पलाश विश्वास
अलविदा फैक्टरी एक्ट! कामगारों के सारे हक हकूक अब खत्म, फिर भी खामोशी उनकी, जिनके हाथों में लाल झंडा !
अलविदा फैक्टरी एक्ट! कामगारों के सारे हक हकूक अब खत्म, फिर भी खामोशी उनकी, जिनके हाथों में लाल झंडा! कैबिनेट ने अवैध माइनिंग पर शाह आयोग की रिपोर्ट को मंजूरी दे दी है। कल सीसीईए यानि कैबिनेट कमेटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स की बैठक में ये फैसला हुआ। साथ ही कैबिनेट ने श्रम कानून और फैक्ट्री एक्ट में संशोधन को भी हरी झंडी दे दी है।
कारपोरेट जनादेश से बनी कारपोरेट सरकार के सत्ता में आते न आते मुक्तबाजार अर्थव्यवस्था में आमूलचूल बदलाव के लिए भारत के नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार श्रम कानूनों में बदलाव की तैयारी कर रही है। इसका मुख्य उद्देश्य देश में उत्पादन और रोजगार बढ़ाना है, बाबुलंद नगाड़े ऐसा प्रचार कर रहे हैं और अब भी ट्रेड यूनियनों की नींद टूटी नहीं है। इसको क्या कहा जाये, क्या यही विचारधारा है और क्या यही प्रतिबद्धता है, कोई बताये।
बाजार ने बिना शर्त नमो सुनामी पैदा करने के लिए लाखों करोड़ का न्यारा- वारा कर दिया सिर्फ इसलिए कि कारोबारियों का मानना है कि नरेंद्र मोदी के तौर पर उन्हें नया प्रधानमंत्री मिलने को है, जो बिजनेस को लेकर काफी गंभीर है और उन्हें लगता है कि भारत में भी श्रम कानूनों में बड़े बदलाव हो सकते हैं। उनका दावा है कि इसके बाद किसी भी व्यक्ति को आसानी से नौकरी से नहीं निकाला जा सकेगा। दरअसल इन संशोधनों के बाद न किसी का रोजगार सुरक्षित होगा और न रोटी की कोई गारंटी होगी।
जिन बाबा साहेब का करा धरा है श्रमिकों का यह कवच कुंडल, वे रामायण महाभारत में निष्णात हैं या धर्मस्थलों में दरबार लगाकर कर्मफल से मोक्ष प्रापित का योगाभ्यास कर रहे हैं। हालांकि बाबा का नाम लिये बिना उनका हाजमा खराब हो जाया करता है और बाबा की भले हत्या हो जाये इस तरह रोज-रोज, लेकिन बाबा की बुराई सुन ही नहीं सकते।
आम लोग तो बुलेट चतुर्भुजी धारीदार कामसूत्र के मुक्तबाजारी तिलिस्म में फंसे हैं कि छन छन कर विकास की बूंदों से उनका जीवन मरण सार्थक हो जायेगा। लेकिन सबसे बड़े अपराधी तो लाल झंडों के धारक वाहक हैं। जो समूची उत्पादन प्रणाली के तहस नहस होने पर खामोश हैं। जो खेतों के मरघट में क्रांति का ख्वाब सजाते हैं। जो चायबागानों के मृत्युजुलूस में लाल सलाम, लाल सलाम कहते अघाते नहीं है। जो साम्राज्यवाद के विरुद्ध जुलूस निकालते हैं और साम्राज्यवादियों के साथ गठबंधन करते हैं। जो ट्रेड यूनियनों पर एकाधिकार होने के बावजूद तेईस रहे हैं। जो वेतन बढ़ाओ आंदोलन को करते रहे, तालाबंदी और छंटनी के खिलाफ लड़े नहीं। जो विनिवेश और एफडीआई सत्तावर्ग के साथ जनता के खिलाफ मोर्चाबंद हैं।
बाबा साहेब के अनुयायी तो खैर बाबा साहेब के कृतित्व और विचारों के बजाये उनकी पूजा के लिए बनाये मंदिरों और मूर्तियों के शरणागत हैं।
नरेंद्र मोदी सरकार ने श्रम कानूनों में बदलाव पर बड़ा फैसला लिया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने तीन अहम श्रम कानूनों में संशोधन के प्रस्ताव पर मुहर लगा दी है। यूनियन कैबिनेट ने इसके लिए फैक्टरी एक्ट, 1948 अप्रेंटिसशिप एक्ट, 1961 और लेबर लॉज एक्ट, 1988 में कुल 54 संशोधन किए हैं।
प्रधानमंत्री मोदी के कौशल विकास नजरिये को ध्यान में रखते हुए अप्रेंटिसशिप अधिनियम में 500 नए क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है। साथ ही कुछ क्षेत्रों के लिए केंद्र से मिलने वाली अनुमति का इंतजार किए बिना ही कंपनियां इन क्षेत्रों में पहल कर सकती हैं।
श्रम मंत्रालय ने फैक्टरी अधिनियम में 54 संशोधनों का प्रस्ताव रखा है। इनमें कर्मचारियों के लिए एक तिमाही के दौरान ओवरटाइम की समय सीमा मौजूदा 50 घंटों से बढ़ाकर 100 घंटे करना, फैक्टरी में काम करने वाली महिला कर्मचारियों के लिए नाइट ड्यूटी के नियमों में छूट और स्वास्थ्य व सुरक्षा के नियमों को मजबूत बनाने जैसे प्रावधान शामिल हैं।
इस मामले में छोटी एवं मझोली औद्योगिक इकाइयों की राह सुगम की जा सकती है। इसके साथ ही छोटी इकाइयों की परिभाषा को भी बदले जाने की संभावना है जिसमें मौजूदा 10 के मुकाबले 40 कर्मचारियों की भर्तियों का नया पैमाना बनाया जाएगा।
गौरतलब है कि बाबा साहेब अंबेडकर ने ही बरतानिया सरकार के श्रम मंत्री के तहत ट्रेड यूनियन अधिकार बहाल करने के बाद फैक्ट्री एक्ट समेत तमाम कायदे कानून लागू किये थे और जब उन्होने भारतीय संविधान का मसविदा तैयार किया तो धारा 12 से लेकर धारा 42 तक के प्रावधानों के तहत भारत में कामगारों के हक हकूक तय कर दिये थे। बाबा साहेब की इस विरासत के खात्मे के इस नरसंहारी अभियान के खिलाफ अंबे़करी खेमा में सन्नाटा टंगा हुआ है, जिसे अब सही-सही मालूम भी नहीं है कि इस भारतीय लोक गणराज्य के गठन में उनके मसीहा की क्या भूमिका रही है।
पूँजी वर्चस्वी वर्णवर्चस्वी नस्ली केसरिया जायनी कारपोरेट अमेरिका परस्त सरकार विदेशी निवेशकों के हित में अबाध पूँजी प्रवाह और प्रत्यक्ष विदेशी विनिवेश के अवरोध खत्म करने के लिए दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों के तहत श्रम कायदे कानून के सफाये की शुरुआत कर चुकी है।
ध्यान दें जैसे कि नागरिकता से लेकर भूमि अधिग्रहण, खनन, पर्यावरण कानूनों तक में संशोधन अटल शौरी आडवानी त्रिमूर्ति का रोड मैप रहा है, दस साली यूपीए राजम में केसरिया संघी से लेकर वाम-दक्षिण-लाल-नीले-हरे-पीले संसदीय समर्थन के साथ अरबपतियों के संसद में उसी मंजिल की तलाश की जाती रही है, उसी तरह श्रम कानूनों में संसोधन के इस प्रकल्प को लागू करने का प्रयास यूपीए जमाने में भी होता रहा है और मनमोहनी जमाने में नीतिगत विकलांगकता और राजनीतिक बाध्यताओं की वजह से इस एजेंडे को अमली जामा नहीं पहुँचाया जा सका।
जाहिर है कि कैबिनेट की मंजूरी के बाद बहुमती सरकार के लिए कांग्रेस समेत पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक सहमति से कामगारों के तमाम हकहकूक छीनने का उपक्रम है यह।
लेकिन इन कानूनों से सिर्फ कामगारों का सत्यानाश होगा, ऐसा भी नहीं है।
मसलन मीडिया जो पेड न्यूज से सर्वशक्तिमान जनमत निर्देशक बनकर बाजार का लाड़ला है, इस वक्त इस सेक्टर में श्रमजीवी पत्रकारों के सारे हक हकूक फैक्ट्री एक्ट के ही मुताबिक हैं। फैक्ट्री एक्ट खत्म तो श्रमजीवी पत्रकारों की ऐसी तैसी तय है।
गौर करें कि पत्रकारों गैर पत्रकारों के लिए मजीठिया वेतन मान लागू करने के आदेश पारित होने में तेरह साल लग गये। नये वेतनमान की प्रोन्नत, लाभ और ब्याज तो सारे के सारे मालिकान के खाते में चले ही गये, लेकिन मीडिया का अंतिम यह वेतनमान सर्वत्र लागू भी नही हुआ है। कैटेगरी और ग्रेड मर्जी माफिक सौदेबाजी सापेक्ष है तो बैक डेटेड प्रोमोशन का वेतनमान दिये जाने के बाद भी स्टेटस बदला नहीं है। और यह आखिरी वेतनमान है।
पांचवे और छठें वेतनमान से चर्बीदार हो गये लोगों को आस पड़ोस के मातम की खबर नहीं है। लेकिन इन संशोधनों के जरिये बाट उनको भी लगने वाली है। सातवें वेतनमान की घोषणा हो चुकी है जो नये श्रमकानूनों के मुताबिक ही लागू होंगे।
खास ध्यान देने वाली बात यह है कि एफडीआई राज और सेज महासेज स्मार्ट सिटी सांढ़ संस्कृति के मद्देनजर ही श्रम कानून बदले जा रहे हैं और खुदरा बाजार में विदेशी कंपनियों की बहार का इंतजाम है यह।
फ्लिपकार्ट, अमेजन, वालमार्ट के खुदरा कारोबार में श्रम कानून बाधक न हों और जिंदल मित्तल टाटा रिलायंस अदाणी वगैरह-वगैरह को परियोजनाओं को हरी झंडी मिलने के बाद गुजराती पीपीपी माडल के तहत मुनाफावसूली में किसी किस्म की दिक्कत न हो, इसी का यह इंतजाम है।
मतलब यह कि कृषि आजीविका और छोटी और मंझोली पूँजी के कारोबार को बाजार से बेदखल करने का भी इंतजाम है यह।
नए श्रम कानूनों के तहत उन कंपनियों को श्रम कानून की बंदिशों से छूट मिल जाएगी, जहाँ 40 से कम लोग काम करते हैं। अभी तक 10 से कम कर्मचारियों वाली कंपनी को ये छूट हासिल है।
इसके अलावा अप्रेंटिसशिप एक्ट के तहत कंपनी के मालिक को हिरासत में लेने का प्रावधान भी खत्म हो जाएगा। दलील है कि इससे ज्यादा से ज्यादा कंपनियों को अप्रेंटिशिप योजना में शामिल होने में मदद मिलेगी।
ओवर टाइम ड्यूटी की सीमा भी बढ़ाकर दोगुनी करने का प्रस्ताव है। फिलहाल एक तिमाही में अधिकतम 50 घंटों की ओवरटाइम लिमिट है, जो बढ़कर 100 घंटों की हो जाएगी।
पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।