अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें
अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें
पलाश विश्वास
अब श्रम कानून खत्म करके रोजगार के अवसर भी खत्म, एकमुश्त खत्म मेहनतकश कर्मचारी तबका! विकास दर बढ़ाने के बहाने स्विस बैंक से काला धन लाने का झांसा देते हुए भूमि अधिग्रहण कानून, खाद्यसुरक्षा कानून, खनन अधिनियम और पर्यावरण कानून के साथ ही श्रम कानूनों को ठिकाने लगाया जा रहा है और देश की ट्रेड यूनियनें सरकार से सौदेबाजी करने में लगी हैं।
गौरतलब है कि श्रम मंत्री ने मौजूदा अधिनियमों में संशोधन एवं सरलीकरण की आवश्यकता पर बल देते हुए सुझाव दिया कि वेतन से संबंधित चारों अधिनियमों को मिलाकर एक वेतन कानून बनाया जाये।
सरकार का मानना है कि श्रम कानूनों में सुधारों के बगैर बड़े निवेश आकर्षित करना मुश्किल है। कोई गधा भी समझ सकता है कि निवेशकों की आस्था बहाल रखने के लिए श्रम कानूनों में संशोधन कर्मचारियों और श्रमिकों के हित में कैसे और कितने होंगे। लेकिन राजनीति के गुलाम ट्रेड यूनियनों के दिमाग में कोई शंका-आशंका नहीं है। जाहिर है कि ट्रेड यूनियनों का रंग भी अब केसरिया है।
राजग सरकार ने फैक्टरीज ऐक्ट 1948, बाल श्रम (निषेध एवं नियमन) ऐक्ट 1986, न्यूनतम वेतन ऐक्ट 1948 में कुछ संशोधनों का प्रस्ताव किया है। ट्रेड यूनियनों ने इन कानूनों में बदलाव को लेकर अपने सुझाव भी दिये।
केंद्र सरकार ने छोटे उद्योगों के लिए लेबर रिफॉर्म की शुरुआत कर दी है। श्रम और रोजगार मंत्रालय ने एक सीमा से कम मजदूरों वाली यूनिटों को कई लेबर कानूनों के तहत एक दर्जन से ज्यादा रजिस्टर मेंटेन करने और रिटर्न भरने की जरूरत से छूट देने की पहल की है। मंत्रालय ने कानूनी संशोधन के लिए इस बारे में इंडस्ट्री से राय मांगी है। माइक्रो और स्मॉल इंडस्ट्री में अरसे से इसकी मांग की जा रही थी। फैक्ट्री मालिकों का सबसे बड़ा विरोध रिटर्न और रजिस्टर मेंटेनेंस में चूक पर केस दर्ज करने जैसे क्लॉज को लेकर है। उद्यमियों ने इस पहल का स्वागत किया है और अपनी ओर से सुझाव भेजने शुरू कर दिए हैं।
देश में अभूतपूर्व विनिवेश मंत्री और विनिवेश रोडमैप के निर्माता, विश्वबैंक से पत्रकारिता मार्फत भारतीय राजनीति में अवतरित अरुण शौरी ने राजस्थान सरकार के निर्णय का समर्थन करते हुए कहा कि सरकार ने पुराने श्रम कानूनों में संशोधन का निर्णय सही समय पर बिना केन्द्र की प्रतीक्षा किये लिया है। शौरी ने कहा कि इस तरह के बदलाव अनेक समस्याओं को स्वत: ही हल कर देंगे।
राजस्थान में तो श्रम कानून केंद्र से पहले संशोधित कर ही दिये गये हैं। अब आर्थिक सुधारों में तेजी के लिए ब्रिटिश राज से जारी श्रम और ट्रेड यूनियन कानूनो को बदलने पर आमादा है भारत की बनिया सरकार। कहा जा रहा है कि इससे मैनुफैक्चरिंगको बढ़ावा मिलेगा और रोजगार बढ़ेंगे। एक वाक्य में कहें तो यह रोजगार के अवसरों और कार्यस्थितियों समेत श्रमिक सुरक्षा का अंत है।1950 में भारतीय संविधान की धारा 14-16,19(1) सी,23-24,38 और 41-43ए के तहत रोजगार और श्रम संरक्षण के जो उपायकिये गये हैं, उन्हें सिरे से खत्म करने का उपक्रम शुरु हो चुका है।
भारतीय मजदूर आंदोलन के दो प्रमुख गढ़ रहे हैं, कोलकाता और मुंबई। भारत में मजदूर संगठनों को भी इन्हीं दो महानगरों में अविराम श्रमिक आंदोलनों से आकार मिला। ब्रिटिश राज में बाबासाहेब अंबेडकर श्रम मंत्री थे। भारतीय श्रमिक आंदोलन को दिशा देने में उनकी पहल अब लोग भूल गये हैं। उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी बनाने से पहले वर्कर्स पार्टी बनायी थी और मनमाड के मजदूर सम्मेलन में कहा था कि भारतीय मजदूरों के दो समान दुश्मन हैं, एक ब्राह्मणवाद और दूसरा पूंजीवाद। नारायण मेघाजी लोखांडे को भारतीय मजदूर आंदोलन का जनक माना जाता है जो बाबासाहेब के सहयोगी और महात्मा ज्योतिबा फूले के अनुयायी हैं। बाद में संविधान का मसविदा बनाते हुए भी बाबासाहेब ने श्रम कानूनों को मजबूती देने की कोशिशें की जो उपर्युक्त संवैधानिक रक्षाकवच से जाहिर है। अब सत्ता वर्ग फासीवादी उन्माद के मार्फत देश को अमेरिका बनाने की खातिर उस रक्षा कवच को तहस नहस करने में लगे हैं।
विडंबना तो यह है कि बाबासाहेब के अनुयायियों को इस इतिहास के बारे में या तो पता है नहीं और पता है तो उनकी तनिक सहानुभूति देश के श्रमिक कर्मचारी तबके से नहीं है।
कर्मचारियों के संगठन के मार्फत जो बहुजन आंदोलन अंबेडकरवादी आंदोलन की मुख्यधारा है इस वक्त बाबासाहेब की खंड-खंड-खंडित रिपब्लिकन पार्टी के मुकाबले, उस कर्मचारी संगढन का इस्तेमाल हमेशा फंडिंग के लिए किया जाता रहा है और श्रमिकों कर्मचारियों के हितों में उस संगठन की ओर से कभी कोई आंदोलन हुआ नहीं है।
इसी तरह वामदलों का सत्ता बेदखल होने के बावजूद संगठित और असंगठित दोमों क्षेत्रों में श्रमिक आंदोलन पर वर्चस्व है लेकिन वामदलों ने भी अपनी समझौतापरस्त सत्ता राजनीति के लिए ही इन संगठनों का दोहन ही किया है और सही मायने में इस देश में कोई श्रमिक आंदोलन अब तक हुआ ही नहीं है 1947 के बाद, जिसका लक्ष्य राज्यतंत्र में बदलाव के साथ श्रमिकों के साथ साथ देशवासियों के हक हकूक की बहाली हो।
दूसरी ओर,वाम खेत मजदूर संगठनों ने भूमि सुधार आंदोलन को चंद राज्यों में सिमटकर रख दिया और उसे राष्ट्रव्यापी आंदोलन बनने नहीं दिया।
कामरेड बीटी रणदिवे जैसे इक्का दुक्का अपवाद को छोड़कर वाम नेतृत्व में श्रमिक संगठनों का उल्लेखनीय प्रतिनिधित्व ही नहीं रहा। मेरे ताउजी पक्के हिंदुत्ववादी थे क्योंकि विभाजन के लिए उन्होंने कांग्रेस को कभी माफ नहीं किया, लेकिन वे भी कामरेड बीटीआर के समर्थक थे।
एमकेपांधे और कामरेड गुरुदास दासगुप्त जैसे अति सक्रिय ट्रेड यूनियन नेता राजनेताओं के मातहत रहे हैं, जो सत्ता समीकरण से बाहर निकल ही नहीं सकते। इसी तरह किसान सभा के नेता भी हमेशा हाशिये पर रहे, जिनकी कभी सुनी नहीं गयी। पार्टी नेतृत्व ने दरअसल तेलंगाना से लेकर ढिमरी ब्लाक और उसके बाद सातवं दशक में भी ट्रेड यूनियन और किसान सभा के आंदोलनों से अविराम दगा करके उनके औचित्व और साख को बाट लगा दी और इन भारी भरकम जनसंगठनों की इस राष्ट्र में कोई भूमिका नहीं रह गयी। स्त्री, युवा, छात्र और प्रोफेशनल, बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार संगठन भी पार्टीबद्ध होकर अपनी अपनी आवाजें खो बैठे।
कृषि और औद्योगिक क्षेत्रों में करोड़ों की सदस्यता वाले वाम संगठनों की मौजूदगी के बावजूद तेइस साल तक अमेरिका परस्त गुलाम अल्पमत सरकारों की नीति निर्धारण में वाम भागेदारी की वजह से जनसंहारी आर्थिक सुधारों का आजतक विरोध संभव नहीं है।
कोलकाता और मुंबई अक्षरशः जलबद्ध महानगर हैं, जहां मेंढकी के पेशाब से जलप्रलय हो जाये। पूरे सावन जनजीवन स्तब्ध हो जाने के आसार। पेयजल, परिवहन, सूचना, संचार, बिजली से लेकर तमाम जरुरी सेवाओं से वंचित रहने का अभ्यास रहा है कोलकाता और मुंबई के श्रम आंदोलन केंद्रों में। नरक यंत्रणा में जीने को अभ्यस्त लोग अपनी बुनियादी जरूरतों और अत्यावश्यक सेवाओं को बहाल रखने के लिए कोई संघर्ष करने को तैयार नहीं है तो अब उनसे क्या उम्मीद कीजै।
गैर महानगरीय मजदूर बिगुल जैसे श्रम आंदोलन हालांकि जारी है और उसका देशव्यापी नेटव्रक अभी तैयार हुआ नहीं है। कोलकाता के अलावा दिल्ली मुंबई, कानपुर, नागपुर, चेन्नै, बेंगलुरु में भी शहरीकरण और औद्योगीकरण की आपाधापी में श्रमिक कर्मचारी तबके निश्चिह्न होने को हैं। इस देश में अगले कुछ दशकों में दस-दस लाख की आबादी वाले कम से कम पचास महानगर बनाये जाने की तैयारियां जोरों पर हैं, जिन्हें शायद बुलेट ट्रेनों और हवाई जहाजों से जोड़ा जायेगा।
मैनुफैक्चरिंग का मतलब है कि उत्पादन प्रणाली में मानवीय श्रम की अनिवार्यता, जैसा कि औद्योगिक क्रांति के दौर में यूरोप में देखा गया है। लेकिन मुक्त बाजार की उत्पादन प्रणाली में मानवसंसाधन गौण है। मशीन और तकनीक ही उत्पादन के आधार हैं। तो मसला रोजगार के अवसर पैदा करने के नहीं हैं, बल्कि इस अत्याधुनिक मशीनी तकनीकी उत्पादन प्रणाली में पहले से जुते हुए फालतू लोगों को बाहर करने का है।
विनिवेश और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के तरीके अपनाकर सत्ता वर्ग ने पहले ही करोड़ों हाथ पांव काट लिये हैं। स्वैच्छिक अवसर और ठेके पर काम का कहीं भी कोई खास विरोध हुआ नहीं है। श्रमिक आंदोलन में रोजगार की सुरक्षा आजाद भारत में प्राथमिकता पर कभी सर्वोच्च प्राथमिकता थी ही नहीं। अर्थवाद से नियोजित और नियंत्रित रहा है यह आंदोलन। जिसकी नौकरी जाये, तो जाये, बचे हुए लोगों को बेहतर वेतनमान, सहूलियतें और राहतें चाहिए। इसलिए सत्तावर्ग का समर्थक एक सुविधापरस्त कर्मचारी मजदूर वर्ग वंचितों बहुजनों और बेरोजगार कर दिये श्रमिक वर्ग के खिलाफ शुरू से लामबंद हैं।
औद्योगिक क्रांति के पहले दौर में यूरोप में देहात को उजाड़ा गया और किसानों का कत्लेआम हुआ। जर्मनी और ब्रिटेन के किसान आंदोलनों को देखें तो इस औद्योगिक क्रांति की अनंत समाधियां नजर आयेंगी। धर्म सुधार आंदोलन के तहत भी मध्य युग में किसानों और मजदूरों का कत्लेाम होता रहा है।
धर्म, राजनीति और पूंजी का त्रिभुज यूरोप में तबाही बरसाता रहा है जहां अब देहात है नहीं। दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया के अलावा सिर्फ चीन है, जहां अब भी खेत खलिहानों के साथ साथ देहात भी मौजूद है। औद्योगिक क्रांति चरित्र से मैनुफैक्चरिंग होने के कारण इस पूंजीवादी ढांचे की उत्पादन प्रणाली में भी कर्मचारियों और श्रमिकों के लिए अवसर थे। भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान सीमाबद्ध औद्योगीकरण में मेहनतकश तबके को रोजगार मिला भी। लेकिन तकनीकी क्रांति के बाद उत्पादन अब किसी भी अर्थ में मैनुफैक्चरिंग नहीं है। हजारों लोगों का काम एक अकेली मशीन कर सकती है। हजारों कर्मचारियों का काम अकेली मशीन कर सकती है।
भारत का सही मायने में यूरोपीय अर्थों में औद्योगीकीकरण कभी हुआ ही नहीं है। जो नगर महानगर बसाये गये, वे दरअसल समृद्धि नहीं, विस्थापन, बेदखली और मानवाधिकार नागरिक अधिकर नागरिकता हनन की मिसाले हैं।
जैसे बंगाल में मां माटी मानुष की सरकार कोलकाता को बना तो रही थी लंदन, लेकिन कोलकाता दरअसल गंदी बस्तियों का वेनिस बनकर रह गया। जहां न नदियां हैं और न समुद्र, न झीले हैं न तालाब, न नहरें हैं और न नाले। मानसून में तैराकी है जनजवन यंत्रणा।
जैसे मुंबई में महाबस्ती धारावी को निकाल दें तो आर्थिक राजधानी की कलई खुल जायेगी।
अभी इस महादेश के ज्यादातर लोग रात जगकर फीफा विश्वकप का खेल देख रहे हैं। इंग्लैंड, फ्रांस,इटली और जर्मनी की टीमों में आपको काले दिख गये होंगे, अब बताइये कि ब्राजील और अर्जेनटीना और कलंबिया और कोस्टारिका की लातिन अमेरिकी टीमं में वहां के मूलनिवासी इंडियन कितने हैं।
कोलंबस के अलावा स्पेनी, पुर्तगीज, डच, इंगलिश जैसे लुटेरों ने मध्य एशिया के रेशम मार्ग पर कब्जे के लिए जिस मौलिक ग्लोबीकरण की नींव रखी मध्ययुग में, उसका अंधकार अब भी संक्रामक है।
ब्राजील विश्वकप की तैयारियों के मध्य बड़े पैमाने पर आदिवासी मूलनिवासी बेदखल हुए। जल जंगल जमीन को तहस नहस कर दिया गया। लेकिन फुटबाल कार्निवाल ने उस त्रासदी पर पर्दा डाल दिया और राष्ट्रव्यापी जनविद्रोह की आवाज भी कुल दी गयी।
इसी लातिन अमेरिका में पैराग्वे में मय सभ्यता और पेरु में इंका सभ्यता के ध्वंसावशेष है। उत्तर, मध्य और दक्षिण अमेरिका में अपने-अपने उपनिवेश बनाकर प्राकृतिक संसाधनं की लूट खसोट में स्थानीय जनसमुदायों का खात्मा ही कर दिया गया है।
अमेरिका बनने से पहले अमेरिकी विध्वंस का इतिहास भी देखें।


