अमरीका और चीन की कैलिफोर्निया शिखर बैठक के भावार्थ
अमरीका और चीन की कैलिफोर्निया शिखर बैठक के भावार्थ
शेष नारायण सिंह
सात और आठ जून को दुनिया के दो सबसे ताकतवर नेता मिल रहे हैं। चीन के जी जिनपिंग और अमरीका के बराक ओबामा कैलिफोर्निया के सनीलैंड्स में मिल रहे हैं। इन नेताओं की मुलाकात एक ऐसे माहौल में हो रही है जब दोनों देशों के बीच रिश्ते ढलान पर हैं। आर्थिक विकास की हवा पर सवार चीन अपनी क्षेत्रीय हैसियत को बढाने में लगा हुआ है। अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों की कमज़ोर पड़ रही अर्थव्यवस्था के चलते चीन के हौसले और भी बुलन्द हैं। अमरीका को अब तक इस बात का गुमान था कि वह चीन के चारों तरफ के देशों में भारी मौजूदगी रखता है और उसके बल पर वह ज़रूरत पड़ने पर चीन को घेर सकता है। हालाँकि अमरीका का यह मुगालता बंगलादेश की स्थापना के बाद ख़त्म हो गया था लेकिन वह जापान, कोरिया, पाकिस्तान आदि देशों में अपनी मौजूदगी को अपनी ताक़त मानता रहा था। हालाँकि 1971 में पाकिस्तान के बड़े भाई के रूप में खड़े रहकर भी निक्सन और किसिंजर की टोली पाकिस्तान को छिन्न-भिन्न होने से बचा नहीं पायी थी। भारत ने हस्तक्षेप करके तत्कालीन पाकिस्तान के पूर्वी भाग की अवाम की आज़ादी को सहारा दिया था और स्वतन्त्र देश बंगलादेश की स्थापना हो गयी थी। एशिया के इस हिस्से में अपनी ताकत के परखचे उड़ते देख अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने अप्लीकेशन डाल दी थी और उनको चेयरमैन माओत्सेतुंग ने हाजिरी बक्श दी थी। अमरीका परस्त देश और राजनेता उसके बाद से ही दावा करते रहे हैं कि चीन और अमरीका के रिश्तों में सुधार हो रहा है लेकिन सच्चाई यह है कि पूरी दुनिया में हर तरफ अपनी दखलंदाजी करने वाले अमरीका के प्रभाव का दायरा बहुत ही तेज़ी से घट रहा है। ऐसी हालत में अमरीका के हित में है कि वह तेज़ी से विकास कर रहे चीन से अपने सम्बन्ध सुधारे। वरना वह दिन दूर नहीं जब चीन आर्थिक विकास के साथ एक ऐसी सैनिक ताक़त की शक्ल अख्तियार कर लेगा कि दुनिया भर में अपने को रक्षक के रूप में पेश करने वाले अमरीका की मुश्किलें बहुत बढ़ जायेंगी।
चीन को मालूम है कि अब अमरीका और चीन के रिश्ते बहुत ही नाज़ुक दौर में पहुँच चुके हैं और अब एक ऐसे सम्बन्ध की ज़रूरत है जो दो महान देशों के बीच स्थापित किया जाता है। जानकार बताते हैं कि दोनों देशों के नेताओं को कूटनीति के जो स्थापित मानदण्ड हैं उनसे अलग होकर कुछ करना पड़ेगा। इस सम्बन्ध में 1972 का उदाहरण दिया जाता है जब अपने भारी मतभेदों को भुलाकर चीने के सबसे बड़े नेता माओ के सामने रिचर्ड निक्सन और हेनरी किसिंजर ने आपसी हितों के मुद्दे तलाशने की कोशिश की थी।
पिछले चालीस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है। चीन को मालूम है कि वह अब एक महान आर्थिक ताक़त है और वह अमरीकी बाजार को अस्थिर करने की शक्ति रखता है। चीन में अब भी यह माना जाता है कि जब भी अमरीका दोस्ती का हाथ बढाता है वह चीन को काबू में करने के चक्कर में ज्यादा रहता है। लेकिन दोनों ही नेताओं, जी जिनपिंग और बराक ओबामा को मालूम है कि दोस्ती की राह ही सही रहेगी क्योंकि और किसी रास्ते में तबाही ही तबाही है।
ओबामा को मालूम है कि चीन को साथ लिये बिना ईरान, उत्तरी कोरिया और मौसम के बदलाव जैसे मुद्दों पर कोई सफलता नहीं मिलेगी। इसलिये सनीलैंड्स की मुलाक़ात से अमरीकी कूटनीति को धार मिलने की सम्भावना है। चीन के हित में यह है कि वह पूर्वी एशिया और अपने प्रभाव के अन्य इलाकों में अमरीका को यह भरोसा दिला सके कि चीन उसको परेशान नहीं करेगा। चीन के मौजूदा नेता जी जिनपिंग ने एक साल की अपनी सत्ता के बाद यह साबित कर दिया है कि घरेलू और विदेशी हर मामले में उनकी ताकत को कम करके नहीं आँका जा सकता। आर्थिक बदलाव के बाद चीन के सरकारी कर्मचारियों में आयी भ्रष्टाचार की वारदातों पर उन्होंने प्रभावी तरीके से कंट्रोल करने की कोशिश पर काम शुरू कर दिया है, जापान को वे अक्सर धमकाते रहते हैं। इस तरह से चीनी राष्ट्रवाद की अनुभूति को भी शक्ति मिलती है। अमरीका पहुँचने के पहले वे मेक्सिको, कोस्टा रिका और त्रिनिदाद -टोबैगो होते हुये पहुँचे हैं यानी अमरीका को पता होना चाहिये कि चीन भी अमरीका के बिलकुल पड़ोस तक असर रखता है। अगर अमरीका पूर्वी एशिया में असर रखता है तो चीन भी दक्षिण अमरीका में एक ताक़त है। इस पृष्ठभूमि में दो बड़ी ताक़तों के नेताओं का बेतकल्लुफ़ माहौल में मिलना दुनिया की राजनीति के लिये बड़ी घटना है। इसका असर आने वाले वर्षों में सभी देशों पर पड़ने वाला है।


