अमर गीतकार शैलेन्द्र की मथुरा से जुड़ी चंद यादें

हिंदी फिल्मों में अपने गीतों से करीब तीन दशक तक धूम मचाने वाले और मुंबई में अभिनेता राजकपूर के हमजोली बन 1966 में आखिरी सांस लेने वाले अमर गीतकार शैलेन्द्र का बचपन मथुरा में गुजरा लेकिन मथुरा में उनके नाम का कोई स्मारक नहीं। यादगार फिल्म" तीसरी कसम " को जन्म देने वाले शैलेन्द्र को 43 साल (1923 -1966) के छोटे से जीवन में बालीबुड में खूब सम्मान मिला। तीन बार फिल्म फेयर एवार्ड मिला। भारत सरकार ने 2013 में उनकी याद में एक डाक टिकिट जारी कर अपना धर्म निभाया। पर मथुरा, जहाँ वे पढ़े-लिखे, खेले- कूदे और यारी-दोस्ती निभाई, के साहित्यिक-सांस्कृतिक लोगों ने कभी भी उनकी सुध नहीं ली। जबकि शैलेन्द्र के मन में मथुरा की यादें आखिरी दम तक बसी रहीं।
इस बात का इल्म सभी को है कि " सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जाना है" जैसे कालजयी गीतों को जन्म देने वाले शैलेन्द्र का सम्बन्ध मथुरा से था पर बहुत काम लोग जानते हैं कि वे मथुरा के राजकीय इंटर कालेज और के. आर. इंटर कालेज में पढ़े थे, रेलवे कालोनी के एक मकान में रहकर तुकबंदी करते और अपने दोस्त बाबूलाल और द्वारिका के साथ मौज-मस्ती करते थे। शैलेंद्र के दोनों दोस्त आज इस दुनिया में नहीं हैं पर इनके परिजनों के पास शैलेन्द्र की अनेक स्मृतियाँ बिखरी पड़ी हैं। इन किस्सों से शैलेन्द्र के मुंबई में रहने वाले परिजन भी अनजान हैं।
शैलेन्द्र के बचपन के दोस्त द्वारिका सेठ के बेटे भारत सेठ मथुरा में आज भी उसी मकान में हैं, जहाँ आजादी से पहले शैलेन्द्र रोजाना उठते-बैठते थे। द्वारिका की पत्नी ने शैलेन्द्र की एक 50 साल पुरानी चिठ्ठी दिखाते कहा कि मुंबई जाकर शैलेन्द्र को खूब शोहरत मिली, उनके लिखे गीत घर-घर में गूंजे। मथुरा के लोगों से दूरियां बढ़ गईं। अचानक डाकिया ने एक चिठ्ठी लाकर दी। यह चिठ्ठी शैलेन्द्र की थी। द्वारिका ने अपने प्यारे दोस्त की चिठ्ठी को कलेजे से लगा लिया। चिठ्ठी में लिखा है —
"प्रिय द्वारिका, सप्रेम नमस्ते ,तुम्हारे नए बरस की शुभकामनाओं वाले कार्ड से तुम्हारा ठीक पता मालूम हुआ तो आज अचानक लिखने की इच्छा हुई। बाबूलाल शर्मा यहाँ ट्रेनिंग के लिए आया था तो मैंने तुम्हारे बारे में पूछा था। तुमसे मेरा कहना है कि" तुम भूल गए हमको - हम तुमको नहीं भूले"
क्या हो रहा है, क्या करते हो, कैसा है सब, एक बार यदि तफ्सील से लिखो तो तार जहाँ से टूटा है जोड़ लिया जाय, ख़ुशी होती है पुराने साथी जब दुबारा मिल जाते हैं।
अपने बारे में दो शब्द-वही काम फिल्म गीत लिखने का। इसके अतिरिक्त अपनी एक निजी फिल्म बना रहा हूँ जो अगस्त में प्रदर्शित हो जाएगी। परिवार -पांच बच्चे हैं। तीन लड़के, दो लड़की। पहला लड़का 15 साल, दूसरा 13 साल, तीसरी लड़की 12 साल, चौथी लड़की 11। पांचवा लड़का 9 बरस और फिर production बंद किया हुआ है।
पत्र लिखोगे न ? घर में सबको यथायोग्य कहना।“
महान कवियों और साहित्यकारों की निजी चिठ्ठियाँ उनके कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाश डालती हैं। शैलेन्द्र की 43 साल की अल्प जिंदगी का एक एक क्षण एक रोचक उपन्यास है। यदि ध्यान से उक्त चिठ्ठी का वाचन किया जाए तो गद्य में भी एक गीत जैसी लयात्मकता प्रतीत होती है। द्वारिका के बेटे ने इस चिठ्ठी को तस्वीर की तरह मढ़वा लिया है।
द्वारिका को जब अपने दोस्त शैलेन्द्र की मौत का समाचार 1966 में मिला तो बेहद दुःख हुआ। उसने शैलेन्द्र की याद को ज़िंदा बनाये रखने के लिए अपने एक बेटे का नाम शैलेन्द्र रखा।
मथुरा में शैलेन्द्र के एक और दोस्त थे-बाबू लाल शर्मा। बाबू लाल से मिलने शैलेन्द्र एक बार मथुरा आये थे। बाबूलाल ने इस संवाददाता को बताया था - "यह तब की बात है जब "तीसरी कसम " पिट गई थी और शैलेन्द्र कर्ज में डूब गए थे। मथुरा आकर मेरे साथ वे के आर इंटर कालेज गए। कालेज आकर बोले- बाबूलाल यदि कभी कोई और फिल्म बनाऊंगा तो इस कालेज की शूटिंग भी करूँगा। यह कहकर वे गुनगुनाने लगे — " यहां पर मेरी मथुरा नगरी, जहाँ पर यमुना जल, तू चला चल।"
गली गंगा सिंह जहाँ वे रहे, के नुक्कड़ पर बैठकर गुनगुनाते थे -" मरना तेरी गली में, जीना तेरी गली में —"
आज शैलेन्द्र के सबसे छोटे बेटे दिनेश अपने पिता की स्मृति रक्षा में जी जान से जुटे हैं। मुंबई में वह फिल्मो से जुड़े हैं। वह अपने पिता पर एक वृत्त चित्र बना रहे हैं। उन्होंने बताया -30 अगस्त को शैलेन्द्र का जन्म दिवस है। उनकी इच्छा है मथुरा में शैलेन्द्र के नाम एक आयोजन हो। दलित होने की पीड़ा उनके पूर्वजों ने मथुरा में झेली थी। दिनेश ने बताया कि वे दलितों की मसीहा मायावती से मिल चुके हैं लेकिन सब बेकार। दिनेश की इच्छा थी कि शैलेन्द्र ने अपने जीवन का शुरूआती वक्त मथुरा में गुजारा सो मथुरा में कोई स्कूल - कालेज उनके नाम पर हो। अब उन्हें यकीन है कि मथुरा की साहित्यक - सांस्कृतिक संस्थाए ही गीतकार शैलेन्द्र के नाम का एक पत्थर अपने शहर में लगवा सकती हैं। दिनेश के इस सुझाव पर मथुरा की प्रतिष्ठित संस्था " जन सांस्कृतिक मंच" इस काम में जुट गई है।
फिल्म निदेशक दिनेश ने बताया कि यह एक संयोग ही है कि मथुरा की सांसद हेमा मालिनी है । वे शैलेन्द्र के नाम से वाकिफ हैं । जब वे 18 साल की थी और मुंबई में उनका एक डांस शो था। राजकपूर को अपनी फिल्म "सपनों के सौदागर " में हीरोइन की तलाश थी। शैलेन्द्र उनके बेहद करीब थे। तब राजकपूर ने शैलेन्द्र से कहा था -" कविराज , इस लड़की का शो देख आओ और बताना कि यह फिल्म में कैसी रहेगी।" तब मैं 7 साल का था। बाबा (शैलेन्द्र )के साथ हेमा जी का डांस शो देखने मैं भी गया था। एक मायने में हेमा मालिनी को फिल्मों में लाने का श्रेय शैलेन्द्र को भी जाता है। इस फिल्म में शैलेन्द्र के गाने भी है। सपनो के सौदागर हेमा कि पहली फिल्म है"
हेमा मालिनी सांसद बन कर मथुरा में डेरा डाले हैं -बीजेपी की राजनीति करने नहीं। बल्कि कृष्ण -राधा की सांस्कृतिक विरासत का अलख फूँकने में जी जान से जुटी है। बालिबुड की नामी गिरामी हस्तियों को वृन्दावन वुला रही हैं। ऐसे में शैलेन्द्र के नाम का एक पत्थर तो मथुरा की उन गलियों -सड़कों पर लगवा ही सकती है जिन पर किसी जमाने में गीतकार शैलेन्द्र के कदम पड़े थे।
अशोक बंसल
अशोक बंसल