आंतरिक जनतंत्र, कम्युनिस्ट पार्टी में ही होता है
आंतरिक जनतंत्र, कम्युनिस्ट पार्टी में ही होता है
आंतरिक जनतंत्र, कम्युनिस्ट पार्टी में ही होता है
मीडिया की तमाम अटकलों को झुठलाते हुए, देश की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी, माकपा में पिछले सप्ताह असाधारण सुगमता से नेतृत्व परिवर्तन हो गया। 14 से 19 अप्रैल तक, छ: दिन आंध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम में चली माकपा की 21वीं कांग्रेस के आखिरी दिन, पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार, पार्टी के नये नेतृत्व का चुनाव किया गया। पिछले महासचिव, प्रकाश कारात के तीन कार्यकाल पूरे हो जाने के चलते, इस पार्टी कांग्रेस में नये महासचिव का चुना जाना पहले से तय था। 62 वर्षीय तेलुगूभाषी सीताराम येचुरी को, सर्वसम्मति से पार्टी का नया महासचिव चुन लिया गया। कम्युनिस्ट पार्टी में महासचिव का पद ही सर्वोच्च होता है। जैसाकि खुद येचुरी ने बाद में मीडिया से बात करते हुए बताया, इस पद के लिए के एक ही उम्मीदवार था। निवर्तमान महासचिव, प्रकाश कारात ने उनके नाम का प्रस्ताव किया और पार्टी के शीर्ष निकाय, पोलिट ब्यूरो के वरिष्ठतम सदस्य, एस रामचंद्रन पिल्लै ने उनके नाम का अनुमोदन किया। और 91 सदस्यीय नवनिर्वाचित केंद्रीय कमेटी ने एक राय से उन्हें महासचिव चुन लिया।
ईमानदारी से अगर हम अपने देश की राजनीतिक पार्टियों के आचरण पर नजर डालें तो आंतरिक जनतंत्र की ऐसी दूसरी मिसाल कम्युनिस्ट पार्टियों के सिवा और कहीं भी मिलनी मुश्किल है। याद रहे कि एक और कम्युनिस्ट पार्टी, भाकपा की भी तीन साल पहले हुई पिछली कांग्रेस में इसी तरह, एस सुधाकर रेड्डी को नया महासचिव चुना गया था। दूसरी पार्टियों की बात तो हम छोड़ ही दें, जो डाइनेस्टी यानी परिवार-राज के किसी न किसी रूप से ही संचालित नजर आती हैं। बेशक, भाजपा का परिवार-राज जरा भिन्न किस्म का है। पर है वह भी परिवार राज ही, हां यहां असली राज परिवार, संघ-परिवार है। बहरहाल, एक नयी राजनीतिक संस्कृति के लाने के वादों और दावों के साथ सामने आयी, आप पार्टी में पिछले करीब दो महीनों से जो हो रहा है, कम्युनिस्ट पार्टी की इस जनतांत्रिकता को और भी रेखांकित कर देता है। वास्तव में यह विडंबनापूर्ण है कि जिस रोज, माकपा में सर्वसम्मति से चुना गया नया नेतृत्व जिम्मेदारी संभाल रहा था, ठीक उसी रोज आप पार्टी की अंदरूनी कलह को टूट के मुकाम पर पहुंचाते हुए, पार्टी के चार शीर्ष नेताओं योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, आनंद कुमार और प्रवीण झा को पार्टी से ही निकाला जा रहा था। इसके फौरन बाद, गांधी को इस पार्टी के चार सदस्यीय संसदीय दल के नेता के पद से हटा दिया गया। ये सभी निर्णय, जिस अनुशासन समिति के नाम पर लिए गए हैं, उसका गठन खुद विवादों के घेरे में रहा है।
बेशक, आप पार्टी कोई पहली पार्टी नहीं है, जिसमें मतभेद पैदा हुए हैं या नौबत टूट तक पहुंची है। बहरहाल, इन मतभेदों को जिस तरह लिया गया है और जिस तरह से निपटाया गया है, उसने न सिर्फ आप के भिन्न राजनीतिक संस्कृति के सारे दावों को झुठलाते हुए, उसके आम राजनीतिक पार्टियों जैसी ही होने को साबित किया है बल्कि विशेष रूप से उसके एक नेता-केंद्रित पार्टी होने को भी साबित किया है। इस कलह के दौरान दोनों ओर से लगाए गए आरोपों-प्रत्यारोपों की धुंध के पार जाकर अगर देखा जाए तो, केजरीवाल और विरोधी गुट के बीच मुख्य झगड़ा, आंतरिक जनतंत्र के रहने न रहने का ही लगता है। यादव-भूषण जोड़ी और केजरीवाल एंड कंपनी के बीच वास्तविक रस्साकशी की शुरूआत, पिछले आम चुनाव के बाद तब हुई लगती है, जब लोकसभा चुनाव में दिल्ली की सभी सीटों पर हार के बाद, केजरीवाल गु्रप को येन-केन प्रकारेण, पिछली विधानसभा से ही दिल्ली में दोबारा सरकार बनाना, पार्टी को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए जरूरी लगा था। दूसरी ओर, यादव-भूषण जोड़ी, संभवत: अपने कांग्रेसविरोधी रुख के चलते, इसके खिलाफ थी। बहरहाल, मुद्दा ऐसे महत्वपूर्ण प्रश्न पर मतभेद होने का नहीं है। मुद्दा ऐसे मतभेदों को निपटाने के तरीके का, निर्णय प्रक्रियाओं का है। झगड़ा तब बढ़ा जब अपनी पार्टी के सर्वोच्च नीति-निर्धारक निकाय, राजनीतिक मामलों की समिति में बहुमत स्पष्ट रूप से इसके खिलाफ होने के बावजूद, केजरीवाल गु्प ने उक्त प्रयास जारी रखे। दूसरे शब्दों में यह पार्टी की नीति तय करने में किसी निकाय के बजाए, नेता की ही सर्वोच्चता स्थापित किए जाने का मामला था।
आगे चलकर, दिल्ली की चुनावी जीत के बाद के बाद, केजरीवाल के सर्वेसर्वा होने के लिए और असह्य चुनौती उठ खड़ी हुई, जब दिल्ली में मुख्यमंत्री की उनकी जिम्मेदारियों को देखते हुए, आप पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक की जिम्मेदारी किसी और नेता को सौंपने की मांग उठने लगी। पुन: केजरीवाल ने पार्टी का शीर्ष नेतृत्व किसी और के साथ साझा करने के बजाए, एक प्रकार से आप पार्टी को दिल्ली पर ही केंद्रित करने का एलान कर दिया। इसके बाद, कथित रूप से केजरीवाल-विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए, केजरीवाल के राष्ट्रीय संयोजक के पद से इस्तीफे की पेशकश करने से लेकर जो नाटक हुए, सारे देश ने देखे हैं। असली बात यह है कि जिस पार्टी में नीति तय करने तथा लागू करने का अधिकार किसी एक नेता के हाथ में हो, न कि किसी अनुल्लंघनीय प्रक्रिया या निकाय के हाथ में हो, उसमें नेता की निरंकुशता का बोलबाला होना तय है। देश की दूसरी ज्यादातर पार्टियों की तरह आप पार्टी भी, ऐसे ही निरंकुश नेतृत्व के रास्ते पर चल पड़ी है और आश्चर्यजनक तेजी के साथ चल पड़ी है।
ठीक इसी पहलू से कम्युनिस्ट पार्टी की व्यवस्था अपने दो पहलुओं में गुणात्मक रूप से अधिक जनतांत्रिक बैठती है। इसका पहला पक्ष है, नीति-निर्धारण की प्रक्रिया की बुनियादी जनतांत्रिकता है। यह संयोग ही नहीं है कि सीपीएम की जिस कांग्रेस के आखिरी दिन नया महासचिव चुना गया, उसके लिए पूरे छ: दिन तक देश भर से पार्टी के लगभग आठ सौ शीर्ष नेता विशाखापट्टनम में जुटे थे। ये नेता, जो देश भर में फैले पार्टी के दस लाख से ज्यादा सदस्यों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, वास्तव में सबसे निचली इकाइयों से लेकर राज्य स्तर तक, ऐसे ही सम्मेलनों की शृंखला में चुनकर, पार्टी के शीर्ष निर्णयकारी निकाय में प्रतिनिधि बनने तक पहुंचे थे। इन प्रतिनिधियों ने विधिवत एक दस्तावेज के माध्यम से सिर्फ अगली ऐसी ही कांग्रेस तक, तीन साल की अवधि तक के लिए नीति और दिशा को ही तय नहीं किया, इस अवधि में पार्टी के शीर्ष निर्णयकारी निकाय के रूप में नयी केंद्रीय कमेटी का भी चुनाव किया। इसी केंद्रीय कमेटी के कार्यपालक निकाय के रूप में, महासचिव तथा उसके समेत सोलह सदस्यीय पोलिट ब्यूरो का चुनाव किया गया।
इस व्यवस्था में तीन साल के लिए पार्टी की नीति तथा दिशा पार्टी कांग्रेस तय करती है और इसके लिए तैयार किए जाने वाले दस्तावेज को अंतिम रूप देने की बहस में, ऊपर से नीचे तक समूची पार्टी शामिल होती है। इसके लिए केंद्रीय कमेटी द्वारा कांग्रेस से दो महीने पहले दस्तावेज का मसौदा जारी किया जाता है, जिस पर देश भर से पार्टी इकाइयों व सदस्यों द्वारा भेजे जाने वाले संशोधन प्रस्तावों पर विचार करने के बाद ही, कांग्रेस में बहस के लिए अंतिम रूप से मसौदा पेश किया जाता है। पार्टी कांग्रेस, नयी केंद्रीय कमेटी का चुनाव कर उसे इस तरह निर्धारित की गयी नीति व दिशा को लागू कराने की जिम्मेदारी सोंपती और पोलिट ब्यूरो तथा महासचिव, इसे अमल में लाते हैं। हर तीन महीने में एक बार बैठक कर केंद्रीय कमेटी इस दिशा व नीति के पालन का जायजा तथा जरूरी निर्णय लेती है और हरेक पार्टी कांग्रेस, पिछली बार तय की गयी नीति व दिशा के पालन की समीक्षा करती है। यह माकपा जैसी पार्टी में ही संभव था कि 1996 में यूनाइटेड फ्रंट सरकार में शामिल होकर प्रधानमंत्री पद संभालने के पार्टी के तत्कालीन शीर्ष नेताओं के प्रस्ताव को, केंद्रीय कमेटी ने नामंजूर कर दिया और पार्टी के शीर्ष नेताओं ने अपनी असहमति को परे रखकर ठीक इसी निर्णय को लागू किया। इसी समूची व्यवस्था से निकली एक और विशेषता सामूहिक नेतृत्व की है। माकपा में महासचिव, पोलिट ब्यूरो के साथ ही निर्णय लेता है, अकेले नहीं। और पोलिट ब्यूरो सामूहिक रूप से केंद्रीय कमेटी के प्रति जवाबदेह होता है।
अचरज नहीं कि उस समय जबकि राजनीतिक पार्टियों में नेताओं के निरंकुश बनने की होड़ लगी हुई है, माकपा ने महासचिव और विभिन्न स्तरों पर सचिवों के लिए अधिकतम तीन कार्यकाल की सीमा को सफलता के साथ लागू भी कर दिया है।
राजेंद्र शर्मा


