अम्मा (जयललिता) का अंत नहीं, तमिलनाडु में मातृसत्ता का अवसान!
अम्मा (जयललिता) का अंत नहीं, तमिलनाडु में मातृसत्ता का अवसान!
अम्मा (जयललिता) का अंत नहीं, तमिलनाडु में मातृसत्ता का अवसान!
छह बार तमिलनाडु की मुख्यमंत्री रहीं जे. जयललिता का मंगलवार शाम अंतिम संस्कार हो गया। उनका दाह संस्कार नहीं हुआ, बल्कि उन्हें दफनाया गया। मरीना बीच के पास जगह भी वही थी, जहां 29 साल पहले जयललिता के राजनीतिक गुरु एमजी रामचंद्रन काे दफनाया गया था। अंतिम संस्कार की रस्में जयललिता की करीबी शशिकला ने कीं। अभिनेत्री से नेत्री बनने तक के जयललिता के सफर पर प्रकाश डाल रही हैं - सबिता बिश्वास
विडंबना है कि तमिलनाडु जैसे भिन्न इतिहास और संस्कृति की महानायिका जयराम जयललिता के निधन के बाद हम उन्हें एमजीआर के साथ याद कर रहे हैं, जैसे उनकी ये तमाम उपलब्धियां उनकी नहीं, एजीआर की है।
हमारे यहां चंडी की उपासना की संस्कृति है और देशभर में सती पीठ है। जो दरअसल पितृसत्ता के वर्चस्व का स्थाई बंदोबस्त है।
किसी देवी को किसी देव के बिना याद करने की कोई परंपरा नहीं है। शिव पार्वती से लक्ष्मी नारायण, सीता राम और राधा कृष्ण तक यही वैदिकी परंपरा है।
सतीपीठों में देवी के चंडी अवतार के साथ पीठ अधीश्वर लेकिन भैरव हैं। इस भैरव से चंडी की मुक्ति नहीं है। काली के पैरों तले सोने वाले महादेव के अवस्थान और वर्चस्व में कोई फर्क नहीं पड़ता।
हम बहन मायावती के उत्थान और संघर्ष को मान्यवर कांशीराम से नत्थी किये बिना सांस नहीं ले पाते।
यहां तक कि इस देस की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की छवि में भी हम उनके पिता पंडित जवाहर लाल नेहरु को नत्थी करना नहीं भूलते।
ममता बनर्जी के मामले में पितृसत्ता को यह मौका फिलहाल मिला नहीं है। हो सकता है कि बंगाल में मातृसत्ता की जमीन उनके हक में हो।
हम यह नजरअंदाज करते हैं कि करीब अस्सी फिल्मों में जयललिता के नायक होने के बावजूद जयललिता को अन्नाद्रमुक का प्रचार सचिव बनाने और 1984 से 1989 तक राज्यसभा में उनकी सदस्यता के अलावा एमजीआर का कोई हाथ जयललिता के उत्थान में नहीं है। जैसे बहुजन समाज पार्टी के निर्माण के बाद अपनी राजनीति अच्छी बुरी जो भी हो, वह बहन मायावती की भूमिका है। जैसे ममता बनर्जी की लड़ाई उनकी अपनी है।
दरअसल अस्वस्थता के दौरान अपने जीवन काल में ही एमजीआर ने जयललिता को उनकी महात्वाकांक्षा के कारण खतरा मानते हुए या फिर पारिवारिक कलह के कारण हाशिये पर रख छोड़ा था।
एमजीआर के मृत्यु के बाद उनके परिवार के लगातार अपमान और विरोध के बावजूद तमिलनाडु की अनार्य द्रविड़ भूमि में अयंगर ब्राह्मण कन्या जयललिता ने जो मातृसत्ता की स्थापना की, अपने राजनीतिक वर्चस्व के साथ उसका उनका फिल्मी कैरियर या एमजीआर के साथ उनकी फिल्मी युगलबंदी का कोई नाता नहीं है, यह उनकी अपनी उपलब्धि है। जिसे दरअसल हम लोग पुरुषसत्ता की मानसिकता के साथ सिरे से खारिज कर रहे हैं।
1982 को राजनीति में प्रवेश करने के बाद फिल्मों से नाता जयललिता ने पूरी तरह तो़ड़ लिया था, लेकिन आज उनके अवसान के बाद हम उन्हीं फिल्मों में जयललिता को खोज रहे हैं, जहां 1982 के बाद वे कभी थी ही नहीं।
हम ऐसा उन्हें एमजीआर के साथ जोड़ने के लिए जितना कर रहे हैं उतना मातृसत्ता को खारिज करने के लिए कर रहे हैं।
तमिल द्रविड़ विरासत के खिलाफ यह विशुध पतंजलि मार्का वैदिकी संस्कृति है।
इसके विपरीत, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया में जयललिता के अवसान पर एमजीआर वंदना के उलट बांग्ला के सबसे लोकप्रिय दैनिक आनंद बाजार पत्रिका में पहले पेज पर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का जयललिता पर संस्मरण लंबा चौड़ा छपा है, जिसमें उन्होंने एक बार भी एमजीआर का उल्लेख नहीं किया है।
ममता दीदी ने अपने राजनीतिक संघर्ष के संदर्भ में जयललिता के जीवन संग्राम को जोड़ा है और उनके राजनीतिक संघर्ष और उत्थान का सिलसिलेवार ब्यौरा दिया है।
दीदी का यह आलेख दरअसल स्त्रीपक्ष है।
गौरतलब है कि जयललिता का जन्म कर्नाटक के मैसूर में हुआ था और उनके पिता कन्नड़भाषी थे। उनकी फिल्मी यात्रा कन्नड़ फिल्मों के साथ शुरू हुई। लेकिन तमिल फिल्मों में काम शुरु करते ही वे पूरी तरह तमिल हो गयीं। उन्होंने पितृ परिचय को कही नहीं ढोया है और कन्नड़भाषियों में वे इस वजह से बेहद अलोकप्रिय रही हैं।
जयललिता मां के परिचय के साथ वे तमिलनाडु की तमिल अस्मिता की महानायिका बनी।
विवाह नहीं किया लेकिन अपनी सहेली शशिकला के गैर ब्राह्मण पुत्र को लेकर वे ब्राह्मणविरोधी तमिल राजनीति की शिखर पर पहुंच गयी। जाहिर है कि यह उनके अपने वजूद की लड़ाई पितृसत्ता के खिलाफ निर्णायक जीत है।
तमिलनाडु के बाहर यह कल्पना करना कठिन है कि तमिलनाडु के आत्मसम्मान आंदोलन की पेरियार भूमि में उन्हीं की विचारधारा के मुताबिक चलने वाली द्रमुक राजनीति की कमान इतने लंबे अरसे तक, लगभग तीन दशक तक किसी कन्नड़भाषी अयंगर ब्राह्मण के हाथों में कैसे रही।
राजनीति में विवादों का सिलसिला कभी खत्म होता नहीं है।
महिला राजनेताओं की छवि बिगाड़ना भारत में पुरुष वर्चस्व की राजनीति का सबसे सनसनीखेज खेल है, जिसका अंत कभी नहीं होता। इस खेल के शिकार इंदिरा गांधी से लेकर मायावती, सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे, सोनिया गांधी, मायावती, जयाप्रदा से लेकर ममता बनर्जी और हर छोटी बड़ी महिला राजनेता बार-बार होती रही हैं।
गौरतलब है कि जयललिता इन तमाम विवादों के बावजूद राजनीतिक गति और वेग बनाये रखने में कामयाब रहीं।
बार-बार पराजय के बाद हर बार हार को जीत में बदलने का काम वे करती रही हैं और जनता से सीधे संवाद के मामलों में, जनता की बुनियादी जरूरतों और सेवाओं से अपनी सरकार और अपनी पहचान जोड़ने और निरंतर जनसुनवाई का बंदोबस्त बनाये रखने में उन्होंने कभी कोई चूक नहीं की।
सीधे हॉटलाइन पर उनसे जनता को बात करने की सुविधा थी। इसके लिए डेढ़ सौ आपरेटर उनने लगा रखे थे। सरकार तक जनता की आवाज पहुंचे, ऐसा इंतजाम उनका था। उनकी सारी राजनीति की पूंजी यही थी और फिल्मी करिश्मा के बदले यही उनका जनाधार था।
आज भी परिवार और समाज में स्त्री का पक्ष लेने वालों को अच्छी नजर से देखा नहीं जाता।
पत्नी का सम्मान करने वाले पति को भारतीय समाज कायर पुरुष और नपुंसक तक मानता है।
ऐसे माहौल में अविवाहित राजनेताओं और पति से अलग होकर राजनीति में कामयाबी हासिल करने वाली महिला राजनेता को किसी न किसी पुरुष से नत्थी किये बिना पितृसत्ता चैन से नहीं बैठती।
जयललिता के साथ हमेशा ऐसा ही होता रहा है।
उनके अवसान के बाद भी उन्हें सिर्फ एमजीआर की छाया बताने साबित करने में कोई कुछ भी कसर नहीं छोड़ रहा है।
जीवन के किसी भी क्षेत्र में कामयाब स्त्री या नेतृत्व की भूमिका में उभरने वाली स्त्री के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती है।
तमिलनाडु की अम्मा ने इस चुनौती का न सिर्फ बखूबी मुकाबला किया, बल्कि इसके मुकाबले निर्णायक जीत बार-बार हासिल की है।
फिर भी यह देश स्त्री की कामयाबी या उसका नेतृत्व स्वीकार करने को किसी भी सूरत में तैयार नहीं है।
पितृसत्ता हमेशा आनर कीलिंग के मोड में है। मूड भी वहीं है।


