ऐन पहले पार्टियाँ गुपचुप तरीके से अपने उस उम्मीदवार को जिताने की कोशिश करती हैं जो मुक़ाबले में सबसे मज़बूत दिखता है। ज़ाहिर है, INDIA गठबन्धन को इसका फ़ायदा ज़रूर मिलेगा। भँवर में फँसी आधी सीटें ऐसे फ़ॉर्मूले से बच जाती हैं। ऐसा हमेशा होता आया है तो इस बार क्यों नहीं होगा? लिहाज़ा, मतदाता का फ़र्ज़ सिर्फ़ यही है कि वो अपना वोट उसे तो किसी क़ीमत पर नहीं दें, जिसे वो देना नहीं चाहता।

झाँसे से बचें

आमतौर पर धनबल और बाहुबल से मज़बूत पार्टी या उम्मीदवार की विशेषता यही होती है कि वो अपने पक्ष में बनावटी लहर पैदा होने की साज़िश रचते हैं। ताकि वोटर उनके झाँसे या अन्य प्रलोभन में फँस जाए। इसीलिए सिर्फ़ वही लोग अपने चहेते नेता को जिता सकते हैं जो किसी झाँसे में फँसे बग़ैर मतदान करते हैं। लिहाज़ा, इस दुष्प्रचार में क़तई नहीं फँसें कि आप वोट काम आएगा या बेकार साबित होगा।

चुनाव ही वो वक़्त है जब आपको अतीत के अनुभवों के आधार पर भविष्य का फ़ैसला लेना होता है। जब आपको वादों और हक़ीक़त के बीच के अन्तर विरोध को पहचाना होता है। इसीलिए चुनाव के वक़्त अत्यधिक स्वार्थी बनकर सिर्फ़ अपना हित सोचिए। आपके हित में देश का हित है। लेकिन यदि देश का हित सोचने का झाँसे में आ गये तो आपका हित कभी नहीं होने वाला। कल्याण तो देश-हित की दुहाई देने वाले बहुरूपिये सौदागरों का ही होगा। उनके ही ‘अच्छे दिन’ आएँगे। आपका धर्म-जाति और आंचलिकता का रक्षा नहीं होगी। उनके दोस्त ख़ुशहाल होंगे। उनका ख़ज़ाना भरेगा।

• मुकेश कुमार सिंह •

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं, टीवी चैनलों में संपादक रहे हैं)