असम को गुजरात बनाने की मुहिम
असम को गुजरात बनाने की मुहिम
नरसंहार की संस्कृति के लिए बदनाम असम को दूसरा गुजरात बनाने की मुहिम पहले से जारी है। अस्सी के दशक से जब विदेशी घुसपैठियों को खदेड़ने का आंदोलन चला रहा था संघ परिवार और उसके तमाम स्वयसेवक वहां जमीनी काम कर रहे थे।
मुसलमानों के खिलाफ असम में आदिवासियों और बोड़ो अल्फा उग्रवादियों को लगाते रहने की राजनीति से साठ के दशक से असम लगातार लहूलुहान होता रहा है।
ताजा हालात
मृतकों की संख्या सेंचुरी पार
वैसे मीडिया नरसंहार कवरेज में भी पिछड़ रहा है।
बहरहाल
साठ के दशक में ही पूर्वी बंगाल के शरणार्थियों के खिलाफ बांगाल खेदाओ दंगा भड़क गये तो कामरुप कछार ग्वालपाड़ा नौगांव करीमगंज जैसे दंगा पीड़ित इलाकों में तंबू डालकर पड़े हुए थे पिताजी पुलिनबाबू और उनके छोटे भाई डा.सुधीर कुमार विश्वास।
2003 के जनवरी महीने में ब्रह्मपुत्र बिच फेस्टीवल में त्रिपुरा के मुख्यमंत्री माणिक सरकार मुख्य अतिथि थे। वे जा नहीं पाये तो उनकी जगह दलित कवि और त्रिपुरा के सीनियर मोस्ट मंत्री अनिल सरकार मुख्यअतिथि बतौर गुवाहाटी गये। मैं भी उस उत्सव में असम सरकार का अतिथि था और तब भी तरुण गगोई ही मुख्यमंत्री थे। मैं कोलकाता से उड़कर गुवाहाटी पहुंचा और सीधे एअर पोर्ट से पर्वोत्तर के लेखकों, कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों के सम्मेलन में क्योंकि हमारी फ्लाइट सुबह के बदले शाम को गुवाहाटी पहुंची थी मौसम की गड़बजड़ी की वजह से।
उस सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे थे अनिल सरकार।
हमें गमछा पहिनाकर सम्मानित करने के बाद मंच पर खड़ा कर दिया तो हमने उस सम्मेलन को संबोधित करते हुए पूर्वोत्तर के लोगों को पूछा था कि क्यों आप एक दूसरे की पीठ पर खंजर भोंकने के अभ्यस्त हैं? क्यों नहीं वह खंजर उन के खिलाफ इस्तेमाल में लाते हैं जो आप सबकी मौत का सामान जुटाते हैं?
निरुत्तर थे सारे विद्वतजन।
आम लोगों से यह सवाल करने की तब हमारी हैसियत नहीं थी।
न अब है। हमारे बस में हो तो भारत के हर नागरिक से आज यह सवाल करना चाहता हूं।
बिच फेस्टिवल के शुभारंभ के बाद अतिविशिष्टों का काफिला ब्रह्मपुत्रपार हो गया लेकिन अनिल सरकार पूर्वोत्तर की झांकिया देखने में मगन रहे देर रात तक और मैं उनके साथ नत्थी हो गया।
गुवाहाटी में भोगाली बिहु के उत्सव में हम दावतों से सुबह शाम परेशान रहे और बिहु उत्सव में जहां-तहां शरीक होते रहे। गनीमत है कि असम में मसालों का चल नहीं है और टमाटर के साथ मछलियों का बिना फ्राई टेंगा हजम करते रहने में हमें खास तकलीफ भी नहीं हुई। बिना नाच सीखे बिहु दूसरों के साथ नाचने में हमें शर्मिंदगी का सामना करना नहीं पड़ा।
गुवाहाटी में ब्रह्मपुत्र तट पर चितोल मछलियों की बहार भी हमने पहली बार देखी। कोलकाता में बेहद महंगी, ईलिश से भी महंगी जिंदा चितोल मछलियों को दोनों हाथों में विजयपताका की तरह लहराते असम के भलमानुष लोगों के हुजूम को हमने देखा।
उन्हें पीढ़ियों के गुजर जाने का बाद भी याद हैं पुलिनबाबू और उनके डाक्टर भाई।
अनिल सरकार को मालेगांव अभयारण्य का उद्घाटन करना था।
हम गुवाहाटी से सुबह ही निकल पड़े। एक ही कार में मैं और अनिल सरकार।
असम सरकार के जनसंपर्क अधिकारी ब्रह्मपुत्र से ताजा मछलियां लेकर आता हूं वरना वहां जंगल में आप लोग खायेंगे क्या, कहकर निकल गये।
हम लोग पुलिस पायलट के साथ निकल पड़े।
अभयारण्य से महज तीन किमी दूर रास्ता कटा हुआ था। स्थानीय लोगों ने बताया कि घूमकर जाना होगा।
उनने रास्ता दिखा दिया और कहा दसेक किमी घूमकर अभ्यारण्य पहुंच जायेंगे वरना शिलांग रोड पकड़कर जाइये।
पुलिस अफसर ने कहा कि अल्फा उग्रवादियों की हरकत है।
हम तो मामूली पत्रकार ठैरे, लेकिन न तब हम समझे कि अभयारण्य में अल्फा की मौजूदगी की खबर असम पुलिस को क्यों नहीं हुई होगी और जब उन्हें मालूम हो गया तो वहां पड़ोसी राज्य के मंत्री को ले जाने का जोखिम उनने कैसे उठाया, न अब समझ रहे हैं कि उग्रवादियों की खबर से बेखबर क्यों रहता है असम पुलिस प्रसासन। हमारा सवाल यह है कि राज्य के मुख्यसचिव जब बोड़ो उग्रवादियों के नरसंहार की खबर जानकर भी काजीरंगा में एलीपेंट सफारी पर हों और पुलिस प्रशासन के अफसरान मौके पर जाने से इंकार करते हों तो महज कर्फ्यू लगाकर और केंद्र से अर्द्धसैनिक बल की कंपियां मंगाकर या सेना लगाकर दंगों की आग पर कैसे काबू पाया जा सकता है।
बहरहाल जम्हूरियत का मंजर यही है कि पहले दंगा भड़काओ और फिर सेना के हवाले कर दो पूरे के पूरे इलाके। ताकि गुलशन का कारोबार खूब चले। ताकि जो नागरिक मानवाधिकार का हवाला देकर कुछ ज्यादा ही भौंके, उसे देशद्रोह के मुकदमे में सींखचों के भीतर कर दिया जा सके।
हम अभयारण्य के मुहाने से मुड़कर फिर चले। तो चलते ही रहे। चलने से पहले मैंने पुलिस वालों से कहा भी था कि बेहतर हो कि जाने-पहचाने रास्ते पर घूमकर ही चला जाये। शिलांग रोड माफिक रहेगा।
असम पुलिस ने कहा कि वे अपने इलाके अपने हाथ की तरह जानते हैं और जमीन और आसमान में होने वाली सारी हरकतें उन्हें मालूम हो जाती हैं।
कैसे उनको सबकुछ मालूम हो जाता है, आगे चलकर देखना था।
बीसेक किमी चलने पर भी अभयारण्य का अता पता न था।
कुछ ही दिनों पहले अनिलजी के दिल का आपरेशन हुआ था और वे शुगर के मरीज भी हैं। इंसुलिन पर जीते हैं। सुबह हल्का नाश्ता लेकर चले थे। भूख भी लगने लगी थी और सड़क तो जैसे पाताल में धंस रही थी। जहां-तहां बड़े-बड़े खड्ड। अचानक अनिल जी खुशी के मारे चीख पड़े।
बोले, देखिये कि अगल-बगल सारे घर हमारे हैं। शरणार्थियों का इलाका है यह। हमने देखा और फौरन पहचान लिया।
अगले गांव में ही गाड़ी रुकवा दी कवि ने और गाड़ी से उतर कर उमड़ आयी भीड़ से जब पूछकर पता चला कि वे विभाजन के बाद कुमिल्ला से विस्थापित होने के बाद वहां लाकर बसा दिये गये, तो हर चेहरे की पहचान जानने को बेताब हो गये अनिल सरकार।
किस गांव से आये, वे लोग और कौन थे, उनके पिता दादा वगैरह-वगैरह सवाल वे बच्चे की तरह दागने लगे।
पीढ़ियां मर खप गयीं, तो क्या पता लगने वाला ठैरा। लेकिन जो बजुर्ग थे, वे कुछ-कुछ बताने याद करने वाले भी थे।
अनिल सरकार ने असम के अफसरों और पुलिस से कह दिया कि हम अभयारण्य नहीं जाते अब। गोगोई से कह देंगे कि किसी और से उद्घाटन करवा लें।
बोले वे कि अब हम हर गांव के लोगों से मिलेंगे।
अनिल बाबू के साथ हम पूरा त्रिपुरा घूम चुके हैं, लेकिन ऐसी दीवानगी हमने कभी नहीं देखी थी।
तब अनिल बाबू ने जब पूछा कि कौन-कौन यहां आते हैं। तो उनके जवाब से हम हैरत में पड़ गये। तीन पीढ़ियों के बाद भी वे बोल रहे थे और उन्हें याद था। बोले वे साठ में नैनीताल से जो पुलिनबाबू और उनके भाई दंगों के दौरान हमारे यहां थे, उसके बाद आप ही लोग आ रहे हों।
तब अनिल बाबू ने उनसे हमारा परिचय कराया और कहा कि ये पुलिनबाबू के बेटे हैं।
उस वक्त मेरे पिता के गुजरे हुए ढाई साल हो चुके थे।
मैंने जब बताया कि वे रीढ़ में कैंसर की वजह से थम गये, उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था कि वे कैसे थम सकते हैं।
फिर तो गांव गांव हमें सभाएं भी करनी पड़ी और रात को हम लोग गुवाहाटी वापस आये।
हमने उनसे दोबारा जाने का वायदा किया था। हम जा नहीं सके।
असम सरकार के सौजन्य से हम अपनों बीच फोकट में घूम आये तब, फिर जाना न हुआ।
पुलिन बाबू की चेतावनी
तबसे पुलिनबाबू बंगाली शरणार्थियों को हिंदुत्व का एजेंडा समझाते रहे हैं और आगाह करते रहे हैं कि आर्य हिंदुत्ववादी गैरनस्ली अनार्य हिंदुओं को देश भर से खदेड़ने की तैयारी में हैं, जो नागरिकता संशोधन कानून की शक्ल में देश व्यापी शरणार्थी भगाओ अ
भियान से साफ हुआ है अब। लेकिन हिंदुत्व की खुराक से शरणार्थियों का पेट अभी भरा नहीं हैं ।
बंगाल और असम में ये हिंदू शरणार्थी ही संघ परिवार के आधार हैं। मतुआ भी अब संघ परिवार।
भारत विभाजन का सारा दोष मुस्लिम लीग और मुसलमानों के मत्थे डालकर इन्ही हिंदुओं को संघ परिवार के हक में गोलबंद करने की मुहिम में चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी और संघ परिवार के तमाम नेता लगे हुए हैं।
गौरतलब है कि असम में बोडो आबादी अच्छी खासी है, उन्हें अब आदिवासियों के खिलाफ झोंककर छत्तीसगढ़ की तरह सलवा जुड़ूम भी तैयार कर चुका है संघ परिवार।
पूर्वी भारत और पूर्वोत्तर भारत जीतने की जुगत में हैं, तो नतीजा सामने हैं। झारखंड और जम्मू जीतने के बाद संघियों के मंसूबे और मजबूत हो गये हैं।
जाहिर है कि नतीजे आगे इससे भी भयानक होंगे क्योंकि देश भर में घरवापसी के बहाने संघ परिवार दरअसल विधर्मियों और खासतौर पर आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छेड़ चुका है, जो सरासर रंगभेदी गृहयुद्ध है।
O- पलाश विश्वास


