अवसान: युगपुरुष का और दरकती हवाएं
अवसान: युगपुरुष का और दरकती हवाएं
मानवेन्द्र सिंह यायावर की इस पुस्तक में संकलित अधिकतर कवितायें भारत के सामाजिक इतिहास के उस मोड़ पर लिखी गयी हैं जब देश में नेहरू के विकास के मॉडल को नकारा जाना शुरू हो चुका था। अस्सी के दशक के अंत तक यह साबित हो चुका था कि मिश्रित अर्थव्यवस्था और उत्पादन के साधनों पर सामाजिक नियंत्रण की जिस आर्थिक सोच को जवाहरलाल नेहरू ने आज़ादी के बाद देश के विकास के बुनियादी दर्शन के बारे में शुरू किया था वह नाकाफी था। इस दौर में एक ऐसी अर्थव्यवस्था का प्रादुर्भाव होने वाला था जिसका जवाहरलाल नेहरू ने विरोध किया था। पूंजीवादी अर्थशास्त्र का युग शुरू होने वाला था। 1992 में तत्कालीन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने उसी दौर में उदारीकरण और वैश्वीकरण के नाम पर देश का भविष्य बदल दिया था। उनका आर्थिक दर्शन जवाहरलाल नेहरू को नकारने का सबसे बड़ा मुकाम था।
नेहरू ने औद्योगिक विकास को देश के विकास का कारक बनाने की कोशिश की थी। उनका विश्वास था कि योजनाबद्ध तरीके से देश के नगरों को महानगर बनाया जाएगा और और कस्बों को नगर। उनके हिसाब से विकास का नगरीय तरीका ही आजादी के बाद के भारत को उसके सपनों की तामीर दिखायेगा। उन सपनों को जिनको आज़ादी के लड़ाई के नायकों देश की जनता को दिखाया था। देश की आर्थिक नीति को विकास का वाहक बनाने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने औद्योगीकरण और शहरीकरण को विकास का माध्यम बनाया। उन्होंने ब्लाक को विकास की इकाई बनाने के सिद्धांत को लागू किया। ऐसा करने में उन्होंने अपने नेता और गुरु महात्मा गांधी की खुशहाली की आर्थिक नीति को नकार दिया था। महात्मा गांधी ने तर्क दिया था कि आज़ादी के बाद भारत के विकास की ज़रुरत है और उस विकास को हासिल करने के लिए गाँव को ही विकास की यूनिट माना जायेगा। उनका कहना था कि गाँव में आर्थिक विकास का सारा बुनियादी ढांचा मौजूद है। आर्थिक संसाधनों के कंट्रोल की बाद सदियों पहले तय हो चुकी है। राज्य और राजनीति का ज़िम्मा है कि वह ऐसी आर्थिक नीतियों को लागू करें जिससे ग्रामीण भारत में रहने वालों की आर्थिक स्थिति सुधरे और उनके हाथ में अधिक संपत्ति आये, जिससे वे आर्थिक विकास के स्थाई निगहबान बन सकें।
महात्मा गांधी की सोच से इतर नेहरू ने सोवियत रूस वाला योजनाबद्ध विकास का माडल भारत के आर्थिक विकास के लिए अपनाया लेकिन समाज में व्याप्त गैर बराबरी को हल करने के लिए किसी नई सोच की बात तक नहीं की। नतीजा यह हुआ कि एक बहुत बड़ी नौकरशाही की स्थापना करनी पड़ी। सामाजिक जागरूकता नहीं थी, सामाजिक न्याय नहीं था, इसलिए काले धन की एक नई और समानांतर अर्थव्यवस्था पैदा हो गयी। 1989 तक आर्थिक विकास के माडल की हृदयहीनता जीवन के हर क्षेत्र में साफ़ नज़र आने लगी थी। अस्सी के दशक में तरक्की के सपनों की दरकती हवाओं को महसूस करते पच्चीस साल के एक नौजवान ने इस दर्द को महसूस किया। वही दर्द इन कविताओं में शब्दों का जामा पहनकर हमारे सामने आता है। यह कवितायें गांधी के विकास को न अपना सकने की सरकार और राजनीति की मजबूरी को देतीं हैं। इस संकलन की कविता 'अवसान: युगपुरुष का' उस दर्द को मुखर करती है और उसको सार्वकालिक बनाती है।
यह कवितायें वास्तव में एक ऐसे संवेदनशील नौजवान का दर्द हैं जिसको नहीं मालूम कि गांधी की सोच को न अपनाने वाला देश जिस अंधकार की तरफ बढ़ रहा था, वहां से कैसे निकलेगा, लेकिन उस नौजवान को दर्द के अनुभव के रास्ते साहित्य का रूप देने में निश्चित सफलता मिली है। इस संकलन में कुछ ऐसी कवितायें हैं, जो नब्बे के दशक की दिशाहीनता को संबोधित करती हैं। इतिहास के उस कालखंड को संवेदनशीलता के धरातल पर अनुभव किया गया है और कविता में बाँध दिया गया है। यह कवितायें आज भी उतनी ही सार्वकालिक हैं जितनी अपनी रचना के समय में थीं। आज जब आर्थिक विकास के नेहरू मॉडल और उनके प्रिय योजना आयोग को विदाई दी जा चुकी है, नया निजाम कुछ और करने जा रहा है जो न तो गांधी की सोच मिलान खाता है और न नेहरू की सोच से, तो निश्चित रूप से इन कविताओं की सार्वकालिकता कसौटी पर है।


