कोलकाता में इन दिनों सनसनाती सर्दी है। सविता की नाक से गंगा जमुना निकल रही है। तापमान सामान्य से तीन चार डिग्री सेल्सियस नीचे है और आसमान साफ है। तीर जैसी धारदार हवाएं हैं। पसीने की नौबत नहीं है।
ईअर एंडिंग जश्न चालू आहे।
लोग पार्टी और खरीददारी के मोड में हैं।
मांस मछलियों के दाम आसमान चूम लें, बंगालियों की रसोई उनके बिना होती नहीं है। बाहरहाल साग सब्जियों के दाम घट गये हैं। मंहगाई शून्य का दावा है।
दावा है अच्छे दिनों के हिंदुत्व शत प्रतिशत का।
हिंदुत्व के अच्छे दिनों का नजारा यह कि कर्मचारियों और मेहनतकश तबके को समझाया जा रहा है कि पीएफ फालतू है।
सरकार अब यह इंतजाम कर रही है कि भले ही आपको आयकर और दूसरे तमाम कर देने पड़े, भले ही आपका वेतन इत्यादि सीधे बाजार में चला जाये लेकिन खरीददारी और हिंदुत्व के जश्न में कोई कोर कसर नहीं रहना है।
श्रम सुधारों के जरिये मेहनतकश तबकेके सारे हक हकूक छीनकर पीएफ आनलाइन है फिलहाल, जब चाहे निकालकर बाजार में झोंककर सांढ़ों के उछलने कूदने दीजिये।
अब चूंकि सरकार चाहती है कि बिना कटौती के गरीब कर्मचारियों और मेहनतकशों को पूरा वेतन मिले तो इसके लिए दस फीसद पीएफ जमा करने की अनिवार्यता खत्म की जा रही है।
गौरतलब है कि यह न केवल सबसे बड़ी अल्प बचत योजना है, बल्कि मालिकान के लिए भी कर्मचारियों के नाम उनके जमा दस फीसद के बराबर रकम उनके खाते में जमा करने की मजबूरी है।
आखिर किनका भार घटा रही है सरकार, यह समझने में हमारे लोग नाकाम हैं। तो उनको हिंदुत्व के जलवे से बचाया कैसे जाये।
यही लोग सुशासन के कायल हैं। यही लोग मुसलमानों और ईसाइयों के सफाये के हिंदुत्व के झंडेवरदार हैं, जो संजोग से सिख, बौद्ध, जैनी, आदिवासी, शूद्र, अछूत दलित, वगैरह-वगैरह हैं तो ब्राम्हण और क्षत्रिय राजपूत और सवर्ण दूसरे तमाम लोग जो हैं, वे भी तो आखिर मेहनतकश तबके में शामिल होंगे जो मिलियनर बिलियनर क्लबों में कहीं घुसने की हिमाकत भी नहीं कर सकते।
तमाम गैर नस्ली लोग हैं हिंदुत्व के निशाने पर जो हिंदू हैं और शायद सवर्ण भी जैसे पूरब, पूर्वोत्तर और हिमालयी देवभूमियों के लोग बाग।
वे तमाम लोग पूर्वी बंगाल के विभाजन पीड़ितों, पीढ़ियों की तरह वैदिकी हिंसा के इस मनुस्मृति महोत्सव में वध्य हैं और कल्कि अवतार उनके आराध्य हैं।
हिंदू बंगाल का जलवा है और हमारे मित्र शरदिंदु ने लिख मारा है कि असली टार्गेट तो बंगाल है।
असम झांकी है।
बंगाल अभी बाकी है।
इसे कहते हैं, मुंह में राम राम, बगल में छुरी।
यह छुरी है या आस्तीन में सांप है, मुहावरे आप तय कर लें।
सोदपुर में इन दिनों जाम नरक है। वजह है पानीहाटी मेला और उसमें बंगाल के तमाम राजनेताओ, कलाकारों और स्टारों का जमघट। सारे नामी दिरामी लोग रोज रोज मंच पर लाइव हैं तो जाहिर है कि भीड़ का पगलाना लाजिमी है।
वे तमाम आदरणीय लोग भी मंच पर शोभित हैं, जिनकी छवियां शारदा फर्जीवाड़े के खुलासे से गुड़गोबर हैं।
इस घोटाले के अन्यतम गवाह तृणमूली सांसद कुमाल घोष को पागल करार दिये जाने की तैयारी है।
कल ही राज्य सरकार के तीन तीन मनोचिकित्सक जाकर कुणाल की जांच कर चुके हैं।
गोया के चुनांचे कि साबित यह किया जाना है कि कुणाल जो बक रहा है, वह पागल पन के सिवाय कुछ नहीं है।
जाहिर है कि पैसा सारा का सारा आसमान खा गया या जमीन निगल गयी है। न किसी ने दिया और न किसी ने लिया।
सुदिप्तो सेन और उनकी खासम खास देवयानी औरदूसरे तमाम गवाहों का क्या अंजाम होगा, अंदाजा लगा लीजिये।
जी, यह वहीं सत्ता की राजनीति है जिससे घोटालों का हल्ला तो खूब होता है और अपराधी छुट्टा सांढ़ की तरह डोलते रहते हैं अगले घोटालों की तैयारियों में लगे हुए।
हर साल दिसंबर के क्रिसमस समय में शुरु होने वाले इस दौर में मैं बाहर होता हूं , देश में कहीं भी। इसबार सोदपुर से निकलुंगा तो दो जनवरी को।
इस बार विदर्भ में जाना है। सफदर हाशमी की याद में वहां छात्रों के आयोजन में शामिल होने और विदर्भ के मित्रों से बतियाने।
सविता भी मेरी वजह से मेले ठेले में जा नहीं पातीं।
जाती हैं तो अपने सांस्कृतिक गिरोह के साथ निकलती हैं।
संजोग से इस मंगलवार को मेरा रेस्टडे खाली निकला और वे मचल पड़ीं कि मेले जरूर जाना है। दरअसल बंगाल में सांस्कृतिक साहित्यिक मेलों के सरकारी पार्टीबद्ध आयोजनों में मै जाता ही नहीं हूं।
खासकर हिंदी समाज के कारोबारी जगत में निष्णात बनकर दोयम दर्जे के मुसाफिर बन जाने और पिछलग्गू जी हुजूरी में लग जाना मेरे लिए मोहभंग है।
कोलकता पुस्तक मेले में नंदीग्राम गोलीकांड के बाद कभी नहीं गया। उससे पहले नागरिकता विधेयक पास हुआ तो कोलकाता आना जाना ही सीमाबद्ध हो गया।
दफ्तर भी शहर से बाहर है, तीन साल हो गये तो महानगर आना-जाना वैसे ही कम है।
तो मंगलवार पानीहाटी मेले गये तो पाया कि मेलले के नाम पर एक बड़ा सा पंडाल है, जहां तमाम सेलिब्रिटी और राजनेता एकाकार हैं और उनके सामने हजारों की भीड़ है।
बाकी ज्यादातर हिस्सा बड़ी-बड़ी कंपनियों का शो रूम है या सरकारी विभागों की प्रदर्शनी। बड़े से हिस्से में खाने पीने का फास्टफूड आयोजन।
छोटे से हिस्से में हर सामान एक कीमत वाली दुकानें और बच्चों के झूले, वगैरह।
मेले में सर्कस न हो तो मेला कैसा?
मेले में नौटंकी न हो तो मेला कैसा?
खेल तमाशे और देहात की बेइंतहा लोगों की आवाजाही न हो तो मेला कैसा?
शापिंग माल जैसा मेला देखकर मन उदास हो गया और हम लोग जल्दी जल्दी लौट आये। बैरंग।
रास्ते में पूर्वी बंगाल की जड़ों से जुड़े एक परिवार के यहां पूर्वी बंगाल को महसूसने का मौका जरुर मिला, जो मेला क्षेत्र के पास ही रहते हैं।
वह किस्सा बाद में ।
हम तो ईदगाह के हमीद के साथ पले बढ़े बच्चे हैं अब भी, बस, जड़ों से कटे हुए हैं।
रामबाग के मेले में जो हम होश संभालते ही जाने लगे थे, जहां बुक्सा आदिवासियों की भीड़ लगी रहती है, जहां हमारी सहपाठिनें भी भीड़ लगाती थीं, तो उनको आड़ी तिरछी नजरों से घूरना हमारा सबसे बड़ा रोमांस था, वहां हम करीब चार दशकों से गये नहीं हैं।
रुद्रपुर के अटरिया मेले में पूरी तराई की हिस्सेदारी होती थी।
मेले से सर्कस का सर्च लाइट दसियों मील दूर के गांवों में हमें तलाश निकालता था और नौटंकी के नगाड़े की थापों से हम पगला जाया करते थे।
खेल तमाशे का जादुई जहां अलग।
वह अटारिया मेला क्षेत्र अब सिडकुल है जो तराई के समूचे देहात को निगल रहा है।
वहां कारपोरेट घरानों के लिए टैक्स होली डे हैं और न स्थानीय लोगों, तमाम उत्तराखंडियों और तराईवालों को रोजगार है और न वहां श्रम कानून नाम की कोई चिडिया पर मार सके हैं।
तराई के आदमखोर बाघ दिखते नहीं हैं चूंकि जंगल और गन्ने के खेत दोनों गायब हैं, फिर भी सीमेंट के जंगल में घात लगाये बैठे हैं रंग बिरंगे आदमखोर तमाम, जिनकी शक्लोसूरत इंसानी हैं।
वहां अब भी अटरिया चंडी की आराधना होती है, मेला कैसे लगता होगा, नहीं मालूम।
नहीं मालूम कि काशीपुर के चैती मेले के क्या हाल हवाल हैं।
इसी अटारिया के मेले से जुड़ी है तराई के सात सात बार बसने और उजड़ने की कथा तो उससे जुड़ी हैं हमारे बचपन और हमारे पिता के साथ हमारे दोस्तों की तमाम बेशकीमती स्मृतियां।
मेरठ के नौचंदी मेले की दास्तां तो और दर्दभरी है, जो देश के बदलते फिजां का अफसाना है।
आधा हकीकत और आधा फसाना है, जहां हमने इस देश के मुकम्मल साझा चूल्हे के वजूद को पहली बार जाना और उसे धर्मोन्मादी जुनून में दम तोड़ते हुए देखा भी है नवउदारवादी बाबरी विध्वंसलीला के अखंड आख्यान के तहत।
मलियाना और हाशिमपुरा नरसंहार में न जाने कहां बिला गयी नौचंदी और साझे चूल्हे का हाल मुजफ्फरनगर है।
मुजफ्फरनगर, मेरे सुसुराल धर्मनगरी के बदल में बहने वाली गंगा के बैराज पार करने के बाद मेरठ जनपद को छूता हुआ अमन चैन का बसेरा मुजफ्फरनगर, जो कभी देश का सबसे समृद्ध जनपद है और जहां से हैं गिरराज किशोर और शमशेर बहादुर सिंह जैसे लोग भी।
अब वहां दंगाइयों का बसेरा है।
एक स्थाई मेला लेकिन वर्चुअल है जो कहानी तीसरी कसम है तो राजकपूर की फिल्म तीसरी कसम भी है। वह भी आधा हकीकत आधा फसाना है।
O- पलाश विश्वास