सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी की 'लहू बोलता भी है' पर डॉ. सुरेश खैरनार के विचार

हमारे मित्र सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी जी ने 'लहू बोलता भी है' जंगे - आजादी - ए - हिन्द के मुस्लिम किरदार इस शीर्षक से 480 पेज की किताब 2017 में लखनऊ से प्रकाशित करके बहुत बड़ा काम किया है !

सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी साहब ने आज़ादी की पहली जंग, मुर्शिदाबाद के नवाब सिराजुद्दौला के साथ प्लासी 23 जून 1757 से लेकर मैसूर के नवाब टीपू सुल्तान की श्रीरंगपट्टनम के मैदान में हुई जंग 1899, तथा हिंदुस्तान के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में की गई आजादी की दूसरी सबसे बड़ी जंग 1857 तथा महात्मा गाँधी के द्वारा की गई भारत छोड़ो 1942 की घोषणा के बाद हुए आंदोलन के बारे में बहुत दुरुस्त जानकारी दी है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि इस लड़ाई में शहीद हुए मुस्लिम 1192 पुरुषों के साथ 41 मुस्लिम महिलाओं की शहादत का विस्तृत विवरण देकर बहुत बड़ा काम किया है।

1857 के बाद अंग्रेजों ने तय करते हुए 'बाँटो और राज करो' पॉलिसी के तहत दोनों समुदाय के फिरकापरस्त तत्वों को पहचान कर, उनके द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के इर्द-गिर्द काम शुरु कर दिया था और उसके लिए दोनों धर्मों के अलग - अलग संगठन बनाने के लिए परदे के पीछे से काम शुरु कर दिया था। जिसकी बदौलत 19वीं शताब्दी के शुरुआत में हिंदुओं के भारत महामंडल जिसके अध्यक्ष दरभंगा के महाराजा थे, जिसमें अंग्रेजों की बहुत बड़ी भूमिका थी जो 1906 में हिंदू महासभा के रूप में परिवर्तित की गई, वैसे ही ढाका के नवाब सलीमुल्लाह खान ने मुसलमानों की ऑल इंडिया कन्फेडरेशन के नाम से एक जमात शुरू की जो दिसंबर 1906 से ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नाम से जानी गयी। उसके बाद नागपुर में 1925 के दशहरे के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की गई है।

सौ वर्ष से अधिक समय से आरएसएस मुसलमानों के खिलाफ गलतफहमियां फैलाने का काम बारह महीनों चौबीसों घंटे करते आ रहा है और उसमे सबसे प्रमुख बात मुसलमानों को राष्ट्रद्रोही बोलने का और उन्हें आजादी की लड़ाई की जगह देश के बंटवारे के लिए जिम्मेदार ठहराने के आरोप लगाए जा रहे हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह किताब आरएसएस द्वारा किये जा रहे प्रचार को करारा जवाब दे रही है। हालांकि आजादी के आंदोलन से आरएसएस का संबंध दूर-दूर तक नहीं था! उल्टा वे अंग्रेजों की पुलिस और सेना में भर्ती कराने के काम में लगे रहे और विडंबना है कि, वह आज स्वघोषित देशभक्त बनकर, देशप्रेम और देशद्रोह के सर्टिफिकेट बाँटने का काम कर रहे हैं। सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी द्वारा इस किताब का लेखन इतने विस्तृत रूप से करने के लिए, मै उन्हें विशेष रूप से धन्यवाद दे रहा हूँ।

हालांकि इस विषय पर हमारे कलकत्ता के मित्र प्रोफेसर शांतिमय रॉय ने अंग्रेजी में 160 पेज की नैशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया के द्वारा 1979 में एक किताब संक्षेप में Freedom Movement and Indian Muslims' शीर्षक से लिखकर प्रकाशित की है। मैं प्रोफेसर शांतिमय रॉय की किताब को सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी की 'लहू बोलता भी है' की प्रस्तावना के तौर पर देख रहा हूँ।

भारत में अंग्रेज़ों के राज की शुरुआत बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को प्लासी की लड़ाई में हराने के बाद 23 जून 1757 से कायम हुई जो कि बाद में दक्खन के नवाब टीपू सुल्तान के साथ हुई श्रीरंगपट्टनम के मैदान में 4 मई 1899 हुई लड़ाई में, अठारहवीं शताब्दी के अंत में, भारत की दो प्रमुख शासनकर्ता से सत्ता छीनने के बाद, पुणे के पास 1818 में भीमा कोरेगांव की लड़ाई में पेशवाओं के साथ हुई लड़ाई को जीतने के बाद चालीस सालों के भीतर तत्कालीन दिल्ली के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में (1857) जिसमें अहमद अब्दुल्ला, बेगम हजरत महल, शहजादा फिरोजशाह, बल्लभगढ़ के राजा बख्त खान, इलाहाबाद के मौलवी लियाकत अली, रानी लक्ष्मीबाई, पेशवा बाजीराव, नाना फडणवीस, तात्या टोपे, वीर कुंवर सिंह, राजा देवी बख्श सिंह, और मौलवी फजले हक खैराबादी और उनके साथी मौलवियों ने सर पर कफन बांधकर जिस दिलेरी और हिम्मत से आजादी की लड़ाई लड़ी उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है।

इस 1857 की लड़ाई के बाद संपूर्ण भारत पर अंग्रेजों का राज कायम हो गया। उसके बाद के नब्बे सालों के भीतर और 1857 की लड़ाई के बाद लोगों को लगने लगा कि अब इस तरह से छुटपुट और बिखरी हुई कोशिशों की जगह संघटित होकर कोशिश करनी चाहिए और इसलिए संपूर्ण भारत में जगह - जगह संगठन बनने की शुरुआत हुई उदाहरण के लिए (1) बंगाल में इंडियन असोसिएशन (2) बंबई में प्रेसिडेंसी असोसिएशन (3) मद्रास में महाजन सभा (4) पूना में सार्वजनिक सभा इन सभी के अलावा सर ए ओ ह्यूम नाम के एक रिटायर्ड अंग्रेज अधिकारी ने इंडियन नेशनल यूनियन जो बाद में इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाम से जानी जाती है की शुरुआत 1885 में की गई। 1885-1905 के दौरान कांग्रेस में मुसलमानों की हिस्सेदारी कम रही लेकिन बाद में देखा कि अलग-अलग संगठन के तरफ से की जा रही कोशिश की आड़ में अंग्रेजों को दोनों संप्रदाय के लोगों के सवाल सुलझाने की जगह उन्हें उलझाने में मददगार साबित हो रहा है तब 1910 के नागपुर में हुए मुस्लिम लीग के अधिवेशन में कांग्रेस के साथ मिलकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लडने फैसला लिया गया। जिसका कांग्रेस ने स्वागत किया और बैरिस्टर मोहम्मद अली जिनाह जो कि मुस्लिम लीग के सख्त खिलाफ थे, उन्हें मोहम्मद अली जौहर तथा सर वजीर हसन की बातचीत में तय किया गया कि आजादी की लड़ाई के लिए सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर मुस्लिम लीग और कांग्रेस मिलकर काम करे।

इसके लिए बैरिस्टर मोहम्मद अली जिनाह तैयार नहीं थे। लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेतृत्व ने उन्हें हरी झंडी दिखाने के बाद पटना अधिवेशन में दोनों धर्म के लोगों ने आजादी की लड़ाई मिलजुलकर लड़ने का फैसला लिया और 1913 तक बैरिस्टर मोहम्मद अली जिनाह मुस्लिम लीग के सदस्य भी नहीं बने थे।

वह कांग्रेस के सदस्य के हैसियत से पटना, कलकत्ता तथा लखनऊ के छठे अधिवेशन में सरोजिनी नायडू तथा बिशन नारायण दार के साथ शामिल हुए थे। ज्यादातर इतिहासकारों ने बैरिस्टर मोहम्मद अली जिनाह को मुस्लिम लीग को बनाने से लेकर पाकिस्तान के निर्माण में शामिल होने का वर्णन किया है लेकिन सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी ने बहुत मेहनत से अन्य लेखकों की किताबों का अध्ययन करने के बाद, पाया कि 1906 में बनाई गई मुस्लिम लीग के साथ 1914 तक जिनाह का कोई वास्ता नहीं था ! उल्टा वह सैद्धांतिक रूप से मुस्लिम लीग बनाने के खिलाफ थे जबकि कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं ने आज़ादी की लड़ाई के लिए मुस्लिम लीग के साथ मिलजुल कर काम करने का फैसला लिया था। 1915 को मुंबई में दोनों पार्टियों के अधिवेशन एक ही समय चल रहे थे। जिसमें महात्मा गाँधी के साथ लॉर्ड सिन्हा, सुरेंद्रनाथ बैनर्जी, पंडित मदन मोहन मालवीय, श्रीमती एनी बेसेंट, सरोजिनी नायडू, बैरिस्टर मोहम्मद अली जिनाह के आग्रह से शामिल हुए और यह सिलसिला शुरू होने के दुसरे ही साल लखनऊ के लीग अधिवेशन के अध्यक्ष बैरिस्टर मोहम्मद अली जिनाह और कांग्रेस के अध्यक्ष अंबिका चरण मजुमदार के बीच लखनऊ पैक्ट हुआ !

1921 तक दोनों पार्टियों के अधिवेशन एक साथ करने का क्रम चल रहा था लेकिन यही से पाकिस्तान के बनने की नींव अंग्रेजों ने बहुत ही षड़यंत्र के तहत डालकर, देश के बंटवारे तक की नौबत आ गई। लगा था कि बंटवारे के बाद शायद दोनों संप्रदाय के लोग शांति से रहेंगे। लेकिन 1925 के दशहरे के दिन स्थापन किया गया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले सौ वर्षों से लगातार हिंदू - मुस्लिमों के बीच ध्रुवीकरण करने में लगा हुआ है। यहाँ तक कि उसके गीत, बौद्धिक तथा खेलों में भी सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने का काम बारह महीनों चौबीस घंटे चलता रहता है और आजकल तो सत्ताधारी बनने के बाद वे गोलवलकर के कहने के अनुसार "भारत में रह रहे अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों को बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की सदाशयता के आधार पर रहने की आदत डालनी होगी और इस देश में रहना है, तो बहुसंख्यक लोगों की मर्जी पर रहना होगा" ऐसा कह रहे हैं।

बाबरी मस्जिद के जगह राम मंदिर का निर्माण इसका सबसे बड़ा प्रमाण है तथा गोहत्या बंदी और सत्तारूढ़ पार्टी बनने के बाद एक झटके में कश्मीर के विशेष दर्जे 370 को खत्म करना और अब वक्फ बिल को लाने के लिए चल रहा प्रचार-प्रसार इसी बात का परिचायक है ! आज कपड़ों से लेकर खानपान तक के फतवे और त्योहारों में सत्तारूढ़ पार्टी के शामिल होने से लेकर संसद के सदन में ब्राह्मणों को शासन की ओर से लाकर पूजा-पाठ करने के उदाहरण, भारत के सेक्युलर होने के ऊपर सवालिया निशान बनते जा रहे हैं।

आज की तारीख में भारत अघोषित हिंदू राष्ट्र बन गया है। इस परिप्रेक्ष्य में हमारे मित्र सैय्यद शाहनवाज अहमद कादरी साहब की 'लहू बोलता भी है' यह किताब कुछ गलतफहमियां दूर करने के लिए काम आएगी, ऐसी मैं उम्मीद करता हूँ।

डॉ. सुरेश खैरनार,

पूर्व अध्यक्ष राष्ट्र सेवा दल

Web Title: Dr. Suresh Khairnar's thoughts on Syed Shahnawaz Ahmad Qadri's 'Blood Speaks as Well'