अस्मिता विमर्श को इतना आत्मघाती न बनाइए कि आंबेडकर की Annihilation of caste एक प्रहसन में तब्दील हो जाए
अस्मिता विमर्श को इतना आत्मघाती न बनाइए कि आंबेडकर की Annihilation of caste एक प्रहसन में तब्दील हो जाए
सुदर्शन की एक बहुचर्चित कहानी है 'हार की जीत', जिसमें खड्गसिंह नामक डाकू बाबा भारती से विश्वासघात करके उनका घोड़ा जबरदस्ती हथिया लेता है। घोड़ा छीने जाने के बाद बाबा भारती उस डाकू से कहते हैं कि 'ठीक है घोड़ा ले जाओ ,लेकिन इस घटना का जिक्र किसी से न करना क्योंकि लोगों का गरीब और दुखियारे पर नेकी और भलाई करने से विश्वास उठ जाएगा।'
तो मुझे लगता है कि ठीक है बेगूसराय से चुनाव लड़ रहे कन्हैया और उसके साथ ही रवीश कुमार को खांटी भूमिहार विमर्श में फिक्स कर उनकी भले ही चाहे जितनी लानत मलामत की जाय लेकिन यह विमर्श वहां तक न पहुंचे जहां राहुल सांकृत्यायन को ब्राह्मण, प्रेमचंद को कायस्थ, यशपाल को खत्री और बाबा नागार्जुन को मैथिल ब्राह्मण कोटि में फिक्स कर दिया जाय। ऐसा होने पर न 'तुम्हारी क्षय' को समझा जा सकेगा, न 'गोदान ' को वर्णाश्रम व्यवस्था के क्रिटिक के रूप में, न 'बलचनमा' को एक गोप की त्रासद कथा के रूप में पढ़ा जा सकेगा और न ही 'मनु की लगाम' कहानी के मर्म को समझा जा सकेगा।
वैसे इस पर वश भी किसका है! यूं ही तो नहीं है कि प्रेमचंद को लेकर 'सामंत का मुंशी' और 'प्रेमचंद की नीली आंखें' सरीखी किताबें लिखकर उन्हें कायस्थ विमर्श में ढालकर जब तब यह सवाल किया जाता रहा है कि 'क्या कभी उन्होंने कायस्थों की भी आलोचना की है ?'
तो अस्मिता विमर्श को इतना आत्मघाती न बनाइए मित्रों कि आंबेडकर की Annihilation of caste एक प्रहसन में तब्दील होने को अभिशप्त हो जाए।
वीरेंद्र यादव
(लेखक प्रख्यात आलोचक हैं। उनकी एफबी टाइमलाइन से साभार)


