The real fight is to change the mentality of men

लखनऊ में रहने वाली साथी ताहिरा हसन ने सूचित किया है कि

'अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के ठीक पहले लखनऊ के घनी आबादी वाले खदरा मोहल्ले में एक महिला को दौड़ा-दौड़ा कर चाकूओं से गोद कर मार डाला गया, महिला चीखती-चिल्लाती रही लेकिन लोगों ने मदद करने की बजाय अपने घर के खिड़की दरवाजे बन्द कर लिये... शाम को पता चला है कि कुछ मोमबत्तियाँ और प्लेकार्ड बनाने के लिये दफ्तियाँ खरीदी गयी हैं जल्दी ही पुलिस प्रशासन के विरुद्ध प्रदर्शन की सम्भावना है।'

दिल्ली में काम करने वाली एक बेहतरीन पत्रकार से आईएनएस बिल्डिंग के सामने मुलाकात हो गयी। उनको दिल्ली की राजनीति के गलियारों में, खासकर सत्ता की राजनीति की बारीक समझ है। कांग्रेस बीट की इस कुशाग्रबुद्धि रिपोर्टर से बात करके मेरे पाँव के नीचे की जमीन खिसक गयी। जहाँ खड़े होकर हम बात कर रहे थे वहाँ से भारत की संसद की दूरी करीब 200 मीटर होगी, और जिस महिला से हम बात कर रहे थे वह इलाहाबाद के पथ पर पत्थर नहीं तोड़ती, वह देश की राजनीति की चोटी पर बैठे राजनेताओं की कारस्तानी को रिपोर्ट करती है और यह उसका कैरियर है।

मैंने कहा कि तुमको भी टीवी की बहसों में जाना चाहिए क्योंकि मैं जानता हूँ उस लड़की की राजनीतिक समझ बहुत अच्छी है। लेकिन उसने मुझे बताया कि इस दिशा में वह सोच भी नहीं सकती। बिलकुल सम्भव नहीं है। वह टेलिविजन की बहसों में इसलिये नहीं जाना चाहती कि उसके दफ्तर में काम करने वाले अन्य पत्रकारों को यह काम पसन्द नहीं आयेगा क्योंकि वे नहीं चाहते कि कोई महिला उनसे बेहतर नाम पैदा करे। उसने यह भी बताया कि अपने कॅरियर में वह कई बार ऐसे शुभचिन्तकों से दो चार हुयी है जब उसको बताया गया है कि राजनीतिक रिपोर्टिंग के चक्कर में वह न पड़े और सौंदर्य या रसोई टाइप कोई बीट ले ले। इस रिपोर्टर ने साफ मना कर दिया और अपने शुभचिन्तकों को बार-बार याद दिलाया कि वह अपने अन्य साथियों से बिलकुल ही कम नहीं है।

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर इस मानसिकता से लड़ना पड़ेगा।

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्टों और अन्य संस्थाओं से मिली जानकारी के आधार पर बहुत ही भरोसे से कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया में महिलाओं की हालत बहुत खराब है। गर्भ में ही कन्या भ्रूण की हत्या (Female fetal killing in the womb) हो रही है।

हस्तक्षेप समाचार पोर्टल ने लिखा है कि अहमदाबाद वीमेंस एक्शन ग्रुप और इंडियन इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि अहमदाबाद की 58 फीसदी औरतें गंभीर रूप से मानसिक तनाव की शिकार हैं। उनका अध्ययन बताता है कि 65 फीसद औरतें सरेआम पड़ोसियों के सामने बेइज्जत की जाती है। 35 फीसदी औरतों की बेटियां अपने पिता की हिंसा की शिकार हैं। यही नहीं 70 फीसदी औरतें गाली गलौच और धमकी झेलती हैं। 68 फीसदी औरतों ने थप्पड़ों से पिटाई की जाती है। ठोकर और धक्कामुक्की की शिकार 62 फीसदी औरतें हैं तो 53फीसदी लात-घूंसों से पीटी जाती हैं। यही नहीं 49 फीसदी को किसी ठोस या सख्त चीज से प्रहार किया गया जाता है। वहीं 37 फीसदी के जिस्मों पे दांत काटे के निशान पाए गए। 29 फीसद गला दबाकर पीटी गयी हैं तो 22 फीसदी औरतों को सिगरेट से जलाया गया है।"

लेकिन असली समस्या यह है कि आज भी हमारा पुरुष प्रधान समाज महिलाओं को समाप्ति मानता है, बड़े से बड़े पद पर बैठी हुयी महिला को उसका चपरासी कमजोर मानता है, केवल नौकरी बचाने के लिये उसका हुक्म मानता है, सम्मान नहीं करता।

दिल्ली के पास बसे हुए उत्तर प्रदेश के मेरे उपनगर में बहुत सारे शिक्षा संस्थान हैं, दूर दराज़ के इलाकों में रहने वाले दोस्तों के बच्चे यहाँ पढ़ने आये हैं। वे बच्चे जब हमारे घर कभी आते हैं तो लड़कों की उतनी चिंता नहीं रहती लेकिन अगर लड़कियां शाम का खाना खाकर अपने होस्टल जानी की सोचती हैं तो उन्हें उनके ठिकाने तक पहुँचा कर आना सही माना जाता है क्योंकि कई बार दिन ढले सड़क पर जा रही लड़कियों के साथ बदतमीजी की गयी है।

1990 में जब मेरी स्वर्गीया माँ को पता चला कि मेरी बेटी दिल्ली के उस दौर के एक ऐसे स्कूल में पढ़ती है जहां की फीस बहुत ज्यादा है तो उन्हें अजीब लगा था और उन्होंने कहा कि लड़के के लिये तो इतनी फीस देना समझ में आता है, लडकी के लिए क्यों पैसा बर्बाद कर रहे हो।

इन सारी घटनाओं में ज़रिये कोशिश की गयी है कि यह बताया जाए कि हम किस तरह के समाज में रहते हैं और हमको कितना चौकन्ना रहना चाहिए।

जब तक औरतों के बारे में पुरुष समाज की बुनियादी सोच नहीं बदलेगी तब तक कुछ नहीं होने वाला है। असली लड़ाई पुरूषों की मानसिकता बदलने की है और जब तक वह नहीं बदलता कुछ भी नहीं बदलने वाला है।

जब यह मानसिकता बदलेगी उसके बाद ही देश की आधी आबादी के खिलाफ निजी तौर पर की जाने वाली जहरीली बयानबाजी से बचा जा सकता है।

दुनिया जानती है कि संसद और विधानमण्डलों में महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण के लिये कानून बनाने के लिये देश की अधिकतर राजनीतिक पार्टियों में आम राय है लेकिन कानून संसद में पास नहीं हो रहा है। इसके पीछे भी वही तर्क है कि पुरुष प्रधान समाज से आने वाले नेता महिलाओं के बराबरी के हक को स्वीकार नहीं करते। इसीलिये सामाजिक- आर्थिक-राजनीतिक और नैतिक विकास को बहुत तेज गति दे सकने वाला यह कानून अभी पास नहीं हो रहा है। हालांकि अब वह दिन दूर नहीं जब यह कानून पास होकर रहेगा क्योंकि संसद और विधान मण्डलों में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिये औरतों ने मैदान ले लिया है। उनको मालूम है कि महिला आरक्षण का विरोध कर रही जमातें किसी से कमजोर नहीं हैं और वे पिछले 15 वर्षों से सरकारों को अपनी बातें मानने पर मजबूर करती रही हैं।

अपने को पिछड़ी जातियों के राजनीतिक हित की निगहबान बताने वाली राजनीतिक पार्टियाँ महिलाओं के आरक्षण में अलग से पिछड़ी जातियों के लिये आरक्षण की बात कर रही हैं। बात तो ठीक है लेकिन महिलाओं को शक है कि यह टालने का तरीका है।

भारत में महिलाओं की आजादी की लड़ाई का आन्दोलन का इतिहास | History of the movement for women's freedom in India

महिला अधिकारों की लड़ाई कोई नयी नहीं है भारत की आजादी की लड़ाई के साथ-साथ महिलाओं की आजादी की लड़ाई का आन्दोलन भी चलता रहा है। 1857 में ही मुल्क की खुद मुख्तारी की लड़ाई शुरू हो गयी थी, लेकिन अंग्रेज भारत का साम्राय छोड़ने को तैयार नहीं था। उसने इंतजाम बदल दिया। ईस्ट इण्डिया कम्पनी से छीनकर ब्रितानी सम्राट ने हुकूमत अपने हाथ में ले ली लेकिन शोषण का सिलसिला जारी रहा। दूसरी बार अंग्रेज को बड़ी चुनौती महात्मा गांधी ने दी। 1920 में उन्होंने जब आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करना शुरू किया तो बहुत शुरुआती दौर में साफ कर दिया था कि उनके अभियान का मकसद केवल राजनीतिक आजादी नहीं है, वे सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनके साथ पूरा मुल्क खड़ा हो गया। सामाजिक बराबरी के उनके आह्वान ने भरोसा जगा दिया था कि अब असली आजादी मिल जायेगी। लेकिन अंग्रेज ने उनकी मुहिम में हर तरह के अड़ंगे डाले। 1920 की हिन्दू मुस्लिम एकता को खण्डित करने की कोशिश की। अंग्रेजों ने पैसे देकर अपने वफादार हिन्दुओं और मुसलमानों के साम्प्रदायिक संगठन बनवाए और देशवासियों की एकता को तबाह करने की पूरी कोशिश की। लेकिन आजादी हासिल कर ली गयी।

आजादी की लड़ाई का स्थायी भाव सामाजिक इंसाफ और बराबरी पर आधारित समाज की स्थापना भी थी। लेकिन 1950 के दशक में जब गांधी नहीं रहे तो कांग्रेस के अन्दर सक्रिय हिन्दू और मुस्लिम पोंगापंथियों ने बराबरी के सपने को चकनाचूर कर दिया। इनकी पुरातनपंथी सोच का सबसे बड़ा शिकार महिलाएं हुयीं। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब महात्मा गांधी की इच्छा का आदर करने के उद्देश्य से जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दू विवाह अधिनियम पास करवाने की कोशिश की तो उसमें कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता टूट पड़े और नेहरू का हर तरफ से विरोध किया। यहाँ तक कि उस वक्त के राष्ट्रपति ने भी अड़ंगा लगाने की कोशिश की।

हिन्दू विवाह अधिनियम कोई क्रांतिकारी दस्तावेज नहीं था। इसके जरिए हिन्दू औरतों को कुछ अधिकार देने की कोशिश की गयी थी। लेकिन पुरूषवादी सोच के चलते कांग्रेसी नेताओं ने उसका विरोध किया।

बहरहाल नेहरू बहुत बड़े नेता थे, उनका विरोध कर पाना पुरातन पंथियों के लिये सम्भव नहीं था और बिल पास हो गया।

महिलाओं को उनके अधिकार देने का विरोध करने वाली पुरूष मानसिकता के चलते आजादी के बाद सत्ता में औरतों को उचित हिस्सेदारी नहीं मिल सकी। संसद ने पंचायतों में तो सीटें रिजर्व कर दीं लेकिन बहुत दिन तक पुरुषों ने वहाँ भी उनको अपने अधिकारों से वंचित रखा। धीरे-धीरे सब सुधर रहा है। लेकिन जब संसद और विधान मण्डलों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात आई तो अड़ंगेबाजी का सिलसिला एक बार फिर शुरू हो गया। किसी न किसी बहाने से पिछले पंद्रह वर्षों से महिला आरक्षण बिल राजनीतिक अड़ंगे का शिकार हुआ पड़ा है। देश का दुर्भाग्य है कि महिला आरक्षण बिल का सबसे ज्यादा विरोध वे नेता कर रहे हैं जो डॉ. राममनोहर लोहिया की राजनीतिक सोच को बुनियाद बना कर राजनीति आचरण करने का दावा करते हैं।

डॉ. लोहिया ने महिलाओं के राजनीतिक भागीदारी का सबसे ज्यादा समर्थन किया था और पूरा जीवन उसके लिये कोशिश करते रहे।

देश का दूसरा दुर्भाग्य यह है कि पिछले 20 वर्षों से देश में ऐसी सरकारें हैं जो गठबंधन की राजनीति की शिकार हैं। लिहाजा कांग्रेस, भाजपा या लेफ्ट फ्रंट की राजनीतिक मंशा होने के बावजूद भी कुछ नहीं हो पा रहा है।

पुरूषवादी सोच चौतरफा हावी है। इस बार भी राज्यसभा में बिल को पास करा लिया गया था लेकिन उसका कोई मतलब नहीं होता। असली काम तो लोकसभा में होना था लेकिन अब लोकसभा का कार्यकाल खत्म हो गया है और मामला हर बार की तरह एक बार फिर लटक गया है। अब तो कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियाँ भी इस बिल से बच कर निकल जाना चाहती हैं।

महिलाओं के सम्मान को सुनिश्चित करने के लिये इस बिल का पास होना बहुत ज़रूरी है लेकिन सच्चाई यह है कि इस बिल को पास उन लोगों को ही करना है जिनमें से अधिकतर पुरूषवादी सोच की बीमारी के मरीज हैं।

कुल मिलाकर भरोसे के साथ कहा जा सकता है कि एक महिला दिवस और मना लिया गया लेकिन महिलाओं के अधिकार और सम्मान को सुनिश्चित करने के लिये कुछ भी नहीं किया जा रहा है। इस लक्ष्य को हासिल करने का सबसे कारगर तरीका संसद और विधान मण्डलों में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत सीटों का आरक्षण है। सभी राजनीतिक जमातों को चाहिए कि उस दिशा में आगे बढ़ने के लिये राजनीतिक माहौल बनाएं।

शेष नारायण सिंह